शिव को भी अन्नदान करतीं है अन्नपूर्णेश्वरी माँ.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
द्वादश च्योतिर्लिंगों में भी सिरमौर च्योतिर्लिंग आदि विश्वेश्वर की ही प्रधानता है। अविमुक्त क्षेत्र बाबा श्रीकाशी विश्वनाथ की नगरी में श्रीकाशी विश्वनाथ व पार्वती स्वरूपा महागौरी के रूप में माता अन्नपूर्णा का विशेष स्थान है। बाबा विश्वनाथ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को देने वाले हैं, इस जीवंत नगरी काशी में तो वहीं माता अन्नपूर्णा भी कोई भूखा नहीं सोए, इसके लिए संकल्पबद्ध हैं। महादेव की नगरी में अविमुक्त क्षेत्र में जो भी यहां आए उसका भरण-पोषण करने के लिए माता अन्नपूर्णेश्वरी की कृपा सब पर रहती है।
आदि शंकराचार्य से जुड़ा है माता अन्नपूर्णेश्वरी का इतिहास
माता अन्नपूर्णेश्वरी का इतिहास आदि शंकराचार्य से भी जुड़ा हुआ है। आदि शंकराचार्य को भी भगवान शिव का ही रूप सनातनी मानते हैं। जनमन के उन्नायक सनातन संस्कृति की महिमा के प्रतीक बहुरूपता में एकात्मता के अग्रदूत जगत गुरू आदि शंकराचार्य भारत में धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, ब्रह्म विद्या, ज्ञान, दर्शन एवं व्याकरण के पर्याय के रूप में शंकराचार्य सबके लिए अनुकरणीय हैं। वे आदर्शवादिता के साथ यथार्थवादिता के भी परिचायक रहे हैं।
जो जन-जन को सर्वधर्म संभाव एवं मानव सेवा का पाठ पढ़ाया। केरल के कालणि में जन्म लेकर जब भगवान शिव के आदेश पर जब काशी आए और भगवान शिव के द्वारा दिया गया आदि शंकराचार्य को आदेश दिया था तुम्हें वैदिक धर्म के प्रचार हेतु काशी धाम जाना है। वहां भवानी सहित भवानी पति शिव के दर्शन लाभ कर जो मुझसे विद्या प्राप्त की है, काशी जाकर दूसरे के लिए उपयोगी बनाकर सनातन वैदिक धर्म का प्रकाश चहुंओर पहुंचे।
आदि शंकराचार्य ने मां महागौरी अन्नपूर्णेश्वरी से मांगी भिक्षा
इस आदेश का पालन कर आदि शंकराचार्य काशी आए और वह सर्वप्रथम मां अन्नपूर्णा का दर्शन कर मां महागौरी अन्नपूर्णेश्वरी से एक भिक्षा मांगाी। अन्नपूर्णे सदापूर्ण शंकर प्राण वल्लभे। ज्ञान वैराग्य सिद्धर्थम भिक्षाम देहिम च पार्वती।। अर्थात माता अन्नपूर्णा के रूप में विराजमान प्राण वल्लभा हे पार्वती आप मुझे वहीं भिक्षा दीजिए जिससे मुझे ज्ञान वैराग्य की सिद्धि प्राप्त हो। माता अन्नपूर्णा के इस प्रणाम मंत्र द्वारा उन्होंने वैराग्य के सिद्धि की भीख मांगी।
साथ ही मान्यता है कि काशी में भगवान शिव की नगरी में प्राण त्यागने वाले को श्री काशी विश्वनाथ जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर मोक्ष प्रदान करते हैं। माता अन्नपूर्णा अविमुक्त क्षेत्र में रहन वाले लोगों को अन्न-जल ज्ञान वैभव सबकुछ प्रदान करती हैं। इसीलिए काशी में भगवना श्री काशी विश्वनाथ का पूरे श्रावण एक माह तक शिवरात्रि प्रदोष प्रत्येक सोमवार दर्शनार्थियों को श्री काशी विश्वनाथ के एक झलक दर्शन करने के लिए पूरे विश्व से भीड़ उमड़ी रहती है।
बाबा विश्वनाथ व माता अन्नपूर्णा का अटूट संबंध
श्री काशी विश्वनाथ के दर्शन मात्र से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति के साथ ही शिव सायुच्य प्राप्त हो जाता है तो माता अन्नपूर्णा के दर्शन मात्र से घर-परिवार में धन-धान्य की अभिवृद्धि होती है। इसीलिए धन-धान्य की अभिवृद्धि के लिए दीप पर्व पर दर्शन के साथ ही वहां का प्रसाद स्वरूप में अन्न अपने निवास स्थान पर रखने से माता अन्नपूर्णा जी का महती कृपा बनी रहती है।
