जाति की जंजीरें: आज़ादी के बाद भी मानसिक गुलामी : प्रियंका सौरभ
श्रीनारद मीडिया, वैद्य पण्डित प्रमोद कौशिक, हरियाणा
आस्था पेशाब तक पिला देती है, जाति पानी तक नहीं पीने देती, कैसे लोग अंधभक्ति में बाबा की पेशाब को “प्रसाद” मानकर पी सकते हैं, लेकिन जाति के नाम पर दलित व्यक्ति के छूने मात्र से पानी अपवित्र मान लिया जाता है। इन समस्याओं की जड़ें धर्म, राजनीति, शिक्षा और मीडिया की भूमिका में छिपी हैं। शिक्षा में विवेक की कमी, मीडिया की चुप्पी, धर्मगुरुओं की मनमानी और जातिवादी मानसिकता समाज को पिछड़ेपन की ओर ढकेल रही है। यह सवाल उठाता है कि यदि आस्था किसी बाबा की पेशाब को ‘पवित्र’ मान सकती है, तो एक दलित का पानी ‘अपवित्र’ कैसे हो सकता है ?
भारत, जिसे आध्यात्मिकता और विविधता का देश कहा जाता है, अपने भीतर विरोधाभासों का एक ऐसा संसार छुपाए बैठा है जो कभी-कभी चौंका देता है। एक ओर हम विज्ञान, तकनीक, अंतरिक्ष और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की बात करते हैं, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और सांस्कृतिक परतों में आज भी मध्ययुगीन सोच जड़ें जमाए बैठी है। एक ही समाज में ऐसे दृश्य देखने को मिलते हैं जहां लोग किसी बाबा के चरणामृत को ‘अमृत’ मानकर पी जाते हैं, यहां तक कि गोमूत्र और गोबर को औषधि बताकर उसका सेवन करते हैं; और उसी समाज में एक दलित व्यक्ति के हाथ का पानी पीना ‘पाप’ मान लिया जाता है।
यही वह विडंबना है जिसे इस तीखे वाक्य ने पूरी ताकत से उजागर किया है—”आस्था पेशाब तक पिला देती है, जाति पानी तक नहीं पीने देती।” यह पंक्ति महज़ एक व्यंग्य नहीं, बल्कि भारतीय समाज की गहराई से जमी हुई दो बड़ी बीमारियों की पहचान है—एक है अंधविश्वास में डूबी आस्था और दूसरी है जातिगत भेदभाव। दोनों ही एक हद तक इंसानियत, तर्कशक्ति और समानता के मूल सिद्धांतों को चुनौती देते हैं।
आस्था: श्रद्धा और मूर्खता के बीच की पतली रेखा
आस्था किसी भी समाज की आध्यात्मिक और सांस्कृतिक रीढ़ होती है। यह इंसान को एक उद्देश्य देती है, उसे नैतिकता और आत्मबल प्रदान करती है। लेकिन जब यही आस्था तर्क, विज्ञान और मानवाधिकारों की सीमा लांघकर अंधश्रद्धा में बदल जाती है, तब वह खतरनाक रूप ले लेती है। भारत में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां धर्मगुरुओं ने अपने अनुयायियों को गोमूत्र पीने, मल-मूत्र का सेवन करने, या स्वयं को ‘भगवान’ घोषित कर देने जैसे कृत्य करवाए और लोग आंख मूंदकर उनका पालन करते रहे। एक बाबा द्वारा ‘चमत्कारी जल’ के नाम पर अपनी पेशाब पिलाने की खबरें भी समय-समय पर सामने आती रही हैं।
श्रद्धालु इसे ‘आशीर्वाद’ मानकर पीते हैं, और मीडिया जब इन घटनाओं पर सवाल उठाती है, तो आरोप लगाया जाता है कि वह धर्म का अपमान कर रही है। यह कैसी आस्था है जो इंसान को अपनी सोच और विवेक को पूरी तरह त्यागने को विवश कर देती है? यह कैसी श्रद्धा है जो सवाल उठाने वालों को अपराधी बना देती है ?
