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भारतेंदु हरिश्चंद ने हिंदी के लिये अकल्पनीय योगदान दिया है. - श्रीनारद मीडिया

भारतेंदु हरिश्चंद ने हिंदी के लिये अकल्पनीय योगदान दिया है.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

साहित्य में ”सोच की नींव” रखने वाले अग्रणी साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र असाधारण प्रतिभा के धनी व दूरदर्शी युगचिंतक थे और उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और इसकी शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की तथा दरबारों में कैद विधा को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया।

भारतेंदु हरिश्चंद्र कि आज 136वी पुण्यतिथि है। उनका निधन महज 35 साल की उम्र में हो गया था। हिंदी की विपुल मात्रा और अनेक विधाओं से निपुण हरिश्चंद्र को आधुनिक हिंदी साहित्य का पितामह कहा जाता है। हिंदी साहित्य का आधुनिक काल प्रारंभ करने का श्रेय भी हरिश्चंद्र को ही जाता है। हिंदी पत्रकारिता नाट्य और काव्य के क्षेत्र में भारतेंदु हरिश्चंद्र का योगदान काफी रहा है।

उन्हें उत्कृष्ट कवि, सशक्त व्यंगकार, सफल नाटककार, जागरूक पत्रकार और ओजस्वी गद्यकार का दर्जा प्राप्त है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म में 9 सितंबर 1850 को उत्तर प्रदेश के काशी में हुआ था। उनके पिता गोपाल चंद्र एक अच्छे कवि थे।

भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उस दौर में हिंदी साहित्य के आयाम को नयी दिशा दी जब अंग्रेजों का शासन था और अपनी बात कह पाना कठिन था। उन्होंने एक ओर खड़ी बोली के विकास में मदद की वहीं अपनी भावना व्यक्त करने के लिए नाटकों और व्यंग्यों को बेहतरीन इस्तेमाल किया। इस क्रम में भारत दुर्दशा या अंधेर नगरी जैसी उनकी कृतियों को देखा जा सकता है।

अंधेर नगरी विशेष रूप से चर्चित हुई। कथाकार गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु के दौर में अपनी बात कहना बेहद कठिन था। विदेशी शासन के प्रति अपने प्रतिरोध को जताने के लिए उन्होंने साहित्य का सहारा लिया और 34 साल के अपने जीवनकाल में ही उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध कर दिया। गौरीनाथ के अनुसार भारतेंदु ने साहित्य में सोच की नींव रखी और उस दौर की राजनीति में भी प्रतिरोध को दिशा दी।

उनके लेखन से बाद की पीढ़ी को बल मिला। गौरीनाथ के अनुसार खड़ी बोली के विकास में भारतेंदु की भूमिका उल्लेखनीय थी और वह सही मायनों में खड़ी बोली के सबसे बड़े निर्माता थे। उनकी रचनाओं में बनावटी संस्थागत कार्य के बदले प्रतिरोध का स्वर उभर कर सामने आता है। उनकी कृतियों में उस दौर की स्थिति, समस्याएं उभर कर सामने आती हैं और वह परोक्ष रूप से उसके प्रति लोगों को आगाह करते दिखते हैं।

भारतेंदु के लेखन में परोक्ष रूप से आजादी का स्वप्न और भविष्य के भारत की रूपरेरखा की झलक मिलती है। वह धार्मिक एकता व प्रांतीय एकता के भी पक्षधर थे। धार्मिक एकता की जरूरत का जिक्र करते हुए भारतेंदु ने अपने एक भाषण में कहा था कि घर में जब आग लग जाए तो देवरानी और जेठानी को आपसी डाह छोड़कर एक साथ मिलकर घर की आग बुझाने का प्रयास करना चाहिए।

उनकी नजर में अंग्रेजी राज घर की आग के समान था और देवरानी जेठानी का संबंध जिस प्रकार पारिवारिक एकता के लिए अहम है, उसी प्रकार हिंदू मुस्लिम एकता की भावना राष्ट्रीय आवश्यकता है।

असाधारण प्रतिभा के धनी भारतेंदु युगचिंतक, दूरदर्शी व विभिन्न विधाओं के प्रणेता साहित्यकार थे। उनके प्रयासों से साहित्य सिर्फ संवेदना का क्षेत्र नहीं होकर वैचारिकता का उत्प्रेरक साबित हुआ। उन्होंने साहित्य के माध्यम से समाज में सार्थक हस्तक्षेप किया और साहित्य की शक्ति का उपयोग करते हुए आम जनमानस में जागृति लाने की कोशिश की।

उन्होंने दरबारों में कैद साहित्य को आम लोगों से जोड़ते हुए इसे सामाजिक बदलाव का माध्यम बना दिया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के बारे में लिखा है कि उनकी भाषा में न तो लल्लूलाल का ब्रजभाषापन आया, न मुंशी सदासुख का पंडिताउपन, न सदल मिश्र का पूरबीपन। उन पर न राजा शिव प्रसाद सिंह की शैली का असर दिखा और न ही राजा लक्ष्मण सिंह के खालिसपन और आगरापन का। इतने पनों से एक साथ पीछा छुड़ाना भाषा के संबंध में बहुत ही परिष्कृत रुचि का परिचय देता है।

अपने असाधारण कृतित्व के कारण भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने 35 साल की उम्र में हिंदी भाषा की अकल्पनीय सेवा की। भारतेंदु ने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बांग्ला, गुजराती, पंजाबी और उर्दू जैसी भाषाएं सीख ली थी। भारतेंदु की प्रमुख कृतियों में वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, सत्य हरिश्चंद्र, भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, विद्या सुंदर, जातीय संगीत, कश्मीर कुसुम इत्यादि हैं।

काव्य संग्रह की बात करें तो भक्त सर्वस्व, प्रेम माधुरी, प्रेम फुलवारी, नए जमाने की मुकरी के जरिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने हिंदी भाषा की सेवा की। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उपन्यास, आत्मकथा, यात्रा वृतांत और कहानी के माध्यम से भी हिंदी भाषा को कई महत्वपूर्ण कृतियां प्रदान की। उनका निधन 6 जनवरी 1985 को उत्तर प्रदेश के काशी में ही हुआ। भले ही आज वह हम सबके बीच में नहीं हैं लेकिन उनकी कृतियां हमेशा हिंदी भाषा में उनके योगदान को हमें याद दिलाती रहेंगी।

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