साल में माता अन्नपूर्णा के निमित्त कई यात्राएं व्रत आदि शास्त्रों में बताए गए। सब मिलाकर काशी अविमुक्त अविरल का संगम है तो मां अन्नपूर्णा जो पार्वती रूप में हैं बाबा विश्वनाथ दोनों की कृपा दृष्टि एक माता अन्न का वरदान देकर जीवन को सफल बनाती हैं तो अंत में बाबा विश्वनाथ तारक मंत्र देकर प्राण को मुक्त कर देते हैं। इसीलिए बाबा विश्वनाथ व माता अन्नपूर्णा का अटूट संबंध है काशी में।
काश्यते शने काश्यते शुभते सदा इति काशी
व्याकरण की दृष्टि काशी शब्द काश धातु से बना है- काश्यति, प्रकाशयति इदम सर्वम इति काशी-जो सबको प्रकाशित करे वह काशी है। तपस्थली, तीर्थरागी तथा वाराणसी इसके अन्य नाम हैं। इसको अविमुक्त, आनंदवन तथा आनंदकानन भी कहा गया है। पुराणों में काशी का बखान में कहा गया है पंचक्रोशात्मक यह काशी भूभाग नहीं है। अपितु भूभाग से पृथक यह ब्रह्म द्रव है। श्रीहरि की अराधना वंदन से प्रसन्न होकर परम शिव जब द्रविभूत हो गए थे, वह ब्रह्म द्रव ही यह काशी प्रक्षेत्र है।
काशी शब्द की उत्पत्ति करते हुए कहा गया काश्यते शने काश्यते शुभते सदा इति काशी। यह भू पर स्थित होकर भी भू से अलग है। इसलिए प्रलयकाल में जब सबकुछ जलमग्न हो जाता है तब भी यह छत्रकारा प्रकाशमान रहती है। ब्रह्म स्वरूप होने से पृथ्वी धरती से अलग होने के कारण इस काशी में शरीर त्याग करने वालों पर ब्रह्मा तथा यम का कठोर वश नहीं चलता। जो यह ब्रह्म द्रव रूपी काशी में शरीर त्याग करता है उसे अपने कर्मफल के अनुसार पुन: जन्म नहीं लेना पड़ता। भूभाग से पृथक होने के कारण ही भूपति राजा हरिश्चंद सकल राज्य को दान करने के बाद पृथ्वी से बाहर अपने को विक्रय करने हेतु काशी पधारे। ब्रह्म स्वरूप काशी होने से काशी के प्रत्येक कंकण को भी शिव माना जाता है तो वहीं अविमुक्त क्षेत्र काशी में अविरल धारा माता गंगा जो काशी में चंद्राकार रूप में प्रवाहित हो रही हैं। शास्त्रों में कहा गया है काशी में गंगा उत्तरभिमुख है।
द्वादश च्योतिर्लिंगों में प्रधान च्योतिर्लिंग आदि विशेश्वर विश्वनाथ काशी में
हिमालय से निकलकर मां गंगा उत्तराभिमुख होती हैं काशी में। इसे मुदिता होती हैं। भाव पिता हिमालय की तरफ होने से पितृमुख गामिनी होने से मुदित रहती हैं। काशी की गंगा प्रसन्न वदना हैं। शिव जटा से निकलकर हिमालय से अवतरित होकर जब काशी में पुन: पर ब्रह्म शिव द्रव से दांग ब्रह्म द्रव में मिलता है तब पितृमुख और पति शिव का सानिध्य पाकर मां गंगा अहलादित प्रसन्न होती हैं। इसलिए परम शिव ब्रह्म को काशी बड़ी प्रिय लगती है। इसीलिए महादेव काशी को नहीं छोडऩा चाहते और मां गंगा काशी को। वहीं द्वादश च्योतिर्लिंगों में प्रधान च्योतिर्लिंग आदि विशेश्वर विश्वनाथ काशी में हैं।
यहां अविरल व अविमुक्त का संगममयी प्राकृतिक प्रकाश भी अद्वितीय है, जो अर्द्धचंद्राकार बनकर पंचकोशात्मक परम शिव के मस्तक का अर्द्धचंद्राकार अलंकरण बनकर काशी सहित देवाधिदेव महादेव को सुशोभित करती हैं। वहीं कहा गया अयोध्या, मथुरा माया, काशी, कांची, अवंतिका। पूरी द्वारावती चेति सपैता मुख्यदायिका।। सातों मोक्षपुरियों में प्रधान होने के कारण ही काशी मध्य में कही गई है। यह कहा जा सकता है मोक्ष पुरियों का सिरमौर है काशी तो वहीं आदि विशेश्वर सभी लिंगों में प्रमुख प्रधानता है।
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