‘अठन्नी एक प्रेम कथा’: संवेदना का कौतुहल वृतांत।
पुस्तक हमारी सामासिक संस्कृति की विरासत है।
पुस्तक लेखन समाज के जीवन्तता का प्रमाण है।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
नमस्कार! मैं राजेश पाण्डेय। श्री नारद मीडिया में एक बार फिर समय है पुस्तक के समीक्षा की। जी हाँ हम एक नई पुस्तक को लेकर आपके समक्ष उपस्थित है। इस बार यह अंतराल थोड़ा अधिक हो गया है। परन्तु आप यह विश्वास रखें कि समय-समय पर मैं आपको पुस्तकों के अंतस से अवगत कराता रहूंगा।
पुस्तक में क्या लिखी गई है? इस बात से तो मैं आपको अवगत कराऊंगा परन्तु आग्रह करूंगा कि आप इस प्रकार की पुस्तकों को अवश्य पढ़ें। यह हमारी सामाजिक-सांस्कृतिक विरासत की धरोहर है।
आज मैं जिस पुस्तक की बात कर रहा हूं उसका शीर्षक है “अठन्नी एक प्रेम कथा” है,जिसके रचनाकार मनोज कुमार वर्मा है।
मनोज कुमार वर्मा जी अपने जीवन वृत्त में यह उद्धृत करते हैं कि मेरे पिता का नाम स्वर्गीय धर्मनाथ प्रसाद वर्मा ‘प्रेमी’ था। हमलोग मूलतः सारण (छपरा) जिले में मुबारकपुर के रहने वाले थे। पिताजी लगभग वर्ष 1962 में सीवान स्थित भारतीय जीवन बीमा निगम संस्था में बड़े बाबू के पद पर कार्यरत होने की वजह से यहां आ गए और तब से हमारा परिवार यही अवस्थित हो गया है। हम पांच भाई और तीन बहनें है।
मेरे एक भाई सीवान के नामचीन फिजिशियन डॉ. अशोक वर्मा है। मेरा जन्म 7 नवंबर 1958 को हुआ, मैंने शिक्षा के अन्तर्गत मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर किया है। लेकिन मुझे लघु कथा, कविताएं, कहानियां लिखने का शौक रहा और 1980 से ही मैं लिख रहा हूं। जीवनावृति को लेकर आपने पैंतिस वर्षो तक भारतीय स्टेट बैंक मैं कई पदों को सुशोभित किया है। बैंक से सेवानिवृत होने के बाद सीवान के श्रीनगर स्थित अयोध्या पुरी में आपका निवास स्थल है।
आपकी नई-नई पुस्तक आई है ‘अठन्नी एक प्रेम कथा’। पुस्तक का प्रथम संस्करण उपलब्ध है। पुस्तक कुल 112 पृष्ठों में संकलित है। पुस्तक के अनुक्रम पृष्ठ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि यह रचना पांच भाग और दस उपभाग में विभाजित है। प्राक्कथन, यात्रा वृतांत, संस्मरण, कहानी और अन्यान्य।
प्राक्कथन में रचनाकार ने पुस्तक के उद्देश्य एवं इसके निहितार्थ पर प्रकाश डाला है। यात्रा वृतांत वाले भाग में दो यात्रा वृतांत को स्थान मिला है। संस्मरण खंड में ‘कायरा’ नाम से संस्मरणात्मक लेख को जगह दी गई है। कहानी वाले विभाग में पांच कहानियों अवस्थित है और अनन्या धारा में दो शीर्षकों के साथ लेखनी को स्थान प्राप्त है। पुस्तक का शीर्षक ‘अठन्नी एक प्रेम कथा’ एक कहानी है जो प्रारंभ में अठन्नी से इनकार अंत में अठन्नी के लिए इकरार,प्रेम की वह प्रकाष्ठा है जो स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा तय करती है। शीर्षक पर विचार करते हैं तो इसके कई नाम स्वत: उभर आते है, जैसे स्मृति प्रेम अठन्नी की,
स्मृतियों में अठन्नी,
स्मृति अठन्नी की,
संवेदना अठन्नी प्रेम की,
प्रेम की प्रतीक अठन्नी,
निश्छल प्रेम की प्रतीक अठन्नी,
इनकार से इकरार की अठन्नी।
इस कहानी में आपने उपकृत किया है की ‘प्रकृति ने हर व्यक्ति को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए देह की भाषा दी है।’
‘बालपन में जब समझ शून्य पर होती है और बदमाशियां शिखर पर’ और तब मंजिल आसमान में नजर आती है।
‘गांव में सुबह जल्दी होती है किरण देर से उठती है’ अर्थात आपका शरीर बड़ा हो जाता है लेकिन बुद्धि,विवेक और उसकी समझ देर से आती है। इस कहानी में आपने भोजपुरी,हिंदी और बांग्ला के शब्दों को स्थान देकर भारत की भाषाई सौन्दर्य को उकेरा है।
परन्तु आपने अपने माई भाषा के बारे में आभार व्यक्त किया है कि ‘अपनी मातृभाषा से कटा हुआ आदमी उस कृत्रिम पौधे की तरह होता है जो देखने में सुंदर तो लगता है मगर उसमें जान नहीं होती है।’ इस तरह के संवाद निश्चित ही पाठक के ह्रदय के अतल गहराईयों को स्पर्श करते हुए मष्तिष्क को कौंधने पर विवश अवश्य करती है। बेबाक और बेलौस संवाद पुस्तक की जान है।
पुस्तक किसी विचार से प्रभावित नहीं है अर्थात लेखक अपने रचना में किसी विचार को आरोपित नहीं करते है। लेखक अपने जीवनानुभव,संवेदना और करूणा को अपने लेखनी का विषय बनाते है। जो हमारे समाज की बातें हैं उसको आपने इसमें रखा है। कभी-कभी आपके इस संस्मरण और कहानियों को पढ़कर ऐसा लगता है कि पाठक इस तरह की जिंदगी जी रहे है,उनके साथ शायद ऐसा ही कुछ हो रहा है। पुस्तक के संवाद से पाठक का जुड़ जाना पुस्तक लेखन की सफलता है।
इसकी एक बानगी,
“मेरा मध्यवर्गीय मन पैसे का हिसाब जोड़ता रहता है। मध्य वर्ग की यही त्रासदी है। न जमकर बचा पता है ना ही खुलकर खर्च कर पाता है। इस मामले में नई पीढ़ी का फंडा क्लियर है। पैसा है तो खर्च करो।खाओ पिओ मौज करो।”
“मुंबई का एक नया दर्शनीय स्थली, सलमान खान हिट एंड रन केस की घटना स्थली, जहां भारत की न्याय व्यवस्था ने अपना दम तोड़ दिया था।”
“बड़े बुजुर्गों के पास यादों की भरी पूरी नदी होती है जिसमें वह डूबते उतराते रहते है। मेरी मां भी इसी तरह की बातें करती है।”
“विदा मुंबई।
अलविदा नहीं…”
अर्थात जिन्दगी विदा होती है,जीवन अलविदा नहीं होती। जिन्दगी की बातें प्रत्येक जीवन में होती है।
“स्त्री का मन! विधाता भी नहीं समझते। मेरी क्या औकात है।”
” गांधी जी की मूर्ति का रंग काला है तो नेहरू जी का सफेद,काले और सफेद का अद्भुत समन्वय है।”
सचमुच में पुस्तक पाठक से संवाद बनाने में सफल हुआ है। इसके लिए लेखक मनोज कुमार वर्मा जी को साधुवाद।
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