Bihar Diwas 2023:बिहार का संदेश है:कुछ बनना नहीं, कुछ करना हैं
बिहार दिवस पर विशेष आलेख:
बिहार का अतीत गौरवशाली रहा है, वैभवशाली रहा है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में बिहार का इतिहास हमारे लिए असीम ऊर्जा का स्रोत रहा है। निश्चित तौर पर वर्तमान में बिहार कई सारी चुनौतियों का सामना कर रहा है। कई समस्याएं चिंताएं उत्पन्न कर रही है। परंतु कई ऐसे तथ्य भी हैं जो बिहार में संभावनाओं की प्रबल बयार बहाते दिखते हैं। समर्पित कलेवर, संवेदनशील प्रयास, सुनियोजित रणनीति की त्रिवेणी बिहार के गौरव को वापस ला सकती है। बस आवश्यकता प्रयासों में समन्वय और संतुलन की है। आवश्यकता सार्थक चिंतन की है।
बिहार शब्द की उत्पत्ति बौद्धों के मठ विहार से हुई है। जहां कई सौ बौद्ध भिक्षु अपने ज्ञान को पुनर्जीवित व प्रशिक्षित करने हेतु आपस में विचार-विमर्श के लिए एकत्रित होते थे। एक तरह से आप कह सकते हैं कि यह एक बहुत बड़ा ट्रेनिंग स्थल था जिसे हम आज के रिफ्रेशमेंट केन्द्र भी कह सकते हैं तब से बिहार का अस्तित्व है और यह विहार आगे चल के बिहार में बदल गया।
बिहार के प्राचीन काल पर ध्यान दिया जाए तो सारण जिले का चिरांद है, जहां 4500 ईसा पूर्व की वस्तुएं प्रान्त हुई हैं। पूरे बिहार पर चर्चा करने के दौरान हम इसे इसके प्राचीन युग, मध्यकालीन युग व वर्तमान युग में राजनीति, सामाजिक, सांस्कृतिक व साहित्यिक उदय पर विचार करेंगे।
हमारी राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर लिखते हैं
“वैशाली जन का प्रतिपालक
गण का आदि विधाता
जिसे पूजता विश्व आज
उस प्रजातंत्र की माता
रुको एक क्षण पथिक यहां
इस मिट्टी पर शीश नवाओ
राज सिद्धियों की समाधि पर फूल चढ़ाते जाओ”।
महाजनपद काल अर्थात 600 ईसा.पूर्व में अंग, मगध, मिथिला और करुष (शाहाबाद) नामक राज्यों के सम्मिश्रण से यह बिहार बना है। 725 ईसा पूर्व से 484 ईसा पूर्व तक प्रथम लिचछवी गणराज (वृजी संघ) रहा, जिसे हम प्रथम गणराज्य के रूप में मानते हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित है कि इस भूमि पर यूनानी यात्री मेगास्थनीज 300 ईसापूर्व में पाटलिपुत्र की धरती पर आया था और उसने अपनी पुस्तक इंडिका में ‘सभा’ और ‘समिति’ का उल्लेख किया तथा नगरीय प्रशासन का भी उल्लेख हुआ था।
सम्राट अशोक के शासन काल में मगध पूरे साम्राज्य का केंद्र रहा और इसके सुदूर प्रांत गंधार अफगानिस्तान तक फैले हुए थे। आज भी चंपारण के लौरिया, नंदनगढ़, रमपुरवा,केसरिया में अशोक स्तंभ एवं स्तूप देखे जा सकते हैं जो बिहार की वैभव की कहानी सुनाते हैं।
इतिहास पर हम गौर करेंगे तो भारत के पहले हर्यक वंश के राजा जिसमें बिंदुसार,अजातशत्रु व उदयीन हुए इसमें से उदयीन ही राजगृह से राजधानी पाटलिपुत्र लाया, क्योंकि राजगृह पांच पहाड़ियों से घिरा हुआ क्षेत्र था और पाटलिपुत्र पांच नदियों से घिरा हुआ था।
मध्य काल में ‘आईने अकबरी’ के अनुसार 11 मार्च 1580 को इसे अकबर के काल में एक सुबा का स्वरूप मिला और यह प्रान्त मुगल बादशाह के अंतर्गत रहा।
लेकिन इससे पहले शेरशाह सूरी जो बाबर के एक सैनिक के रूप में काम शुरू किए थे, वह आगे पदोन्नत होकर सेनापति बने और बाद में बिहार के राज्यपाल नियुक्त हुए।