जाति: एक आधुनिक समाज में मध्यकालीन सोच।
अब बात करें उस दूसरी बड़ी सामाजिक बीमारी की—जातिवाद की। भारत में जाति एक ऐसी संरचना है जो जन्म के आधार पर व्यक्ति की सामाजिक हैसियत, पेशा, अधिकार और यहां तक कि जीवन-मरण के अवसर भी तय करती है। भारतीय संविधान ने भले ही जातिवाद को गैरकानूनी घोषित कर दिया हो, लेकिन सामाजिक मानसिकता में इसकी जड़ें आज भी उतनी ही गहरी हैं।
आज भी देश के कई हिस्सों में दलितों को मंदिरों में प्रवेश नहीं मिलता, उनके लिए अलग कुएं या नल होते हैं, स्कूलों में उनके बच्चों को अलग बैठाया जाता है, और उनके स्पर्श मात्र से वस्तुएं ‘अपवित्र’ मानी जाती हैं। हाथ से मैला उठाने जैसी अमानवीय प्रथा आज भी समाप्त नहीं हुई है। ऐसे उदाहरण रोज़ सामने आते हैं जब दलित युवक को ऊंची जाति की लड़की से प्रेम करने के लिए मार दिया जाता है, या जब किसी गांव में सिर्फ इस वजह से उनके घरों में आग लगा दी जाती है कि उन्होंने ‘मर्यादा’ लांघी। यह कितना त्रासद है कि वही समाज जो गोमूत्र को औषधि मान सकता है, वह एक इंसान के छूने मात्र से पानी को अपवित्र मानता है।
विरोधाभास की जड़ें
इस विरोधाभास की जड़ें कहीं और नहीं, बल्कि हमारी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक संरचना में छिपी हुई हैं। धर्म के नाम पर आस्था को हथियार बनाकर लोगों की सोच को नियंत्रित किया गया। धर्मग्रंथों की मनमानी व्याख्याओं के ज़रिए एक वर्ग को ‘ऊंचा’ और दूसरे को ‘नीचा’ साबित किया गया। जो सवाल उठाए, वह ‘धर्म विरोधी’ करार दे दिया गया।
राजनीति ने भी इस व्यवस्था को खूब पोषित किया। जातियों को वोट बैंक में बदल दिया गया। आरक्षण के नाम पर नफरत फैलाई गई, लेकिन जातिगत अत्याचार को खत्म करने के लिए न ठोस प्रयास किए गए, न इच्छाशक्ति दिखाई गई। आस्था के नाम पर जनता को भावनात्मक रूप से बांधा गया, और वैज्ञानिक सोच को ‘पश्चिमी विचारधारा’ बताकर नकार दिया गया।
शिक्षा और विवेक की कमी
शिक्षा वह उपकरण है जो समाज को तर्कशील और न्यायप्रिय बनाता है। लेकिन भारत की शिक्षा व्यवस्था में तर्क और मानवाधिकार की शिक्षा बहुत सीमित है। हम बच्चों को विज्ञान पढ़ाते हैं, लेकिन उनकी सोच में वैज्ञानिक दृष्टिकोण नहीं भरते। हम उन्हें नैतिक शिक्षा देते हैं, लेकिन जातिवाद और सामाजिक न्याय के सवालों पर चुप रहते हैं। जब बच्चा स्कूल में यह देखता है कि उसके सहपाठी को ‘चमार’ या ‘भंगी’ कहा जा रहा है, जब शिक्षक ही छात्रों से जाति पूछते हैं, तो यह सोच उसकी चेतना में गहराई तक बैठ जाती है। यही बच्चा बड़ा होकर वही भेदभाव करता है, और एक बार फिर वह दुष्चक्र शुरू हो जाता है।
मीडिया और समाज का दोगलापन
मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन जब बात जातिवाद या अंधविश्वास की आती है, तो उसका रुख या तो बेहद सतही होता है या पूरी तरह से चुप्पी ओढ़ लेता है। बाबाओं के चमत्कारों को वह ‘मनोरंजन’ के नाम पर दिखाता है, लेकिन किसी दलित की हत्या पर सिर्फ दो मिनट की रिपोर्ट चलाकर बात खत्म कर देता है। वह जानबूझकर ऐसे मुद्दों से बचता है जो उसे किसी ‘विशेष वर्ग’ से नाराज़ कर सकते हैं।
वहीं समाज भी अपनी सुविधानुसार संवेदनशीलता चुनता है। गोमूत्र बेचने वाले को ‘आधुनिक ऋषि’ कहा जाता है, लेकिन मैनहोल की सफाई करते मजदूर की मौत पर कोई आवाज़ नहीं उठती।
क्या है समाधान ?
