बालीवुड ने भी देखा है विभाजन के मंजर को
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विभाजन के बाद देश के अलग-अलग कोनों में जाने के बाद भारतीय सिनेमा की कई हस्तियों ने मुंबई को अपनी कर्मभूमि बनाया।अब यह भारतीय सिनेमा की शान हैं। फिल्मी दुनिया में इनकी चमक हमेशा बरकरार रहेगी। इन सितारों के सफरनामे पर आलेख। जुबली कुमार के नाम से विख्यात राजेंद्र कुमार तुली उर्फ राजेंद्र कुमार का जन्म 20 जुलाई 1927 को सियालकोट के पास छोटे से कस्बे सनखत्रा (sankhatra) में सपंन्न परिवार में हुआ था। उस समय तकलीफें क्या होती हैं इसका राजेंद्र कुमार को तनिक भी इल्म नहीं था।
वह अपने पांच भाई बहनों में सबे बड़े थे और दादा छज्जूराम तुली के बेहद दुलारे थे। छज्जूराम की गिनती शहर के अमीरों में होती थी। उन्होंने परिवार के लिए छह मंजिला घर बनवा रखा था। उस घर में 42 कमरे थे। इन कमरों में हर किसी के लिए अलग कमरा था। वहीं कुछ कमरों में गेहूं तो किसी में चावल या बाजरा भी रखा जाता था। तीन जून 1947 को चार बजे उस समय गर्वनर जनरल और वायसराय ऑफ इंडिया लार्ड माउंटबेटन ने रेडियो पर घोषणा ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी की और दो देशों में विभाजन की घोषणा की। उसके बाद अफरा तफरी का माहौल बन बया था। हजारों की संख्या में मुसलमान ने पाकिस्तान की ओर कूच करना शुरु कर दिया जबकि हिंदुओं ने भारत का। दोनों संप्रदायों में अविश्वास और नफरत की ज्वाला ऐसी चली कि हिंसा हो गई।
जुबली कुमार के नाम से विख्यात राजेंद्र कुमार
देश के बाकी हिस्सों में भले ही हिंसा और तनाव का माहौल था लेकिन राजेंद्र कुमार के गांव में हिंदू और मुसलमान सौहार्द के माहौल में रह रहे थे, लेकिन एक दिन वहां के मुसलमानों ने तुली परिवार से जाने को कहा जोकि अब पाकिस्तान के अधीन आ गया था। उन्होंने कहा कि हम आपको अपने लोगों के जितना ही प्यार करते हैं और सम्मान करते हैं लेकिन भारत से आ रहे रिफ्यूजी मुसलमान खून के प्यासे हैं। उन पर यकीन नहीं किया जा सकता। इसलिए हम आपसे यहां से भारत जाने का आग्रह करते हैं।
हमारे लोग शहर से बाहर तक आपको सुरक्षित छोड़कर आएंगे। उन्होंने साथ में कोई कीमती सामान न ले जाने की भी सलाह दी। यह उनकी जिंदगी के लिए खतरा पैदा कर सकता है। देश की आजादी के ठीक 11 दिन बाद यानी 26 जनवरी 1947 को तुली परिवार ने अपना पैतृक घर छोड़ा। जुबली कुमार : द लाइफ एंड टाइम्स ऑफ ए सुपरस्टार किताब के मुताबिक राजेंद्र कुमार, उनके माता पिता, तीन छोटे भाई और दो बहनें कंधों पर कपड़े की गठरी बांधकर अनजाने सफर पर निकल पड़े। राजेंद्र कुमार के पिता बार मुड़कर अपने घर को देख रहे थे। जो कुछ हो रहा था वह सब उन्हें अवास्तविक और अविश्वसनीय लग रहा था। हालांकि उन्हें मन ही मन यकीन था कि हालात सुधरने पर वह वापस लौटेंगे।
भारत की सीमा पर डेरा बाबा नानक शहर था। वह सियालकोट से करीब 76 किमी दूर था। इस सफर में उनके साथ छज्जूराम नहीं आए। वह अपना पैतृक घर छोड़ने को तैयार नहीं थे। छज्जूराम कराची में रुके। जब उनसे इस पलायन में शामिल होने को कहा गया तो उन्होंने कहा कि मुझे विश्वास है कि जब यह तर्कहीन हिंसा, कट्टरता समाप्त हो जाएगी और लोग जल्द ही होश में आ जाएंगे।
बहरहाल राजेंद्र कुमार का परिवार अब पूरी तरह सड़क पर आ गया था। अनिश्चित भविष्य, भूख और मौसम से परेशान तुली परिवार अपने साथियों के साथ आगे बढ़ रहे थे। इनमें कुछ की भूख से मौत हो गई कुछ लोगों को दूसरे संप्रदाय के लोगों ने हमला करके मार डाला। वहीं राजेंद्र कुमार दो साल के अपने भाई को गोद में लेकर चल रहे थे। उनके भाई की जान चली जाती है। हालांकि राजेंद्र कुमार मानने को तैयार नहीं थे।