1537 में हूमायूॅ के कमजोर होने पर शेरशाह ने बंगाल पर कब्जा कर सूरी वंश की स्थापना की और 1539 एवं 1540 में चौसा और कन्नौज की लड़ाई में हूमायूॅ को हराया। शेरशाह ने 1540 से 1545 तक शासन किया। शेरशाह के गृहनगर सासाराम में उनका मकबरा स्थापत्य कला का बेजोड नमूना है।
वहीं हम बिहार में इस्लाम के प्रचार प्रसार की बात करें तो यह सूफी संतों के द्वारा हुआ। जैसा कि आप सभी को जानकारी है कि पूरे भारतवर्ष में चार संप्रदायों ने सूफी परंपरा को आगे बढ़ाया, जिसमें चिश्ती संप्रदाय, सुहारवर्दी संप्रदाय, कादरी संप्रदाय, और नक्शबंदी संप्रदाय थे । इसमें चिश्ती संप्रदाय के एक सूफी शेख हसन के द्वारा 1325 में सीवान के हसनपुरा में उनका आगमन हुआ। उन्होंने इस क्षेत्र में इस्लाम का प्रचार प्रसार किया ।
वहीं बिहार की बात की जाए तो सुहारवर्दी संप्रदाय में एक सूफी संत हजरत मखदूम या याहिया मनेरी जिनका निधन 1291 ईस्वी में होता है। आज भी आप पटना के निकट मनेर जाएंगे तो वहां पर बडकी दरगाह के नाम से इनका दरगाह है।
शाह दौलत या मखदूम दौलत जिनका निधन 1608 में होता है यह छोटी दरगाह के नाम से मनेर में स्थित है। आज इस्लाम में जो नमस्कार और सलाम करने की जो विधि है। अस्सलाम वालेकुम व मूल रूप से सुहारवर्दी संप्रदाय की है वालेकुम सलाम। इसी के तहत ही फिरदौसी संप्रदाय सुहारवर्दी की एक शाखा है।
बिहार की धरती वीरों की धरती है और ऐसे में सिख धर्म के दशमेश गुरु श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज की यह जन्म धरती भी है। आपका जन्म 22 दिसंबर 1666 को पटना में भी हुआ था। आज यहां हम तख्त हरमंदिर गुरुद्वारा देख सकते हैं।
1757 में प्लासी के युद्ध के बाद और खासकर बक्सर का युद्ध जो 1764 में होता है उस समय से बिहार बंगाल और उड़ीसा की दीवानी अंग्रेजों को मिलती है,और अब बिहार से मुगलों का वर्चस्व समाप्त होता है और यहीं से अलग तरह की कहानी प्रारंभ होती है।
1857 की प्लासी युद्ध ने ईस्ट इंडिया कंपनी को राजनीतिक रूप से शक्तिशाली बना दिया। पहली बार अंग्रेजो के द्वारा नवाब बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। कई इतिहासकार तो प्लासी के युद्ध से समाजवाद की शुरुआत भी मानते हैं जबकि यदुनाथ सरकार का कहना है कि इस युद्ध से भारत में मध्यकालीन युग का अंत हो गया और आधुनिक युग का शुभारंभ हुआ ।लेकिन फिर एक बार फिर बिहार के बक्सर नामक स्थान पर 23 अक्टूबर 1764 को युद्ध लड़ा गया इसमें बंगाल के नवाब मीर कासिम, मुगल सम्राट शाह आलम द्वितीय व अवध के नवाब सिराजुद्दौला के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी के हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजों ने युद्ध किया और तीन घंटे के अंदर ही अंग्रेजों की जीत हुई। युद्ध से बंगाल बिहार और उड़ीसा पर कंपनी का पूर्ण प्रभुत्व स्थापित हो गया और अवध अंग्रेजों का कृपा पात्र हो गया ।
1765 में इलाहाबाद में एक संधि हुई इसमें अवध के नवाब ने अंग्रेजों को ₹500000 हर्जाना के तौर पर दिया। अंग्रेजों को कोड़ा, इलाहाबाद, बनारस, बिहार, बंगाल और उड़ीसा की दीवानी भी मिल गई इस तरह से हम कह सकते हैं कि अभी बिहार पूरी तरह से अंग्रेजो के कब्जे में आ गया और उन्होंने यहां भूमि को ही अपने आय का स्रोत बनाया। इसके लिए रैययतवाडी, महलवाड़ी और स्थाई बंदोबस्त या जमींदारी व्यवस्था को उन्होंने लागू किया और यह चलता रहा।
