क्या हम अतीत की गलतियां दोहरा रहे हैं?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
पंजाब में खालिस्तानी चरमपंथ का बढ़ना बहुत गंभीर मामला है। पंजाब एक महत्वपूर्ण सीमा राज्य है। इसकी सीमा पाकिस्तान की सीमा से जुड़ी है और हम जानते हैं कि वह इसे अस्थिर करना चाहता है। देश 1980 के दशक में भिंडरांवाले के उदय को भूला नहीं है, जिसकी वजह से स्वर्ण मंदिर पर हमला हुआ और इंदिरा गांधी की त्रासदीपूर्ण हत्या हुई।
अब अमृतपाल सिंह का तेजी से उदय हो रहा है, जो खुलेआम भिंडरांवाले को अपना आदर्श बताता है। यह भारतीय लोकतंत्र की जीत है कि भिंडरांवाले के दौर के बाद, पंजाब धीरे-धीरे सामान्य जीवन की ओर लौट आया। आज, खालिस्तान की मांग को लेकर अलगाववादी आंदोलन फिर उभर रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है? क्या हम अतीत की गलतियां दोहरा रहे हैं? या इससे भी बुरा, नई गलतियां कर रहे हैं?
पहली बात, हम देख रहे हैं कि घिनौनी राजनीतिक मिलीभगत और अवसरवादिता दोहराई जा रही है। जब भिंडरांवाले का उदय हो रहा था, तब सत्तारूढ़ कांग्रेस में उसके शक्तिशाली समर्थक थे। उसकी खालिस्तान की मांग को दबाने की बजाय बढ़ावा दिया गया। उसकी सही समय पर गिरफ्तारी को राजनीतिक अड़चनें डालकर रोक दिया गया। आज यही खेल फिर खेला जा रहा है।
ऐसे कयास लगाए जा रहे हैं कि आम आदमी पार्टी ने पंजाब में चुनाव जीतने के लिए, देश और विदेश, दोनों में खालिस्तानी समर्थकों की मदद ली थी। अजनाला पुलिस स्टेशन पर अमृतपाल के हमले के मामले में राज्य सरकार की चुप्पी से साफ जाहिर है कि वह कोई सख्ती नहीं करना चाहती है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि केंद्र सरकार भी कोई कार्रवाई नहीं कर रही, जबकि उसकी एनआईए जैसी एजेंसियां देशभर में अपनी शक्ति का इस्तेमाल करती रही हैं।
दूसरी बात, प्रशासनिक स्तर पर अयोग्यता और ढिलाई भी रही है, जिसमें अकाली और कांग्रेस सरकार, दोनों ने सुधार की कोशिश नहीं की। पंजाब वित्तीय रूप से दिवालिया होने की कगार पर है। उसकी टैक्स से होने वाली कमाई का लगभग आधा हिस्सा कर्ज चुकाने में जाता है।
कृषि वर्ग में व्यापक गुस्सा है। उधर ड्रग्स और नशे की समस्या भी नियंत्रण से बाहर है। पंजाब में 20-24 साल के 45% युवा बेरोजगार हैं। बिना नौकरी के युवा सिख, आसानी से चरमपंथी राजनीति का शिकार बनकर, उसे बढ़ाने वाले बन सकते हैं।
तीसरी बात, पाकिस्तान लगातार खालिस्तानी समर्थकों को बढ़ावा देता रहा है। वह भारत के बाहर के कई सिख चरमपंथी संगठनों को फंड देता रहा है। वहीं पंजाब में भी वह सीमापार से पैसा, हथियार, ड्रग्स भेजता रहा है। आईएसआई की हमेशा से ही पंजाब में अलगाववाद बढ़ाने में रुचि रही है।
ऐसा ही 1980 के दशक में भी हुआ था। तब से अब तक, इस खतरे को खत्म करने के लिए हमने क्या किया है? क्या हमारी खुफिया एजेंसियों ने, राज्य में हाल ही में खालिस्तान समर्थक ताकतों के बढ़ने पर नजर नहीं रखी? इन्हें रोकने के लिए सख्त कार्रवाई पहले क्यों नहीं की गई?
चौथी और आखिरी बात, हमने पिछले कुछ समय में राजनीति और धर्म का एक-दूसरे में घालमेल देखा है। यदि हिंदू बहुसंख्यकवादी राजनीति को प्रोत्साहित किया जाता है, जिसे हिंदू राष्ट्र की मांग का प्रतीक माना जाता है, तो अन्य धार्मिक समुदायों को इसके खिलाफ खड़े होने में कितना समय लगेगा?
अमृतपाल ने सार्वजनिक रूप से एक साक्षात्कार में पूछा था कि हिंदू राष्ट्र की मांग करने वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं की जाती? भारत में कई धर्मों और जातियों के साथ, विविधता आधारित एक सभ्यतागत एकता है। इसे जबरन समरूप बनाने की कोशिश, आग से खेलने जैसा है।
पंजाब एक सिख बहुल राज्य है। जम्मू और कश्मीर मुस्लिम बहुल राज्य है। नगालैंड, मिजोरम, मेघालय और अरुणाचल प्रदेश ईसाई बहुल राज्य हैं। क्या हमें प्रतिस्पर्धी धार्मिक श्रेष्ठतावाद के ज़रिए, उनमें धार्मिक राष्ट्रवाद की आग पैदा करना है? कई मजबूत क्षेत्रीय पहचानें भी हैं, जिन्हें ऐसी खास हिंदू पहचान का हिस्सा बताए जाने पर खतरा महसूस होता है, जो मुख्यतः उत्तर भारत से निकली है।
उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में, जहां हमारी सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक तमिल बोली जाती है, हिंदी को थोपने के किसी भी प्रयास का विरोध होता है। भारत की एकता मजबूत बनाने के लिए बेहद संवेदनशीलता की जरूरत है। जब देश की संप्रभुता खतरे में है, ऐसे में सख्त और निर्णायक कार्रवाई की भी जरूरत है। पंजाब में ऐसे कदम उठाने का यही सही वक्त है।
भारत की एकता मजबूत बनाने के लिए बेहद संवेदनशीलता की जरूरत है। जब देश की संप्रभुता खतरे में है, ऐसे में सख्त और निर्णायक कार्रवाई की भी जरूरत है। पंजाब में ऐसे कदम उठाने का यही सही वक्त है।