एएमयू ने मदरसे से यूनिवर्सिटी तक का सफर तय किया है
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल करने का फैसला सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में सात सदस्यीय संविधान पीठ ने सुना दिया। इससे एक तरफ एएमयू में खुशी की लहर दौड़ गई है तो यहां के भाजपा सांसद को फैसला पसंद नहीं आया। उन्होंने खुले तौर पर फैसले को लेकर कड़ी प्रतिक्रिया दी है। सांसद सतीश गौतम ने कहा कि एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जा बरकरार रहने का कोई औचित्य नहीं है। सरकार को चाहिए कि संस्थान को अल्पसंख्यक स्वरूप रहने के चलते जो भी मदद दी जाती हैं, उन्हें रोक दे।
इतिहास पर गौर करें तो 1875 में मदरसे की स्थापना की गई। दो साल बाद 1877 में एमएओ कॉलेज बना। 1920 में एएमयू की स्थापना हुई। देश आजाद हुआ तो 1951 में एक्ट में बदलाव किए गए। 1965 में अल्पसंख्यक स्वरूप खत्म हुआ और विवाद की नींव पड़ी थी। इस अल्पसंख्यक दर्जे से किसे और क्या फायदा होता है? अल्पसंख्यक दर्जा है क्या? एएमयू में इस फैसले के बाद क्यों खुशी की लहर है? आइए विस्तार से इन सभी सवालों का जवाब जानते हैं।
सर सैय्यद ने एएमयू के लिए अलीगढ़ ही क्यों चुना?
एएमयू अलीगढ़ में ही क्यों स्थापित हुआ? इसके जवाब दस्तावेजी साक्ष्य के साथ सुप्रीम कोर्ट की पीठ के सामने भी पेश किए गए हैं। बताया गया कि शिक्षण संस्थान की स्थापना के लिए कई जिलों का सर्वे कराया गया। जिलों के वातावरण, आब-ओ-हवा को भी सर्वे में शामिल किया गया। अलीगढ़ में यह सर्वे तत्कालीन सिविल सर्जन डा.आर जैक्सन, पीडब्ल्यूडी इंजीनियर हंट व तत्कालीन डीएम हैनरी जार्ज लॉरेंस ने किया। रिपोर्ट में कहा गया कि अलीगढ़ जिला नार्थ इंडिया में सबसे बेहतर है।
हजारों साल तक न बाढ़ आएगी, न अकाल पड़ेगा
पांच-छह हजार वर्ष तक न तो यहां बाढ़ आ सकती है और न अकाल का खतरा है। पानी का स्तर तीस फिट पर है। यहां फौजी पड़ाव की 74 एकड़ भूमि खाली है। यातायात के लिए जीटी रोड और दिल्ली हावड़ा के मध्य ट्रेन माध्यम भी है। तब यहां 24 मई 1875 को मदरसा उसी छावनी में स्थापित किया, जो 1877 में एमएओ कॉलेज के रूप में परिवर्तित हुआ। 18 98 में सर सैयद के इंतकाल के बाद सरसैयद मैमोरियल कमेटी बनी, जिसके प्रयास से राष्ट्रव्यापी आंदोलन के क्रम में 1920 में ब्रिटिश संसद में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का बिल पास कर इसकी स्थापना हुई।
तीस लाख रुपये लेकर मिली विवि की मान्यता
उस समय की सरकार ने तीस लाख रुपया लेकर मान्यता दी। तब 13 विभागों से इसे संचालित किया गया। एएमयू की जामा मस्जिद को केंद्र मानकर 25 किमी रेडियस में किसी भी संस्थान को एएमयू से जोड़कर चलाने की अनुमति दी। बस एएमयू एक्ट में इसका प्रबंधन मुस्लिमों को दिया, तय किया कि मुस्लिम ही इसके कोर्ट सदस्य यानि सर्वोच्च संस्था के सदस्य हो सकेंगे। भोपाल की बेगम सुल्तान जहां पहली चांसलर और राजा महमूदाबाद पहले कुलपति बनाए गए। यहां पढ़ने वाले मुस्लिम छात्रों को दीन की शिक्षा की अनिवार्यता तय की गई।