1893 में सच्चिदानंद सिन्हा जब इंग्लैंड से लौट रहे थे तो एक व्यक्ति ने उनसे पूछा कि आपके प्रांत का क्या नाम है! उन्होंने बिहार बताया तो सज्जन ने कहा कि बिहार का नाम तो मैंने सुना नहीं है। श्री सिन्हा दुखी हुए और बिहार प्रांत के नाम उनके देश के नक्शे में नहीं है,ऐसा सुन कर उन्हें दु:ख हुआ। बिहार तब बंगाल प्रेसिडेंसी का हिस्सा हुआ करता था यहीं से सच्चिदानंद सिन्हा ने महेश नारायण, नंद किशोर लाल, अली इमाम, मौलाना सैफुद्दीन,दीप नारायण सिंह,परमेश्वर लाल और कृष्णा सहाय जैसे लोगों के साथ मिलकर बिहार को अलग प्रांत के लिए आंदोलन प्रारंभ कर दिया।
12 दिसंबर 1911 को दिल्ली दरबार का आयोजन हुआ और ब्रिटिश सम्राट ने बंगाल से बिहार के अलग करने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
बिहार का संसदीय इतिहास बिहार विधान परिषद के रूप में प्रारंभ हो गया, 25 अगस्त 1911 को भारत सरकार ने सेक्रेटरी शऑफ स्टेट फॉर इंडिया को भेजे पत्र में बिहार और बंगाल के विभाजन तथा बिहार तथा विधान परिषद के स्थापना की सिफारिश की। 1 नवंबर 1911 को सेक्रेटरी ऑफ स्टेट पार इंडिया ने उस प्रस्ताव का सकारात्मक उत्तर दिया और 22 मार्च 1912 को सम्राट जॉर्ज पंचम (1910-1936) द्वारा दिल्ली दरबार में एक नए प्रांत बिहार-उड़ीसा बनाने की घोषणा की गई।गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1912 के तहत बिहार-उड़ीसा विधान परिषद की स्थापना की गई।
20 जनवरी 1913 को बांकीपुर स्थित परिसर कक्ष में सर चार्ल्स स्टर्ट बेली के सभापतितत्व में परिषद की बैठक हुई।
उस समय के तत्कालीन बिहार-उड़ीसा में पांच प्रमंडल हुआ करते थे। जबकि बंगाल प्रेसिडेंसी के तहत 1872 में बिहार में 10 जिले ही हुआ करते थे। लेकिन 1912 में बिहार के चार प्रमंडलों में भागलपुर जिसके तहत भागलपुर पूर्णिया, संथाल परगना और मुंगेर जिले, पटना प्रमंडल के तहत पटना, गया, शाहाबाद, तिरहुत प्रमंडल के तहत सारण, चंपारण, दरभंगा और मुजफ्फरपुर, छोटानागपुर प्रमंडल के तहत हजारीबाग, मानभूम,पलामू,रांची,सिंहभूम थे वहीं उड़ीसा में उड़ीसा प्रमंडल के तहत अंगुल, बालासोर, कटक, पुरी, संबलपुर जिले थे।उस समय के ब्रिटिश भारत में 9 प्रमुख राज्य थे जिसमें संयुक्त प्रांत, बंगाल, असम मुंबई, मद्रास मध्य प्रांत, वर्मा, पंजाब तथा बिहार-उड़ीसा थे।
बिहार-उड़ीसा विधान परिषद का 12 वां सत्र अंतिम सत्र था। बिहार और उड़ीसा के राज्यपाल जेम्स सिफरटौन के आदेश (28 मार्च 1936) से बिहार और उड़ीसा को अलग प्रांत कर दिया गया ।भारत सरकार अधिनियम 1935 पारित हुआ जिससे परिषद के लिए एक नए अध्याय की शुरुआत हुई 1937 में बिहार विधानसभा कार्य रूप में आई तथा प्रांत में कांग्रेस की सरकार बनी इस अधिनियम के तहत 29 सदस्यों की बिहार विधान परिषद बनाई गई, इन सदस्यों में से कुछ अप्रत्यक्ष चुने जाते थे तथा कुछ मनोनीत किए जाते थे।
भारतीय संविधान के तहत पहले आम चुनाव के बाद बिहार विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 72 कर दी गई। 1958 में इसकी सदस्य संख्या बढ़ाकर 96 कर दी गई और 15 नवंबर 2000 को झारखंड अलग होने के बाद विधान परिषद की संख्या 75 हो गई।
