बिहार: विचित्र विडम्बनाओं से भरा प्रांत।

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भारतीय गणतंत्र के सफल 75 वर्ष में बिहार की भूमिका पर विशेष आलेख।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार: गणतंत्र की जननी वैशाली।

बिहार: अपने अनुसार चलने वाला राज्य।

बिहार: देश को सिविल सेवक, आईआईटीयन एवं श्रमिक देने वाला राज्य।

बिहार: जाति, बालू, शराब और भूमि माफिया वाला राज्य।

बिहार: बाढ़, पलायन और उद्योग विहीन राज्य।

बिहार में गणतंत्र की निरसता।

बिहार: जाति, माफिया एवं तंत्र का है गठजोड़।

 

“वैशाली जन का प्रतिपालक गण का आदि विधाता,

जिसे ढूंढता देश आज उस प्रजातंत्र की माता

रुको, एक क्षण पथिक यहां मिट्टी को शीश नवावो,

राजसिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ।”………….

भारतीय गणराज्य ने अपने गणतंत्र के 75 वर्ष पूरे कर लिए हैं। इसमें हम सभी अपने समाज, प्रांत के विकास को लेकर तंत्र की समीक्षा कर रहे हैं। प्रस्तुत है बिहार के ‘गण’ एवं ‘तंत्र’ की यात्रा।

भारत का एक ऐसा राज्य बिहार, जिसका अतीत,सौम्य व सरल समृद्धियों से भरा पड़ा है। वैशाली का लिच्छवि गणराज विश्व को धरोहर है। स्वतंत्रता के समय अपने ऐतिहासिक गाथा के कारण यह समृद्ध राज्यों में से एक था। प्रशासनिक कई अयोगों में इसे एक आदर्श राज्य का एक प्रारूप माना गया। खेती के लिए उर्वरक भूमि, मौसम, गंगा, कोसी, गंडक, बागमती, सोन, पुनपुन और फल्गु नदियों की संरचना इसकी समृद्धि की गाथा सुनाती रही है।

दक्षिण में प्राकृतिक रूप से खनिजों का विशाल भंडार, राज्य की समृद्धि में चार चांद लगाता रहा। अंग्रेजों ने कृषि आधारित उद्योग के रूप में इस प्रांत को विकसित करते हुए कई चीनी मिल स्थापित किए। बौद्धिक रूप से मां जानकी की जन्मस्थली, महर्षि वाल्मीकि की तपोस्थली, बुद्ध, महावीर, गुरु गोविंद सिंह का यह स्थल, मौर्य साम्राज्य, हर्यक वंश, शुंग वंश, नंद वंश, नालंदा एवं विक्रमशिला विश्वविद्यालय का स्थल शरफुद्दीन अहमद मनेरी की बड़ी दरगाह मनेर में इसके धरोहर है।

स्वतंत्रता आंदोलन में फतेह बहादुर शाही, बाबू कुंवर सिंह, अमर सिंह, पीरअली, खुदीराम बोस, महेंद्र मिसिर, राजकुमार शुक्ल, मौलाना मजहरूल हक, ब्रजकिशोर प्रसाद, जय प्रकाश नारायण, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे वीर सपूतों की यह भूमि रही। राजनेताओं के तौर पर श्री कृष्णा सिंह, अनुग्रह नारायण सिंह, जगदेव बाबू, ललित नारायण मिश्र, डॉ. राजेंद्र प्रसाद जैसे सरीखे नेता ने इस राज्य को समृद्धि किया। शिक्षा के रूप में 1917 में स्थापित पटना विश्वविद्यालय बिहार को वरदान रहा, इसे ‘ऑक्सफोर्ड ऑफ द ईस्ट’ भी कहा जाता था।

यह माना जा सकता है कि आपातकाल तक यह राज्य अपनी समृद्धि का गुणगान करता रहा परंतु आपातकाल की बाद राजनीतिक स्थिति एकदम से बदल गई और इसका प्रभाव समाज पर पड़ा। विद्वान इसे जाति की राजनीति, मंडल की राजनीति एवं कई नामों से संबोधित करते हैं, परन्तु बिहार के पतन का दौर 1980 के दशक से ही प्रारंभ हो जाता है।