आजादी के बाद प्रवेश नीति में कर दिए बदलाव
इस विवाद की जड़ यानि शुरुआत का जिक्र करते हुए एएमयू के पूर्व पीआरओ व उर्दू अकादमी के पूर्व चेयरमैन डा.राहत अबरार बताते हैं कि 1951 तक सब यूं ही चला। संसद में 1951 में आजाद भारत का संविधान लागू होने पर बीएचयू व एएमयू एक्ट में सात बदलाव सामने आए। जिसमें एएमयू को लेकर कहा गया कि अब कोई भी यानि गैर मुस्लिम भी कोर्ट सदस्य बन सकेगा। दूसरा एएमयू को राष्ट्रीय महत्व की संस्था करार दिया गया। मगर एएमयू की प्रवेश नीति में बदलाव किए गए। साथ में राष्ट्रपति को एएमयू का विजिटर बनाया गया। इसे लेकर हंगामे और विरोध शुरू हुए। लगातार हुए विरोध के बीच संसद में 1965 में फिर कुछ बदलाव कर इसका अल्पसंख्यक स्वरूप समाप्त कर दिया।
गैर अलीग पहुंचे सुप्रीम कोर्ट, खारिज की अपील
डा.राहत अबरार के अनुसार इस बदलाव के खिलाफ मद्रास के रहने वाले एस.अजीज बाशा ने सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर की। जो न तो अलीग यानि पूर्व एएमयू छात्र थे और न उनका अलीगढ़ से कोई नाता था। जिस पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने 1951 व 1965 के फैसले की समीक्षा करते हुए 1967 में याचिका खारिज कर दी। साथ में यहां तक कहा कि न तो इसकी स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यकों द्वारा की गई और न उनका संचालन किया गया। जिसका चौतरफा विरोध शुरू हुआ।
जब इंदिरा के मंत्री के सामने खाली हो गया कैनेडी हॉल
डा.राहत अबरार के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद विरोध तेज हो चला था। इंदिरा गांधी सरकार पर चौतरफा विरोध का दबाव था। सभी विपक्षी दल चुनावी घोषणा पत्र में इसे अपने वायदे में शामिल रखते थे। कहते थे कि सरकार में आए तो एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल करेंगे। विरोध के बीच भावनाएं जानने के लिए इंदिरा गांधी ने अपनी सरकार के मंत्री बाबू जगजीवन राम को एएमयू भेजा। उस समय आरिफ मोहम्मद खां एएमयू छात्रसंघ के अध्यक्ष थे। खुद डा.अबरार जूनियर छात्र थे। कैनेडी हॉल में कार्यक्रम रखा गया। जगजीवन राम के समक्ष छात्रसंघ अध्यक्ष रहते आरिफ मोहम्मद खां ने अपने भाषण में कहा कि आपको अगले पांच मिनट में हमारी भावनाएं पता चल जाएंगी। इसके बाद उन्होंने छात्रों से पांच मिनट में कैनेडी हॉल खाली करने का संदेश दिया और हॉल पांच मिनट में खाली हो गया। लगातार आंदोलन हुए।
1981 में इंदिरा ने फिर दिया अल्पसंख्यक का दर्जा
साल 1981 में संसद में एएमयू एक्ट में संशोधन कर इसके अल्पसंख्यक स्वरूप की पुष्टि करते हुए कहा गया कि यह मुस्लिमों द्वारा स्थापित भारतीय मुस्लिमों की पसंद का उनकी शैक्षिक, सांस्कृतिक उन्नति में अग्रणी भूमिका निभाने वाला संस्थान है।
अब 2005 से शुरू हुए विवाद की फैसले की घड़ी नजदीक