आज जब हम बिहार दिवस मना रहे हैं तो सबसे बड़ा यक्ष प्रश्न यह है कि बिहार में विकास क्यों नहीं है? जबकि बिहार संस्कृति, सभ्यता और शिक्षा की धुरी रहा है। इसे हम नहीं कई बिहार का भ्रमण करने वाले विदेशी यात्री अपनी पुस्तकों में उद्धृत कर चुके हैं। चंद्रगुप्त मौर्य बिहार से ही थे और चाणक्य के योगदान को कोई कैसे भुला नहीं सकता है।आर्यभट्ट और बारहमिहिर बिहार से ही थे।
बिहार वर्तमान समय में राजनीतिक अस्थिरता, बेरोजगारी, गरीबी, अपनी उद्योग नीति, बुनियादी संरचनाओं के अभाव से जूझ रहा है।
बिहार में एक समय उद्योग के लिए कच्चे माल थे, उद्योग भी लगा लेकिन 1952 में कच्चे माल को पूरे देश में सब्सिडी के माध्यम से पहुंचाया जाने लगा और यहां उद्योग लगना बंद हो गया क्योंकि यहां ना कोई बंदरगाह था और ना ही बुनियादी संरचना।
सन 2000 में बिहार विभाजित होने के बाद सारे संसाधन झारखंड के हिस्से चले गए ।
कहा गया कि “मिश्री मलाई खईलू कईलू तन बुलंद
अब खईहऽ शकरकंद जब अलगा हो गईल झारखंड”।
अर्थात लालू, बालू और बाढ़ बिहार के हिस्से में आया । इससे गरीबी बढ़ी बेरोजगारी भी बढ़ी,लेकिन 1990 के दशक में एक अलग तरह की राजनीति बिहार में चल पडी, जिसमें कहा गया कि ‘हमें विकास नहीं, सम्मान चाहिए’। जहां पूरा देश 1991 के नई आर्थिक नीति को ग्रहण कर रहा था, हरियाणा, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र व दक्षिण के राज्यों में नए-नए उद्योग लग रहे थे, वहां पूंजी निवेश हो रहा था हमारे बिहार में अगड़ी-पिछड़ों की सियासत चल रही थी। इसका कारण है कि 1989 से लेकर आज तक पिछड़ी जातियों की सरकार बिहार में चलती रही। जनता अपनी पिछड़ी नेताओं की बातों में आकर जातियों में बंट गए, उन्हें विकास नहीं बल्कि सम्मान चाहिए था,जिसका एक उदाहरण चरवाहा विद्यालय रहा।
विकास नीति नहीं नियति से होता है। नियति का मूलमंत्र है ईमानदारी।
बिहार में जो नीतियां बनती थी वह सम्मान के लिए थी विकास के लिए कतई नहीं। आज शिक्षा की हालत पस्त है। संस्थाएं सफेद हाथी बन कर रह गई हैं। पूरे देश में शिक्षा के मामले में यह राज्य 70% साक्षरता के साथ तीसरे नंबर पर है।
बिहार में जिन्हें अपने को बदलना है वह बिहार से बाहर चले जाते हैं। कहा जाता है कि ‘बैड मनी आउटस गुड मनी’।
1960 के दशक में देश का 40% का चीनी बिहार में उत्पादित होता था आज यह मात्र 2% रह गया है। बिहार सरकार पर उद्योगपतियों का भरोसा नहीं है, इसका प्रमुख कारण लचर कानून-व्यवस्था, वसूली, अपहरण व फिरौती है, राजनीति भी एक प्रमुख कारण है। जाति व्यवस्था का ताना-बाना अपने निचले स्तर पर है। जनसंख्या का बढ़ना, शिक्षा, गरीबी, राजनीतिक दूरदर्शिता का अभाव,मनोवृत्ति में बदलाव न लाना और जाति व्यवस्था का विद्रूप रूप बिहार की प्रगति में बाधक है।
बिहार में साहित्यिक धरोहर के रूप में शिवपूजन सहाय,रामवृक्ष बेनीपुरी, गोपाल सिंह नेपाली,फणीश्वर नाथ रेणु, रामधारी सिंह दिनकर,बाबा नागार्जुन, राहुल सांकृत्यायन,राजकमल चौधरी, जानकी वल्लभ शास्त्री, विद्यापति शरत चंद्र चट्टोपाध्याय, देवकीनंदन खत्री,अनामिका का नाम विशेष तौर पर उल्लेखनीय है जिन्होंने अपनी साहित्यिक रचना से बिहार को नई ऊंचाई प्रदान किया।