तर्कशील शिक्षा का विस्तार: स्कूलों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और सामाजिक न्याय पर आधारित पाठ्यक्रम को शामिल किया जाना चाहिए। बच्चों को बचपन से यह सिखाना ज़रूरी है कि आस्था का मतलब अंधश्रद्धा नहीं होता, और हर इंसान समान है। सख्त कानून और उनका क्रियान्वयन: जाति आधारित भेदभाव के खिलाफ बने कानूनों को सिर्फ कागज़ पर नहीं, ज़मीन पर भी लागू करना होगा। दोषियों को सज़ा मिले, तभी समाज में बदलाव संभव है। मीडिया की ज़िम्मेदारी: मीडिया को इस विषय पर ईमानदार विमर्श शुरू करना चाहिए।
दलितों के मुद्दों, जातिगत अन्याय और अंधविश्वास के खिलाफ सशक्त रिपोर्टिंग ज़रूरी है। धार्मिक संस्थाओं में सुधार: धर्मगुरुओं को अपने अनुयायियों को विज्ञान और सामाजिक समानता का संदेश देना चाहिए। अगर धर्म में परिवर्तन नहीं होगा, तो समाज में भी नहीं होगा। सिविल सोसायटी और युवाओं की भागीदारी: सामाजिक संगठनों, छात्रों और जागरूक नागरिकों को इस व्यवस्था के खिलाफ मिलकर आवाज़ उठानी होगी। सोशल मीडिया को एक सशक्त माध्यम बनाकर जातिवाद और अंधविश्वास के खिलाफ आंदोलन खड़ा किया जा सकता है।
क्या हम सच में आधुनिक हो पाए हैं ?
भारत जब चंद्रमा पर पहुंचने की उपलब्धि का जश्न मना रहा होता है, तभी किसी गांव में एक दलित को मंदिर में प्रवेश करने पर पीट-पीट कर मार दिया जाता है। जब एक ओर सरकारी अभियान ‘स्वच्छ भारत’ का नारा देते हैं, वहीं दूसरी ओर हजारों सफाईकर्मी बिना सुरक्षा के गटर में उतरकर दम तोड़ते हैं। और जब एक ओर लोग बाबा की पेशाब को ‘प्रसाद’ मानकर पीते हैं, उसी समय एक दलित का छुआ पानी ‘गंदा’ मान लिया जाता है।
यह विरोधाभास हमें यह सोचने पर मजबूर करता है कि क्या विकास सिर्फ इमारतें, मेट्रो और मोबाइल नेटवर्क तक सीमित है, या इसमें सोच, समानता और इंसानियत भी शामिल है? आस्था का स्थान महत्वपूर्ण है, लेकिन अगर वह इंसानियत को कुचलती है, तो वह किसी काम की नहीं। जाति की संरचना अगर किसी को उसका मानवाधिकार नहीं देती, तो वह टूटनी ही चाहिए।
इसलिए आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है कि हम इस पाखंड को पहचानें और उसके खिलाफ बोलें। आस्था अगर पेशाब तक पिला सकती है, तो समाज को इतना संवेदनशील और तर्कशील बनाना होगा कि जाति के नाम पर पानी से इनकार न किया जाए। इंसान की पहचान उसकी जाति से नहीं, उसके कर्म और चरित्र से हो—यही असली धर्म है, यही सच्ची आस्था।
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