डॉ. राहत अबरार की मानें तो 1981 में एएमयू के अल्पसंख्यक स्वरूप की बहाली के फैसले के बाद 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार की ओर से एक पत्र में कहा गया कि यह अल्पसंख्यक संस्थान है, इसलिए वह अपनी दाखिला नीति में परिवर्तन कर सकता है। इस पर एएमयू ने एमडी-एमएस में प्रवेश नीति बदलकर आरक्षण प्रदान किया। इस फैसले के खिलाफ पीड़ित डॉ. नरेश अग्रवाल सहित दो आवेदक उच्च न्यायालय इलाहाबाद चले गए। जिस पर एकल पीठ ने एएमयू के खिलाफ फैसला दिया और फिर केंद्र सरकार ने युगल पीठ में अपील की तो वहां भी 2006 में एएमयू के खिलाफ फैसला आया। जिसमें कहा गया था कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। उसके बाद कई पक्षकार सुप्रीम कोर्ट गए। जहां से आदेश दिया गया कि जब तक कोई सुबूत नहीं मिलता, तब तक यथा स्थिति बनी रहेगी। जिसकी सुनवाई तीन जजों की बेंच ने शुरू की।
सुप्रीम कोर्ट में नौ माह पहले हो चुकी सुनवाई पूरी
एएमयू की ओर से कहा गया कि पूर्व में यह मसला सुप्रीम कोर्ट में चूंकि पांच जजों की बेंच ने सुना था, इसलिए इसे यहां नहीं सुना जाना चाहिए। इस पर तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश ने 2019 में इस मामले को 7 जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया था। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति संजीव खन्ना, न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता, न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की सात न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुनवाई पूरी कर 1 फरवरी 2024 को फैसला सुरक्षित रख लिया था। अब चूंकि शुक्रवार को मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ सेवानिवृत्त हो रहे थे। ऐसे में शुक्रवार को फैसला आ गया।
पहली बार प्रवेश नीति में बदलाव पर हुआ था हंगामा
भारतीय संविधान लागू होने के बाद 1963 में तत्कालीन शिक्षा मंत्री एमसी छागला ने एएमयू की प्रवेश नीति में कुछ मामूली बदलाव किए थे। डा.राहत अबरार किस्सा याद करते हुए बताते हैं कि उस समय अली आबर जंग एएमयू के कुलपति थे। वे शिक्षा मंत्री के मित्र भी थे। इसे लेकर काफी हंगामा और विरोध हुआ। इसी तरह एएमयू इतिहास विभाग के प्रोफेसर रहे नूरुल हसन के शिक्षा मंत्री बनने पर एएमयू की प्रवेश नीती में कुछ बदलाव 1972 में हुए, तब भी विरोध हुआ। उसी विरोध की नीव ऐसी पड़ी कि 1981 में सरकार को अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल करना पड़ा।
वाजपेयी सरकार में आया प्रस्ताव किया था खारिज
कांग्रेस की इंदिरा सरकार ने जब 1981 में एएमयू का अल्पसंख्यक स्वरूप बहाल कर दिया तो सब कुछ सामान्य तरह से चलता रहा। हां, अटल विहारी वाजपेयी सरकार के समय में एचआरडी मंत्रालय ने एएमयू के जेएन मेडिकल कॉलेज की एमडीएमएस के प्रवेश में ऑल इंडिया को पचास फीसदी कोटे की सिफारिश की। मगर एएमयू ने उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया। बाद में 2004 में मनमोहन सिंह सरकार बनी तो उस समय एक पत्र जारी हुआ, जिसके आधार पर एएमयू ने अपनी प्रवेश नीति में बदलाव कर मुस्लिम छात्रों को एमडीएमएस में पचास फीसदी आरक्षण व्यवस्था लागू की। जिसके खिलाफ नरेश अग्रवाल आदि हाईकोर्ट गए थे। जिस पर हाईकोर्ट ने संसद का 1981 का फैसला पलटा था।