बिहार में शिक्षा का हाल-

बिहार में पूरे योजनाबद्ध तरीके से शिक्षा को चौपट कर दिया गया। विद्या की देवी को गंगा नदी में प्रवाहित कर दिया गया। पटना विश्वविद्यालय की इतिहास की कहानी सब सुनाएंगे लेकिन वर्तमान परिस्थितियों पर अपने तर्क से जवाब देंगे। बिहार में 1989 के पहले जो भी मुख्यमंत्री थे उन्होंने तंत्र को जैसे पहले था उसी प्रकार चलाया, परन्तु तत्कालीन मुख्यमंत्री ने यह देखा मुझे अगर लम्बे समय तक सत्ता में रहना है तो सभी प्रकार के शैक्षिक संस्थानों को ध्वस्त करना होगा! यह कटु सत्य भी है कि जो पढ़ रहे हैं उनमें अधिकतर उच्च जाति से है और जो पढ़ा भी रहे हैं वह भी उच्च जाति से हैं, तो यह यक्ष प्रश्न है कि इससे पिछड़ी जातियों को क्या लाभ होगा! इसलिए इन संस्थाओं को उन्होंने ध्वस्त किया गया।

मतलब है की बौद्धिक तत्वों को समाप्त कर दो। इससे हुआ यह की पढ़ने-लिखने वाले बिहार से बाहर निकल गए और वे जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय चले गए, बाहर जाकर उन्होंने अपना स्थान बना लिया और अपने स्तर पर वह अच्छा कर रहे हैं। यानी बौद्धिक वर्ग का लाभ बिहार को नहीं मिला जबकि बिहार के लोग अपने मेधा के लिए जाने जाते रहे। बिहार के शैक्षिक संस्थानों को बर्बाद कर दो और बाहर के संस्थानों में अपने बच्चों का जगह बना लो। तात्पर्य है कि जहाँ ज्ञान का अनादर हों और उसके लिए कोई खड़ा न हो, यह बहुत बड़ी विडम्बना है

रोजगार की स्थिति–

बिहार में लगभग 13 करोड लोगों पर 3600 छोटी-बड़ी कारखाने हैं। इसमें मात्र एक लाख लोग काम करते हैं। परन्तु हमारे देश के पास बिहार नहीं होता तो देश में श्रमिकों की कमी पड़ जाती, अगर बिहार समृद्ध होता तो हमें मजदूर नेपाल, बांग्लादेश से आयात करने पड़ते, जो हमारी डेमोग्राफी पर असर डालती। इस तरह का उदाहरण अमेरिका में मिलता है जहां मेक्सिको के लोग आकर वहां काम करते हैं।

बिहार के बारे में तर्क दिया जाता है कि प्रदेश में समाज के लोगों को काम करने की स्वतंत्रता नहीं है यानी जाति एवं पैसे से उसके बारे में बात होती है। जबकि भूख और भोजन के बाद व्यक्ति को स्वतंत्रता की आवश्यकता है, जो नहीं है। एक समय ऐसा लग रहा था कि बिहार बंगाल से आगे निकल जाएगा, क्योंकि 1950-60 के दशक में बिहार प्रशासनिक दृष्टि से उन्नत राज था, ऐसा सरकारी कई प्रतिवेदनों में आया, लेकिन बिहार पिछड़ गया।

तर्क यह दिया जाता है कि बिहार में कारखाना इसलिए नहीं लगता कि यहां 1980 के दशक से ही यहाॅ समाजवादी विचारधारा की सरकार रही है, जो किसान की जमीन को पूँजीपतियों को नहीं दे सकती। इसका प्रमाण बंगाल के सिंगूर से निकले टाटा को बिहार के रोहतास जिले में लगाया जा सकता था,परन्तु वह नहीं लगा और टाटा गुजरात चले गए। यह भी कहा जाता है कि मुख्यमंत्री कभी सीधे तौर पर उद्योगपतियों से वार्ता नहीं करते, सम्मेलन बुलाते हैं जिसका बहुत ज्यादा परिणाम नहीं निकलता। बिहार में लड़ाई ‘न्यूनतम की लड़ाई’ है क्योंकि समय का मूल्य नहीं है। बिहार के सारे संस्था को लोग अपने अनुसार चलना चाहते हैं तथा संस्था में कार्यरत लोग भी अपने अनुसार कार्य करना चाहते हैं जिससे उस कार्य का मर्म एवं धर्म समाप्त हो जाता है।

