संवैधानिक नैतिकता के समक्ष चुनौतियों का आकलन
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत जैसे संसदीय लोकतंत्र में भ्रष्टाचार के आरोप में एक सेवारत मुख्यमंत्री की हालिया गिरफ्तारी कानूनी, राजनीतिक और संवैधानिक चिंताओं को जन्म देती है तथा संवैधानिक नैतिकता के साथ इसकी स्थिरता पर प्रश्न उठाती है।
संवैधानिक नैतिकता क्या है?
- परिचय:
- संवैधानिक नैतिकता (Constitutional morality – CM) एक अवधारणा है जो संविधान के अंतर्निहित सिद्धांतों और मूल्यों को संदर्भित करती है, जो सरकार व नागरिक दोनों के कार्यों का मार्गदर्शन करती है।
- संवैधानिक नैतिकता की अवधारणा 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश क्लासिकिस्ट जॉर्ज ग्रोट द्वारा प्रतिपादित की गई थी।
- उन्होंने मुख्यमंत्री को “देश के संविधान के स्वरूपों के प्रति सर्वोपरि श्रद्धा रखने वाला बताया।”
- भारत में इस शब्द का प्रयोग सबसे पहले डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने किया था।
- संवैधानिक नैतिकता की अवधारणा 19वीं शताब्दी में ब्रिटिश क्लासिकिस्ट जॉर्ज ग्रोट द्वारा प्रतिपादित की गई थी।
- संवैधानिक नैतिकता (Constitutional morality – CM) एक अवधारणा है जो संविधान के अंतर्निहित सिद्धांतों और मूल्यों को संदर्भित करती है, जो सरकार व नागरिक दोनों के कार्यों का मार्गदर्शन करती है।
- संवैधानिक नैतिकता के स्तंभ:
- संवैधानिक मूल्य: संविधान में निहित मूल मूल्यों, जैसे न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, धर्मनिरपेक्षता और व्यक्ति की गरिमा को कायम रखना।
- विधि का शासन: कानून की सर्वोच्चता को कायम रखना, जहाँ सरकारी अधिकारियों सहित सभी कानून के अधीन है और इसके लिये जवाबदेह है।
- लोकतांत्रिक सिद्धांत: एक प्रतिनिधि लोकतंत्र के कामकाज को सुनिश्चित करना जहाँ नागरिकों को निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में भाग लेने और अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों को जवाबदेह ठहराने का अधिकार है।
- मौलिक अधिकार: संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों, जैसे समानता का अधिकार, वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, जीवन व वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार, आदि का सम्मान एवं सुरक्षा करना।
- शक्तियों का पृथक्करण: किसी भी एक शाखा को अत्यधिक शक्तिशाली बनने से रोकने के लिये सरकार की विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों का पृथक्करण एवं संतुलन बनाए रखना।
- नियंत्रण और संतुलन: ऐसे तंत्र और संस्थान स्थापित करना जो सत्ता के दुरुपयोग को रोकने तथा व्यक्तियों के अधिकारों की रक्षा के लिये जाँच एवं संतुलन प्रदान करते हैं।
- संवैधानिक व्याख्या: संविधान की इस तरह से व्याख्या करना कि बदलती सामाजिक आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुरूप ढलते हुए इसके अंतर्निहित सिद्धांतों एवं मूल्यों को बढ़ावा मिले।
- नैतिक शासन व्यवस्था: शासन में नैतिक आचरण, सार्वजनिक सेवा में पारदर्शिता, जवाबदेही और सत्यनिष्ठा सुनिश्चित करना।
- सशर्त नैतिकता और भारतीय संविधान:
- भारतीय संविधान में “संवैधानिक नैतिकता” शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।
- यह अवधारणा संविधान के मूल सिद्धांतों में अंतर्निहित है, जो न्याय, समानता और स्वतंत्रता जैसे मूल्यों पर बल देती है।
- ये सिद्धांत संपूर्ण संविधान में निहित हैं, जिसमें प्रस्तावना, मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निदेशक तत्व शामिल हैं।
