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अमृत महोत्सव जन-जन के चेतना की प्रेरणाओं-आकांक्षाओं-स्वप्नों से जोड़ने का अनूठा एवं अनुपम महोत्सव है। - श्रीनारद मीडिया

अमृत महोत्सव जन-जन के चेतना की प्रेरणाओं-आकांक्षाओं-स्वप्नों से जोड़ने का अनूठा एवं अनुपम महोत्सव है।

अमृत महोत्सव जन-जन के चेतना की प्रेरणाओं-आकांक्षाओं-स्वप्नों से जोड़ने का अनूठा एवं अनुपम महोत्सव है।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सभी देशवासी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं। यह अमृत महोत्सव जन-जन की चेतना को स्वतंत्रता के संघर्ष की महान गाथाओं, महापुरुषों की पावन स्मृतियों, उसकी पृष्ठभूमि में व्याप्त मूल प्रेरणाओं-आकांक्षाओं-स्वप्नों से जोड़ने का अनूठा एवं अनुपम महोत्सव है। यह अपनी विरासत, अपनी सभ्यता, अपनी संस्कृति और अतीत के आलोक में वर्तमान का आकलन कर भविष्य की दिशा एवं मार्ग तय करने का अवसर है। एक समाज एवं राष्ट्र के रूप में यह अपने स्वत्व और स्वाभिमान तथा महत्व और गौरव के पुनर्स्मरण एवं पुनर्स्थापन का अवसर है।

हमारा इतिहास पीड़ा एवं पराजय का नहीं, संघर्ष और लोक-मंगल की स्थापना का इतिहास है। हम शोकवादी नहीं, उत्सवधर्मी संस्कृति के वाहक हैं। उसी का परिणाम है कि प्रतिकूलता एवं पराधीनता के घोर अंधेरे कालखंड में भी हमने अपने महान भारत वर्ष की सांस्कृतिक अस्मिता, मूलभूत पहचान, परंपरागत वैशिष्ट्य तथा सनातन-शाश्वत जीवन-दृष्टि व मानबिंदुओं को अक्षुण्ण रखा।

उस पर कोई आंच नहीं आने दी। अपसंस्कृति के कूड़े-करकट को प्रक्षालित कर काल की कसौटी पर खरे उतरने वाले जीवन-मूल्यों, मान्यताओं, परंपराओं एवं विश्वासों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित किया। ये वही मूल्य थे जिनके बल पर भारत भारत बना रहा। यह महोत्सव ज्ञान, विज्ञान, शिक्षा, चिकित्सा, तकनीक एवं अत्याधुनिक संसाधनों के मामले में विकसित देशों के साथ कदम मिलाते हुए अपनी जड़ों व संस्कारों से जुड़े रहने और शाश्वत-सार्वकालिक-महानतम भारतीय मूल्यों को पुन: पाने, सहेजने और स्थापित करने का भी महोत्सव है।

यह अवसर वेदों की ऋचाओं, पुराणों की कथाओं, महाकाव्यों के छंदों एवं उपनिषदों के ज्ञान को केवल वाणी का विलास नहीं, आचरण का अभ्यास बनाने का अवसर है। यह अवसर नवीन, प्रगत, उदार एवं वैज्ञानिक सोच के साथ-साथ भारतीय वांग्मय, शास्त्र और साहित्य में वर्णित शुभ-सुंदर-सार्थक को भी अपने-अपने जीवन में चरितार्थ करने का अवसर है।