“नई-नई योजना नया-नया षडयंत्र,

बदहाल है बिहार का गणतंत्र”।

जातिवाद का दंस–

बिहार में अपनी-अपनी जातियों का बोलबाला है। जाति को ऊपर उठाने का काम 1880 से ही शुरू हो गया था जो सर्वप्रथम कायस्थ व भूमिहारों का संघ था क्योंकि मांस खाने की वजह से अंग्रेजों ने इन्हें शुद्र घोषित कर दिया था। आगे चलकर कुशवाहा, यादव व कुर्मी ने त्रिवेणी संघ बनाया, जिसकी मांग थी कि आरक्षण 60% किया जाए। बिहार में पिछले 34 वर्षों से समाजवादी विचार की सरकार चल रही है, जिसने नव सामंतवाद को जन्म दिया है। अंततः देश की स्थिति को देखते हुए बिहार के राजनेता व नौकरशाह ने जातिगत जनगणना करवाकर एक नए उन्माद को अवश्य जन्म दिया और 75 % आरक्षण के रूप में सामने आया है।

जो मंडल आयोग 1990 की याद ताजा करती है लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ,लोग पहले से कहीं अधिक परिपक्व है। वह समझ रहे हैं की झारखंड के अलग होने के बाद अब बिहार के पास ‘बहुत कुछ’ नहीं रह गया है, और यह हरियाणा और तेलंगाना भी नहीं बन सकता,क्योंकि यहाँ की सामाजिक-सांस्कृतिक स्थिति भिन्न है। बिहार में अबाध जनसंख्या, बाढ़, बालू एवं अपरिपक्व राजनेताओं का गठजोड़ ही रह गया है इसलिए जातिवाद का ट्रम्प कार्ड चुनाव तक ही रहेगा।

कृषि हुई अलाभकारी-

बिहार में नदियों का क्षेत्र सबसे उपजाऊ भूमि रहा है। अंग्रेजी राज से पहले यह बिल्कुल तय नहीं था की भूमि का स्वामी कौन है? पहले राजा ही शासक, क्षेत्रीय जमींदार को भूमि का जिम्मेदारी देते थे। जमींदार राजस्व की वसूली करके राजा या शासन को लगान देते थे। लॉर्ड कॉर्नवालिस ने स्थायी बंदोबस्त के अन्तर्गत एक झटके में जमींदार को भूमि का स्वामी बना दिया। किसानों को अधीनस्थ रैयत बना दिया गया। किसानों जमीन से जमींदार बेदखल नहीं कर सकते थे परन्तु लगान नहीं देने पर भूमि का अधिग्रहण कर लेते थे।

अगर जमींदार समय पर लगान नहीं दे तो उसकी भी जमींदारी चली जाती थी। अब ब्रिटिश को राजस्व देने के लिए जमींदार भी अपनी जिरात भूमि (जमींदार की निजी भूमि,जो क्षेत्रीय था) पर बटाई लगा दिया यानी कृषि में निवेश नहीं किया गया। इधर रैयत किसान भी कृषि में निवेश नहीं कर पाया। सरकार भी कृषि में निवेश नहीं की। ऐसे में बिहार में कृषि पिछड़ गया। जब जमींदारी समाप्त हुआ तो कास्त जमीन (स्वतंत्र किसान की भूमि ) रैयत किसानों को मिल गया, लेकिन जिरात भूमि जमींदारों को मिला तथा यह उसके पास ही रह गया। ऐसे में ग्रामीण क्षेत्र में जमींदार स्वतंत्रता के बाद ताकतवर बनकर रह गए।

भूमिहार, ब्राह्मण, कायस्थ व राजपूत अधिकतर भूमि के स्वामी थे जबकि रैयत किसान में अहीर,कुर्मी व कोईरी होते थे। जिनसे नील की खेती कराये जाते थे। स्वर्ण लोग कभी नए भूमि को उपजाऊ नहीं होने देते थे क्योंकि निम्न जाति के लोगों के पास भूमि चला जाता, इसलिए यह लोग भूमि से दूर रहे। जबकि बिहार के नील से मैनचेस्टर में कपड़े रगें जा रहे थे। मुंगेर के शोरा-बारूद, गन पाउडर से ब्रिटिश सत्ता नेपोलियन के खिलाफ लड़ रही थी। बिहार के अफीम को बेचकर चीन को उपनिवेश बनाया जा रहा था और इन सभी चीजों के लाभ से बिहार वंचित रहा।

90 के दशक में एक भोजपुरी गीत काफी प्रचलित था, जो यहां के वातावरण पर 100% सही है।

” मिश्री मलाई खईलू कईलू तन बुलंद, अब खइहऽ शकरकंद जब अलगा हो गईल झारखंड।”