- इसका सार उच्चतम न्यायालय के विभिन्न निर्णयों में भी परिलक्षित होता है।
- भारतीय संविधान में “संवैधानिक नैतिकता” शब्द का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।
- संवैधानिक नैतिकता को कायम रखने वाले निर्णय:
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973: इस मामले ने “बुनियादी ढाँचा सिद्धांत” की स्थापना की, जो अनिवार्य रूप से संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित करता है और सुनिश्चित करता है कि इसके मूल सिद्धांत स्थिर रहें।
- इसे न्यायालय द्वारा संविधान की भावना को बरकरार रखने के प्रारंभिक उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है।
- एस.पी. गुप्ता मामला (प्रथम न्यायाधीश मामला), 1982: सर्वोच्च न्यायालय ने संवैधानिक उल्लंघन को संवैधानिक नैतिकता का गंभीर उल्लंघन करार दिया है।
- नाज़ फाउंडेशन बनाम NCT दिल्ली सरकार, 2009: इस फैसले ने वयस्कों के बीच सहमति से बने समलैंगिक संबंधों को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया।
- न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि “संवैधानिक नैतिकता” नैतिकता की सामाजिक धारणाओं पर हावी होनी चाहिये, व्यक्तिगत अधिकारों को बनाए रखना चाहिये।
- मनोज नरूला बनाम भारत संघ, 2014: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “संवैधानिक नैतिकता का अर्थ संविधान के मानदंडों के समक्ष झुकाव है और ऐसे तरीके से कार्य नहीं करना है जो मनमाने तरीके से कार्रवाई के कानून के नियम का उल्लंघन हो।
- इंडियन यंग लॉयर्स एसोसिएशन बनाम केरल राज्य (सबरीमाला मामला), 2018: न्यायालय ने सबरीमाला मंदिर से एक निश्चित आयु वर्ग की महिलाओं को बाहर करने की प्रथा को रद्द कर दिया।
- इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि “संवैधानिक नैतिकता” में न्याय, समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे के सिद्धांत शामिल हैं, जो महिलाओं के प्रवेश को प्रतिबंधित करने वाले धार्मिक रीति-रिवाज़ों से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हैं।
- नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ, 2018: इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को हटा दिया गया, जो समलैंगिकता को अपराध मानती है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य, 1973: इस मामले ने “बुनियादी ढाँचा सिद्धांत” की स्थापना की, जो अनिवार्य रूप से संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्ति को सीमित करता है और सुनिश्चित करता है कि इसके मूल सिद्धांत स्थिर रहें।
- भारत में संवैधानिक नैतिकता के समक्ष चुनौतियाँ:
- राजनीतिक हस्तक्षेप: महत्त्वपूर्ण चुनौतियों में से एक संवैधानिक निकायों और संस्थानों के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप है।
- यह हस्तक्षेप इन संस्थानों की स्वायत्तता और निष्पक्षता को कमज़ोर कर सकता है, जिससे संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने की उनकी क्षमता प्रभावित हो सकती है।
- उदाहरण के लिये, भारत के निर्वाचन आयोग की नियुक्ति समिति में हाल के बदलावों और संशोधित IT नियम 2023 को लेकर आलोचना हुई है।
- न्यायिक सक्रियता बनाम न्यायिक अवरोध: न्यायिक सक्रियता को न्यायिक अवरोध के साथ संतुलित करना एक और चुनौती है।
- जबकि न्यायिक सक्रियता अधिकारों की सुरक्षा और संवैधानिक मूल्यों के प्रवर्तन को बढ़ावा दे सकती है, अत्यधिक सक्रियता कार्यपालिका व विधायिका के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण कर सकती है।