यह अवसर श्रीराम की मर्यादा, श्रीकृष्ण की नीतिज्ञता, महावीर की जीव-दया, बुद्ध के बुद्धत्व, परशुराम के सात्विक क्रोध, विश्वामित्र के तेज, दधीचि के त्याग, चाणक्य के चिंतन, शंकर के अद्वैत, कबीर-गुरुनानक-सूर-तुलसी के समन्वय, शिवाजी-महाराणा-गुरु गोबिंद सिंह के तेज, शौर्य एवं पराक्रम, रानी लक्ष्मीबाई, वीर कुंवर सिंह, तात्या टोपे, नाना साहब, मंगल पांडेय की वीरता, जीवटता एवं संकल्पबद्धता, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, महर्षि अरविंद के आध्यात्म, बंकिम-शरत-रवींद्र के औदात्य, आजाद-अशफाक-बिस्मिल-भगत सिंह के त्याग एवं बलिदान, तिलक एवं सावरकर की लोकोन्मुखी वृत्ति एवं दूरदृष्टि, महात्मा फुले और बाबा साहेब की समरस सामाजिक चेतना, सुभाष के साहस, संघर्ष व नेतृत्व तथा सत्य, स्वदेशी एवं स्वावलंबन के प्रति गांधी जी के प्रबल आग्रह को जीवन में उतारने का स्वर्णिम अवसर है।

भारतीय दृष्टि में राष्ट्र ‘राज्य’ या ‘स्टेट’ का पर्याय नहीं, वह पश्चिम की भांति केवल एक राजनीतिक सत्ता नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा है। यह महोत्सव इस अवधारणा को ही जानने-समझने और आत्मसात करने का महोत्सव है।

भारत के स्वाधीनता संग्राम को केवल दो-चार सौ वर्षो के सीमित दायरे में आबद्ध करना तथ्यपरक एवं न्यायसंगत नहीं होगा। बल्कि शकों-हूणों-कुषाणों आदि को भारतीय संस्कृति की सर्वसमावेशी धारा में रचा-बसा लेने के पश्चात भारत का सामना अरबों-तुर्को-मंगोलों से हुआ और भयानक लूटपाट, भीषण रक्तपात, यातनाप्रद अन्याय-अत्याचार के बावजूद वे न तो संपूर्ण भारत वर्ष पर निरापद शासन ही कर सके, न हम भारतीयों की चेतना का ही समूल नाश कर सके।

परिणामस्वरूप देश के किसी-न-किसी हिस्से में विदेशी आक्रांताओं एवं संपूर्ण भारतवर्ष में इस्लामिक साम्राज्य स्थापित करने का मंसूबा पाले कट्टर व धर्माध शासकों को निरंतर प्रतिकार एवं प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। राजा दाहिर, पृथ्वीराज चौहान, महाराणा सांगा, महाराणा प्रताप, कृष्णदेव राय, छत्रपति शिवाजी, संभाजी, वीर छत्रसाल, पेशवा बाजीराव प्रथम, गुरुगोबिंद सिंह जी जैसे तमाम राष्ट्रनायकों ने जहां एक ओर अंग्रेजों से पूर्व के भारत में निरंकुश, असहिष्णु, विस्तारवादी एवं वर्चस्ववादी इस्लामिक सत्ता का प्रतिकार एवं प्रतिरोध कर भारत के स्वत्व एवं स्वाभिमान की रक्षा की तो वहीं दूसरी ओर अंग्रेजी सत्ता के विरुद्ध थोड़े-थोड़े अंतराल पर विद्रोह, क्रांति एवं आंदोलनों का नेतृत्व कर महान स्वतंत्रता सेनानियों ने स्वतंत्रता की अलख व चेतना को प्रज्ज्वलित रखा।

स्वतंत्रता, स्वाभिमान एवं स्वावलंबन की उसी चेतना एवं भावना को आत्मसात कर स्वतंत्र भारत भी निरंतर प्रगति-पथ पर अग्रसर है। आपातकाल के अपवाद को छोड़कर हमारा लोकतंत्र भी दिन-प्रतिदिन मजबूत एवं परिपक्व हुआ है। आजादी का यह अमृत महोत्सव स्वतंत्र एवं स्वतंत्रता-पूर्व के भारत की ऐसी तमाम महत्वपूर्ण एवं गौरवपूर्ण उपलब्धियों से प्रेरणा ग्रहण कर साझे प्रयासों के बल साझे सपनों-संकल्पों को पूरा करने का महोत्सव है।

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