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पचरूखी आते ही याद आई ‘फेर ना भेटाई ऊ पचरूखिया’ पुस्तक।

पचरूखी आते ही याद आई ‘फेर ना भेटाई ऊ पचरूखिया’ पुस्तक।

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पचरूखी निवासी शिक्षाविद डाॅ.रमाशंकर श्रीवास्तव सर को कोटिश: नमन।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

एक लंबे अंतराल के बाद सीवान के पचरुखी बाजार आना हुआ। आज दशहरा उत्सव के अन्तर्गत नवमी का त्यौहार है। पचरुखी के प्रखंड संसाधन केंद्र(बीआरसी) में पत्नी का शिक्षक प्रशिक्षण प्रारंभ हुआ है। बिहार लोक सेवा आयोग द्वारा नवीं व दसवीं वर्ग के शिक्षकों हेतु लिए गए परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। जिसमें उनका नाम सुखद संदेश लेकर आया।


सीवान नगर से काउंसलिंग (परामर्श) होने के बाद पचरुखी संसाधन केंद्र प्रशिक्षण हेतु भेजा गया। मैं भी उनके साथ आया, कुछ औपचारिकताएं पूरी करने के बाद वह प्रशिक्षण कक्ष में चली गई और मैं पचरुखी बाजार में निकल गया। पचरुखी में सड़क के किनारे पुलिस थाने के निकट हनुमान जी, शिव जी और दुर्गा जी का मंदिर है। नमन करने के बाद मंदिर से सटे पूरब दिशा में तालाब के जगत पर बैठ कुछ देर सोचता रहा फिर मैं आगे निकल गया पचरुखी बाजार में। यहाँ मुझे बरबस लेखक व बड़े भाई विकास रंजन की पुस्तक ‘फेर ना भेंटाई पचरुखीयां’ के अध्याय याद हो आई। मुझे आज पहली बार इस बात का अनुभव हुआ कि कलजयी रचनाएँ आखिर कैसे होती हैं? लेखक तत्कालीन समाज को परखते हुए अपनी दूरदृष्टि से रचनाएँ करता है और वह उसमें जितना लेखन में डूबता है उतना ही लेखनी समय के सीमा को पार करती आगे निकल जाती है।

बहरहाल विकास रंजन जी ने अपनी पुस्तक में पचरुखी की कई अनछुए पहलुओं को समेटा है। पचरुखी के उसे वैभव को भी रखा है जिसके लिए वह एक समय प्रसिद्ध रहा है। पचरुखी के लोगों के बारे में जो उन्होंने लिखा है उसकी बानगी आज भी देखने को मिलती है। यहां के बाजार का आज विस्तार हुआ है कुछ उसमें आधुनिकताएं आई हैं लेकिन परंपराएं आज भी बरकरार हैं, लोगों की चेहरे की भावुकता इस तरह बनी हुई है जो आज से सौ साल पहले थी।


आज यहां दशहरा का मेला लगा हुआ है। प्रखंड के विभिन्न गाँवो से महिलाएं व बच्चे आये हुए है। जलेबी, पकौडी, मिठाई और खिलौने से बाजार पट गया है। युवक-यवतियों के मिलने ,निहारने देखने का भी यह मेला है। तरह-तरह उपहार, सीटी और गुब्बारे से अटा यह मेला एक दूसरे को नजदीक लाने का माध्यम बन रहा है। गाँवों का देश भारत यहां चरितार्थ हो रहा है। पचरुखी का मिट्ठा बाजार आज भी प्रसिद्ध है। पचरुखी में आज भी शाम की वह चहल-पहल उपस्थित है। पचरूखी की बात हो चीनी मील की बात न हो ऐसा कैसे हो सकता है।


पचरूखी चीनी मील का वैभव धूमिल पड़ चुका है परन्तु उसके अवशेष आज भी अपनी भव्यता को समेट कर रखा है।
पचरुखी आते ही मुझे एक व्यक्ति और याद आते है, हिंदी और भोजपुरी के शिक्षाविद डॉ. रमाशंकर श्रीवास्तव। जिन्होंने सीवान की पुस्तक (जिला गजेटियर) ‘सोनालिका’ का प्रस्तावना लिखकर ‘सोनालिका’ पुस्तक को अमर कर दिया। डॉ. रमाशंकर श्रीवास्तव दिल्ली के शिवाजी कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष रहे, लंबे समय तक आपका दिल्ली में प्रवास रहा। आपकी कई भोजपुरी की पुस्तक विकास रंजन के द्वारा संचालित डिजिटल पुस्तकालय ‘भोजपुरिया साहित्यांगना डाॅट काॅम’ पर उपलब्ध है।
पचरूखी के समानांतर आपका नाम सम्बद्ध है। जिसे विस्मृत कर देना असंभव है। भावुक मन से यादों को संजोते हुए घर लौटने का समय हो चला।

लेकिन पुन: आउगां पचरूखी,क्योंकि तुम केवल एक भूमि का टुकड़ा भर नहीं,तुम तो जीवन्तता का प्रतीक हो।
अपितु आज नवमी का त्यौहार है मां दुर्गा के चरणों में बारंबार प्रणाम है।

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