स्वतंत्रता की लड़ाई में प्रथम अप्रतिम योद्धा फतेह बहादुर शाही, बाबू कुंवर सिंह, पीर अली, अमर सिंह को कौन भुला सकता है। वहीं बिहार के गांधी जगलाल चौधरी, जननायक कर्पूरी ठाकुर, संपूर्ण क्रांति के जनक जय प्रकाश नारायण, डॉ राजेंद्र प्रसाद,मौलाना मजरूल हक, नारायण सिंह, ब्रज किशोर प्रसाद,जे.पी. कृपलानी, जैसे कितने नेताओं को याद किया जा सकता है। यह बात हमें माननी पड़ेगी कि वर्तमान समय में सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से बिहार की सांस्कृतिक धरोहर का क्षरण हुआ है।
बिहार में प्रमुख रूप से भोजपुरी, मगही और मैथिली बोलियों में होने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम अब केवल सरकारी धरोहर बन कर रह गए हैं।नई पीढ़ी को अपने सांस्कृतिक धरोहर में कोई उत्साह नहीं है लड़कियां मांगलिक कार्यक्रमों में होने वाले गीत को भुला चुकी हैं।
मैथिली में कहा गया है
“पग-पग पोखरी माछ मखान
सरस बोली मुस्की मुख पान
विद्या वैभव शांति प्रतीक
ललित नगर दरभंगा थीक”।
बिहार के विरासत की मूल्य क्षीण हुई है। वह मूल्य जिन्होंने बिहार के वैभव को निर्मित किया है वह आज दिखाई नहीं पड़ती। आज बिहार में सारे संसाधन बाहर से आते हैं, स्थिति यहां तक है कि सरकार भी केंद्र के ऊपर निर्भर है।
हमारे जीवन में नकारात्मकता इतना बढ़ गया है इसे हम निकाल नहीं पा रहे हैं और इसलिए विकास कहीं ना कहीं अवरुध्द हुआ है। बिहार का वैभव एक टावर के रूप में स्थापित हो गया है। हम केवल वैभव की चर्चा करते हैं लेकिन वह वैभव कैसे प्राप्त हुआ है उसके लिए कितने लोगों ने अपनी आहुति दी है, उस कदम पर हम नहीं चला करते हैं।
आज हम उपभोक्ता बाजार हो गये है। इन सभी से निजात पाने के लिए हमें अच्छे नेतृत्व की आवश्यकता है। विडंबना यह है कि जिन्हें अपने को बदलना होता है वह बिहार से बाहर चले जाते हैं। जबकि बच्चों के मस्तिष्क में अच्छी बातों को भरना होगा जिससे वह हमारे प्रांत, जिले का नाम रोशन करें। क्योंकि आप अध्ययन करेंगे तो पाएंगे कि बिहार ने पूरे भारत का ही नहीं विश्व का भी विकास किया है।
इसे आप प्राचीन युग, मध्यकालीन युग और वर्तमान युग में भी देख सकते हैं। यहां के लोग कहां नहीं गए,आज पूरे भारत में बिहार के श्रमिक विनिर्माण क्षेत्र में लगे हुए हैं। पूरे देश में आईएएस अधिकारी बिहार के हैं। कई राज्यों में बिहार के शिक्षक बच्चों को पढ़ाने का काम कर रहे हैं।
हम बिहार रहवासी तब तक विकास नहीं कर सकते जब तक हम अपने अतीत को समझ नहीं लेते है। क्योंकि जिस समाज को अपने अतीत की जानकारी नहीं होती वह भविष्य में क्या करेगा इसकी भी उसे कोई सूचना नहीं होती। हमारा भूतकाल काफी गौरवशाली रहा है यहां तक कि हमारे जिले का भी विगतयुग ऐसा है जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।
हमें सबसे पहले नई पीढ़ी को स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को, महाविद्यालय में अध्ययन करने वाले छात्रों को बिहार के भूगोल, सभ्यता, सांस्कृतिक विविधता व सामाजिक ताना-बाना को बताना होगा। उन्हें अध्यापकों द्वारा इसकी अच्छी शिक्षा देनी होगी तभी हमारा बिहार आगे बढ़ सकता है, विकसित राज्य बन सकता है।
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