- प्रवर्तन और अनुपालन: एक मज़बूत संवैधानिक ढाँचा होने के बावजूद, प्रभावी प्रवर्तन और अनुपालन सुनिश्चित करना एक चुनौती बनी हुई है।
- कार्यान्वयन में अंतराल, न्याय वितरण में देरी और आम जनता के बीच संवैधानिक अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी इस चुनौती में योगदान करती है।
- राजनीतिक हस्तक्षेप: महत्त्वपूर्ण चुनौतियों में से एक संवैधानिक निकायों और संस्थानों के कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप है।
- संस्थानों को मज़बूत करना: संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखने के लिये निर्वाचन आयोग, राष्ट्रीय अन्वेषण एजेंसी (NIA) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) जैसी संस्थानों की स्वतंत्रता, अखंडता एवं प्रभावशीलता को मज़बूत करना आवश्यक है।
- पारदर्शी नियुक्तियाँ सुनिश्चित करना, राजनीतिक हस्तक्षेप कम करना और जवाबदेही तंत्र को बढ़ाना महत्त्वपूर्ण कदम हैं।
- नागरिक शिक्षा को बढ़ावा देना: जनता, विशेषकर युवाओं के बीच संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों के बारे में जागरूकता व समझ बढ़ाना महत्त्वपूर्ण है।
- स्कूलों और कॉलेजों में नागरिक शिक्षा कार्यक्रम संवैधानिक ज़िम्मेदारी की भावना उत्पन्न कर सकते हैं तथा नागरिकों को लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सार्थक रूप से भाग लेने के लिये सशक्त बना सकते हैं।
- न्याय तक पहुँच बढ़ाना: संवैधानिक सिद्धांतों को बनाए रखने के लिये, विशेष रूप से हाशिये पर रहने वाले और कमज़ोर समुदायों के लिये न्याय तक पहुँच में सुधार करना आवश्यक है।
- इसमें कानूनी सहायता सेवाओं का विस्तार करना, न्यायिक बैकलॉग को कम करना, कानूनी प्रक्रियाओं को सरल बनाना और वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र को बढ़ावा देना शामिल है।
- नैतिक नेतृत्व को प्रोत्साहित करना: संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने के लिये सभी स्तरों पर नैतिक नेतृत्व और शासन प्रथाओं को बढ़ावा देना महत्त्वपूर्ण है।
- नेताओं और सार्वजनिक अधिकारियों को ईमानदारी, जवाबदेही एवं सार्वजनिक हित की सेवा के प्रति प्रतिबद्धता प्रदर्शित करनी चाहिये, जिससे समाज के लिये एक सकारात्मक उदाहरण स्थापित किया जा सके।
- उभरती चुनौतियों को अपनाना: तकनीकी प्रगति, वैश्वीकरण और पर्यावरण संबंधी चिंताओं जैसी संवैधानिक नैतिकता के सामने उभरती चुनौतियों से निपटने के लिये कानूनी एवं संस्थागत ढाँचे को लगातार अपनाना प्रासंगिकता तथा प्रभावशीलता के लिये आवश्यक है।
क्या भारत में मुख्यमंत्रियों को गिरफ्तारी से छूट नहीं है?
- संवैधानिक रूप से केवल भारत के राष्ट्रपति तथा राज्यों के राज्यपालों को अपने कार्यकाल के समापन तक नागरिक एवं आपराधिक कार्यवाही से छूट प्राप्त है।
- संवैधानिक रूप से, केवल भारत के राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों को अपने कार्यकाल के समापन तक नागरिक एवं आपराधिक कार्यवाही से छूट प्राप्त है।
- संविधान के अनुच्छेद 361 में कहा गया है कि ये अधिकारी अपने आधिकारिक कर्तव्यों के निर्वहन में किये गए कार्यों के लिये किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं।
- हालाँकि, यह छूट प्रधानमंत्रियों अथवा मुख्यमंत्रियों तक विस्तारित नहीं है, जो संविधान द्वारा समर्थित विधि के समक्ष समानता के सिद्धांत के अधीन हैं।
- हालाँकि, किसी को गिरफ्तार करने से वह स्वतः ही अयोग्य नहीं हो जाता।
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