स्वतंत्रता के बाद–

क) ग्रामीण क्षेत्र में जमींदारी का हट जाना,

ख) भूमि हदबंदी लागू नहीं हो पाना,

ग) जमीन का काश्तकार भूमि का वास्तविक स्वामी नहीं हुआ,

घ) 1951 में पहला संविधान संशोधन नवी अनुसूची, बिहार को लेकर हुआ,

ङ) बैंकिंग का समर्थन नहीं क्योंकि जमा साख का अनुपात बिहार के पक्ष में नहीं रहा,

च) हरित क्रांति से मजदूर पलायन कर गए,

छ) औद्योगिक वस्तुओं का बाजार नहीं बन पाना,

ज) कृषि अधिशेष का नहीं हो पाना,

झ) स्थापित चीनी मिलों का धीरे-धीरे समाप्त हो जाना,और

ज) भूमि सुधार के रूप में बंगाल की तरह ‘ऑपरेशन वर्गा’ का राजनीतिक कारणों से लागू नहीं हो पाना।

माफियायों का तंत्र—

बिहार में 2005 में सरकार बदली और ऐसा माना जा रहा था कि यह प्रदेश का नया सवेरा है। परन्तु एक व्यक्ति ने इस बिहार को 5 वर्षों में बनाया और अपने छदम महत्त्वाकांक्षा के कारण फिर उसे ध्वस्त करने में अपनी महारत हासिल की। बिहार में 2016 से एक नया दम्भ सामाजिक दंश प्रदेश झेल रहा है, जिसे औपचारिक रूप से शराबबंदी कहा जाता है, परंतु वह शराब बंदी माफिया के चंगुल में फंस गया है। पुलिस शराबबंदी को सफल बनाने में लगी है, जो कानून व्यवस्था को सूचना तंत्र के भरोसे छोड़कर विमुख हो गई है। इसकी बानगी अपराधियों की गिरफ्तारी और उनके जमानत पर रिहा होने से देखा-समझा जा सकता है।

खनन और मध निषेध विभाग से सरकार को हजारों करोड़ रुपये प्राप्त हो सकते हैं जो उसे नहीं हो रहा है। पूरे गंगा के तट को बालू माफियाओं ने काट कर रखा है। यह माफिया राजनीतिकों को पैसा प्रदान करते हैं। कभी-कभी पुलिस व न्यायालय इन पर कार्रवाई कर समाज का भरोसा इन संस्थाओं पर दिखाना चाहती है। बिहार की राजनीतिक व आर्थिक स्थिति को देखें तो राजनीतिज्ञ- नौकरशाही- न्याय और माफियाओं के पास ही पैसा है।

यह माफिया राजनीतिज्ञ और नौकरशाह द्वारा संचालित है। बालू माफिया, भू-माफिया और शराब माफिया ही राजनीतिज्ञों को पैसा देते हैं। मतलब है कि यहां अंबानी और अडानी राजनीतिकों को फंडिंग नही करते बल्कि स्थानीय माफिया पैसा प्रदान करते हैं। पूरा तंत्र समझौते की आड़ में चल रहा है। सक्षम होने के बावजूद भी आप बिहार में कुछ नहीं कर सकते, कुछ करेंगे तो केवल ‘समझौता’ ही करेंगे। माफियाओं को राजनेताओं का प्रश्रय है इसलिए प्रशासन भी कठोर कदम उठाने में पंगु है।

उद्योग नहीं आने का कारण है कि आप छोटे-छोटे गुंडे- लफंगों को पनपने का का मौका देते हैं, जो वसूली करके आपको धन देते हैं। आप ऐसा देखते है कि स्थानीय स्तर पर छोटे-छोटे कार्य यानी 25 से 30 लाख रुपए तक का कार्य बिना टेंडर के, बिना किसी सरकारी नियम के निकल जाता है। विजयी मुखिया व वार्ड आयुक्त अधिकारियों से मिलकर कार्य करते हैं। सभी का कमीशन निश्चित होता है। पैसा ईमानदारी के साथ सभी तक पहुंच जाता है। बहरहाल, समाज के सतर पर बिहार दशरथ मांझी है। जो तोड़ देता है वह दशरथ मांझी है जो नहीं तोड़ा वह गंगा की धार में बह गया।

और अंतत:

………”किस जागरण की प्रत्याशा में हम पड़े हुए हैं,

लिच्छवि नहीं मरे, जीवित मानव ही मरे हुए हैं।”

– रामधारी सिंह दिनकर

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