जब पिता ने कहा कि उसकी सांसें नहीं चल रही है तब भारी मन से उन्होंने अपने भाई को नदी में प्रवाहित किया। पर वह आधा रास्ता ही नदी के किनारे चले होंगे कि उस जगह पर गए जहां अपने भाई को छोड़ा था। मृत प्रतीत होते अपने भाई को उन्होंने सीने से लगाया और चमत्कारिक रुप से रंजित की जान बच गई। किसी तरह वे डेरा बाबा नानक रिफ्यूजी कैंप तक पहुंचे।
वहां पर सरकार की तरफ से उनके अस्थायी रुप से टेंट में रहने, कपड़े, दवाई और खाने की व्यवस्था की गई थी। कहां आलीशान जिंदगी जीने वाला परिवार अब दो जून रोटी को तरस रहा था। दो दिन बाद रिफ्यूजी को बस से अमृतसर भेजा गया। सड़क पर खून बिखरा हुआ था। यहां-वहां पर इंसानों के साथ जानवरों की लाशें बिछी हुई थीं। वह दृश्य दिल दहलाने वाला था। उस समय राजेंद्र ने अपने पिता को बताया कि उनके पास बैंक में 18 हजार रुपये हैं। उन्होंने अपने अकाउंट को शिमला में शिफ्ट कर दिया था जहां पर वह गर्मियों की छुट्टियां मनाने आए थे।
उनकी यह बात सुनकर पिता बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा कि इन पैसों से हम नई शुरुआत कर सकते हैं। मगर अगले ही सुबह अखबार की खबर ने उनकी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। द न्यू इंडिया बैंक जहां पर राजेंद्र कुमार का अकाउंट था उसे बंद कर दिया गया था। एक बार फिर तुली परिवार की उम्मीदें टूट गई। पर छह महीने बाद बैंक ने सभी अकाउंट धारकों का 75 प्रतिशत जमा धन वार्षिक किस्तों में वापस करने का ऐलान किया। उसके अगले दिन तुली परिवार रोजगार की तलाश में दिल्ली आ गया।
आजाद भारत की राजधानी में में बाहरी लोगों का जमावड़ा लगा था लाखों लोग रिफ्यूजी के तौर पर आए थे। राजेंद्र और उनके परिवार को दिल्ली के रेलवे स्टेशन के पास मस्जिद में रिफ्यूजी कैंप में शरण दी गई। बाद में सरकार रिफ्यूजी लोगों को खाली जगह देने पर सहमत हो गई। राजेंद्र और उनके परिवार को सब्जी मंडी इलाके में दो कमरे का मकान साझेदारी में अलाट हुआ।
पिता ने कपड़ों का व्यवसाय शुरु किया। बहनों ने सिलाई का काम शुरु कर दिया। पर यह बात राजेंद्र को अच्छी नहीं लगती थी कि उनकी बहनें यह काम करें। दरअसल लोग काम के बदले पैसे तो कम देते ही थे गुस्से में चिल्लाते भी थे। राजेंद्र एंप्लायमेंट एक्सजेंच के सामने हजारों युवाओं की तरह कतार में लगे रहते थे। 1948-49 के दौरान पिता का एक पुराना दोस्त उनसे मिलने आया। उस समय राजेंद्र 21 साल के थे। उसने राजेंद्र को पुलिस में तैनाती का सुझाव दिया।
दोस्त ने नौकरी दिलाने का आश्वासन दिया। उसने वादा निभाया 1949 में राजेंद्र की असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर की नौकरी लग गई। नौकरी की ट्रेनिंग के लिए पंजाब के फिल्लौर जाने के दौ दिन पहले राजेंद्र से मिलने उनके सियालकोट के करीबी दोस्त राजकुमार के सब्जबाग पर वह बांबे आए। वहां पहुंचने पर चला चला कि दोस्त खुद संघर्षरत था। एक दिन उनके किसी अन्य दोस्त ने उन्हें गीतकार राजेंद्र कृष्ण से मिलने को कहा।
उन्होंने अपने साथ काम पर रख लिया। राजेंद्र उर्दू के जानकार थे। वह राजेंद्र कृष्ण के लिखे डायलाग को अच्छी लिखावट में उतारते थे। उसी दौरान वर्मा फिल्म्स नामक कंपनी पतंगा फिल्म बनाने जा रही थी। राजेंद्र कृष्ण ने निर्माता से बात करके पचास रुपये महीने पर उनकी नौकरी लगवा दी। फिल्म का निर्देशन एच.एस. रवैल कर रहे थे। राजेंद्र को उस फिल्म में एक सीन में काम करने का मौका मिला।