पर केंद्र सरकार ने वापस लिया था अपना हलफनामा
डा.राहत अबरार बताते हैं कि हाईकोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान एएमयू ने अपना कोई वकील खड़ा नहीं किया था, बल्कि केंद्र सरकार ने अपना वकील खड़ा किया। हाईकोर्ट से एएमयू के खिलाफ फैसला आने के बाद 2006 में ही तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पहली अपील की। इसके बाद उसमें एएमयू ओल्ड ब्वाइज एसोसिएशन सहित अन्य कई पक्ष शामिल हुए। मगर 2014 में भाजपा शासित सरकार के गठन के बाद 2016 में केंद्र सरकार की ओर से दाखिल हलफनामा यह कहते हुए वापस लिया गया कि यह पूर्व सरकार ने दाखिल किया था। इसे हम वापस लेते हैं। जिसके बाद एएमयू के पक्ष की ओर से पैरवी एएमयू, ओल्ड ब्वाइज सहित तमाम अलीग बिरादरी ने शुरू की।
ये भी हैं पक्ष विपक्ष में कुछ प्रमुख तर्क
अलीगढ़। सुप्रीम कोर्ट में अब लंबे समय से इस मामले में एएमयू के पक्ष में कपिल सिब्बल सहित कई प्रमुख अधिवक्ता वकालत कर रहे हैं। डा.राहत अबरार बताते हैं कि इस मामले की सुनवाई की प्रक्रिया ऑनलाइन है। जिसे वे खुद सुनते थे। जिसमें सरकार की ओर से कहा गया कि यह इसलिए सरकारी संस्थान है क्योंकि इसकी स्थाना सरकारी मुलाजिम सरसैयद अहमद खां ने की थी। इस पर एएमयू की ओर से पक्ष रखा गया कि सरसैयद अहमद खां ने सेवानिवृत्ति के बाद मदरसे की स्थापना की, इसलिए वे स्थापना के समय सरकारी मुलाजिम नहीं थे। दूसरा तर्क दिया गया कि ब्रिटिश संसद ने बिल पास कर स्थापित किया। यही तर्क 1981 के सरकार के संशोधन का किया। इसलिए इसे अल्पसंख्यक स्वरूप का नहीं माना जा सकता। इस पर एएमयू की ओर से पक्ष रखा गया कि बिल तो तत्कालीन सरकारों ने ही पास किया। फिर क्यों नहीं।
ये था सरसैयद का दूरगामी उद्देश्य
डा.राहत अबरार एमएओ कॉलेज की स्थापना के समय सर सैयद अहमद खां द्वारा दिए गए भाषण का जिक्र करते हुए बताते हैं कि उन्होंने कहा कि यह कॉलेज एक बरगद की तरह रूप ले। इसकी शाखाएं फैलें और अन्य संस्थाएं भी इससे संबद्ध हों। इसकी निर्भरता सरकार पर न हो, इसे जन सहयोग से चलाया जाए। इसी उद्देश्य के चलते उन्होंने एएमयू की स्थापना का संकल्प लेकर चंदा शुरू किया। बात जनसहयोग की करें तो एएमयू की स्थापना में 25 रुपये से लेकर 500 रुपये तक का सहयोग देने वाले 268 लोगों के नामों की सूची के पत्थर बाउंड्री वाल से लेकर स्ट्रैची हॉल तक में लगे हैं।
एएमयू और प्रकरण अब तक
-1875 में मदरसे की स्थापना
-1877 में एमएओ कॉलेज बना
-1920 में एएमयू की स्थापना हुई
-1951 में एक्ट में बदलाव किए
-1965 में अल्पसंख्यक स्वरूप खत्म
-1967 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका खारिज
-1981 में संसद ने स्वरूप बहाल किया
-2004 में केंद्र के पत्र से फिर विवाद शुरू
-2004 में हाईकोर्ट में याचिका दायर
-2006 में हाईकोर्ट ने स्वरूप खारिज किया
-2006 में सुप्रीम कोर्ट में अपील दायर
-2016 में केंद्र ने हलफनामा वापस लिया
-2019 में संविधान पीठ तय की गई
-2024 में फैसला सुरक्षित किया गया
-8 नवंबर 2024 को अल्पसंख्यक दर्जा बहाल रखने का फैसला