क्या हम भाषा के गूढ़ अर्थों को तो नहीं खो दे रहे हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

सनातन धर्म की अवधारणाओं तथा दृष्टिकोणों को पश्चिमी विद्वान और पाश्चात्य रंग में रंगे भारतीय पश्चिमी ढांचे में ही बदलकर चित्रित करने के आदी हैं। यह दृष्टिकोण अत्यधिक समस्याग्रस्त है। भारतीय धार्मिक परम्पराएं और ज्ञान जब धर्म को सही तरीके से प्रस्तुत करने में सर्वथा असमर्थ पश्चिमी प्रतीकों से बदल दिए जाते हैं तो वे विकृत हो जाते हैं और यहां तक कि खत्म ही हो जाते हैं।

जैसे, उदाहरण के लिए, ‘वेद’ अथवा ‘गीता’ को कभी-कभी ‘हिंदू बाइबल’, तोराह की पुस्तकों को ‘यहूदी वेद’ कह दिया जाता है। कुछ भारतीयों में भी ‘गुरु’ को ‘सेंट’ कहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। साथ ही देवों को ‘एंजल’ और असुरों को ‘डीमन’ का रूप दे दिया जाता है। इस प्रकार समानता दिखाने के लिए शब्दावलियों का आदान-प्रदान अंततः भ्रम पैदा करता है। यह संस्कृति तथा संस्कृत को हानि ही पहुंचाता है।

हम ऐसी अनुवाद प्रक्रिया के द्वारा संस्कृत शब्दों के गूढ़ अर्थों को खो देते हैं। यदि हम ठीक से विचार करें तो इस प्रकार की अनुवाद की समस्या अनेक संस्कृत शब्दों के साथ पाएंगे। यद्यपि यह समस्या उन सभी अंतर्सभ्यता-संघर्षों में से एक संकट है, जहां राजनैतिक सत्ता का संतुलन असमान है, परंतु यह उस स्थिति में और भी अधिक गम्भीर हो जाती है जब संस्कृत में लिखी धार्मिक अवधारणाओं का अनुवाद पश्चिमी भाषाओं में किया जाता है।

संस्कृत न केवल विशेष सांस्कृतिक अनुभवों और लक्षणों को संकेतों में व्यक्त करती है, बल्कि उसमें निहित स्वरूप, ध्वनि तथा अभिव्यक्ति के प्रभावों को उनके वैचारिक अर्थों से अलग नहीं किया जा सकता। दिव्य ध्वनियां संस्कृत भाषा का अंतरंग हैं। इनको प्राचीन ऋषियों द्वारा उनके आतंरिक विज्ञान से खोजा गया था। ये ध्वनियां मनमानी धारणाएं नहीं हैं, बल्कि आध्यात्मिक साधना द्वारा सिद्ध वास्तविकताओं के प्रत्यक्ष अनुभव हैं, जिनमें वे जुड़ी हुई हैं।

इन ध्वनियों के साथ प्रयोग करते हुए बहुत-सी ध्यान प्रणालियां विकसित हुईं और इस प्रकार आतंरिक विज्ञान का विकास हुआ। संस्कृत अपने मूल स्रोत तक पहुंचने के लिए एक मार्ग प्रदान करती है। यह केवल एक संचार माध्यम नहीं है, बल्कि ज्ञान की संवाहक भी है। संस्कृत कई शताब्दियों तक भारत, दक्षिण-पूर्व एशिया और पूर्व एशिया के आध्यात्मिक गुरुओं द्वारा प्रयुक्त होती रही। इसलिए यह सांस्कृतिक प्रणालियों व अनुभवों के एक विशिष्ट परिप्रेक्ष्य को व्यक्त करने का माध्यम बन गई है।

यद्यपि यहूदी-ईसाई पंथों की अपनी पवित्र भाषाएं हैं, जैसे हिब्रू और लैटिन और हालांकि उनके लिए किए गए दावे कभी-कभी संस्कृत के समान ही रहे हैं, परंतु ये भाषाएं सही अर्थों में किन्हीं एकीकृत सभ्यताओं का आधार नहीं बनी हैं। इसके अतिरिक्त ईसाई पंथ प्रारम्भ से ही किसी पवित्र भाषा के द्वारा नहीं, बल्कि एक देशी भाषा के माध्यम से प्रेषित किया गया- पहले अरामैक द्वारा जिसे यीशु बोलते थे और फिर भू-मध्यसागर इलाके की रोजमर्रा की कोइने-ग्रीक भाषा द्वारा।

संस्कृत भाषा अनुवाद के लिए अयोग्य प्रकृति वाली है। उसके तमाम संदर्भ पश्चिम द्वारा भारतीय धार्मिक परम्पराओं और संस्कृति के प्रस्तुतीकरण से विकृत हो जाते हैं। इससे महत्वपूर्ण विशेषताएं और ज्ञान लुप्त हो रहे हैं तथा भारतीय धार्मिक परम्पराओं के उपयोगी और दूरदर्शी आयाम नष्ट होकर वे प्राचीन काल के अवशेष भर बनते जा रहे हैं।

संस्कृत के बहुत-से शब्दों का अनुवाद किया जाना संभव नहीं है। संस्कृत शब्दावलियों को संभाले रखना और इस प्रकार इन शब्दों के सभी अर्थों की पूरी शृंखला का संरक्षण करना उपनिवेशवाद के प्रति अवरोध का भी काम करता है। यह धार्मिक ज्ञान की सुरक्षा करने का भी एक महत्वपूर्ण साधन है।

‘अग्नि’ शब्द का अर्थ केवल भौतिक स्तर तक ही सीमित नहीं है। इसके आध्यात्मिक स्तरों पर भी अर्थ हैं। अतः ‘अग्नि’ को बिना सोचे-समझे ‘फायर’ कहना इस शब्द के अर्थ को संकुचित कर देता है और कई प्रसंगों में तो अर्थ का अनर्थ भी कर देता है।

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