रवैल भी उनकी लेखन शैली के कायल थे। जब कभी उन्हें कोई सीन पसंद नहीं आता वह राजेंद्र कुमार से दोबारा उसे लिखने को कहते। उन्हें लगता था कि राजेंद्र अभिनय के लिए नहीं बने हैं। वह उन्हें लिखने और निर्देशन पर फोकस करने को कहते थे। राजेंद्र भी उनसे सहमति जताते हुए कहते थे कि वह एक दिन बड़े निर्देशक बनेंगे। पतंगा के पूरी होने तक राजेंद्र कुमार की तनख्वाह 125 रुपये पहुंच चुकी थी। उसी दौरान रंजीत स्टूडियो के संस्थापक चंदूलाल शाह ने उन्हें फिल्म जोगन में छोटा किंतु महत्वपूर्ण किरदार ऑफर किया। यह नायक दिलीप कुमार के दोस्त का रोल था।
उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। राजेंद्र कुमार को सिर्फ चार दिन ही सेट पर आना था। यहां पर भी उन्हें पचास रुपये 50 प्रतिदिन मिलता था। जोगन भी हिट रही। जोगन के बाद चंदू लाल शाह ने उन्हें जिया सरहदी निर्देशित अपनी अगली फिल्म हमलोग का प्रस्ताव दिया। फिल्म की शूटिंग आरंभ होने के कुछ दिन बाद उन्हें हटाकर सज्जन को ले लिया गया। यह जानकर राजेंद्र कुमार का दिल टूट गया। 1954 में राजेंद्र सादे समारोह में विवाह बंधन में बंध गए। वह निर्देशन में फोकस करने लगे थे। उस समय रवैल मोतीलाल और निगार को लेकर मस्ताना बना रहे थे। अचानक से निर्देशक देवेंद्र गोयल ने उन्हें अपनी फिल्म वचन में गीता बाली और बलराज साहनी के साथ अभिनय का आफर दिया। उन्हें 1500 रुपये में साइन किया गया। यहां से सफलता ने उनके कदम चूमना शुरु किया।
ऐसे बने सबके प्रेम चोपड़ा
हिंदी सिनेमा के बेहतरीन खलनायकों में शुमार प्रेम चोपड़ा का जन्म अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ था। 1947 में माहौल और समय को देखते हुए उनका परिवार अंबाला आने वाली ट्रेन में बैठा। उनका सामान ट्रक में लाद लिया गया था। उसके बाद ही विभाजन की वजह से माहौल गर्मा गया था। प्रेम नाम है नाम मेरा प्रेम चोपड़ा किताब के मुताबिक करीब एक महीने वह अपनी बुआ के घर पर रहे। उस समय रिफ्यूजी को उनकी प्रतिभा के मुताबिक काम दिया जा रहा था।
उनके पिता को सरकार की तरफ से शिमला में नौकरी मिल गई। 1951 में जब यह खबर प्रेम की बिजी (मां) को मिली तो वह बहुत खुश हुई। उस दौरान उनकी छठी संतान ने आजाद भारत में सांस ली। इससे पहले उन्हें प्रेम सहित पांच बेटे थे। छठी संतान के साथ एक बेटी होने की उनकी कामना पूरी हुई। शिमला आने के बाद प्रेम ने स्कूल में प्रवेश ले लिया था। उस समय प्रेम चोपड़ा आएएएस या आइएफएस बनने की कामना रखते थे। वह पढाई के मामले में अपने भाइयों में सबसे बेहतर थे।
लिहाजा उनके पिता की उम्मीदें उन पर ही टिकी थीं। उनके पिता डाक्टर बनना चाहते थे लेकिन आर्थिक तंगी की वजह से उनका यह सपना पूरा नहीं हो सका था। इस वजह से उन्होंने प्रेम को साइंस लेने को प्रोत्साहित किया। उन्हें उम्मीद थी कि प्रेम डॉक्टर बन जाएंगे। हालांकि प्रेम चोपड़ा को फिल्में बहुत पसंद थी खास तौर पर स्टंट वाली जिसमें नाडिया और जान कावस (John Cawas) होते थे।
कहीं न कहीं एक्टिंग का शौक उनमें था। उस समय एक्टर बनने का फैसला लेना इतना आसान नहीं था। उनके पिता उसूलों और अनुशासन को लेकर बहुत सख्त थे। मैट्रिकुलेशन के बाद उन्होंने भागर्व म्यूनिसिपल कॉलेज में दाखिला लिया। उस समय वह नाटकों में काफी हिस्सा लिया करते थे। उन्होंने साइंस से अपना विषय इतिहास, इकोनॉमी और राजनीति शास्त्र कर लिया। उनके पिता इस बात से नाराज थे। उन्होंने दो टूक कहा कि स्नातक करने के बाद तुम मेरा घर छोड़कर जा सकते हो। अगर तुम्हें जीवन में कोई दिक्कत आई तो कम से कम तुम्हें नौकरी मिल जाएगी। शिमला बहुत सारी नाट्य संस्था थी। उन्होंने नाटक में काम किया।
साल 1955 में स्नातक के परिणाम के दौरान उन्होंने बांबे में फिल्मों में अपनी किस्मत आजमाने की इच्छा व्यक्त की। उनके माता पिता इससे नाखुश हुए। प्रेम ने नेशनल सेविंग्स सर्टिफिकेट में क्लर्क के तौर पर काम करना शुरु कर दिया। छह महीने वहां पर काम करने के बाद प्रेम दिल्ली आ गए। वहां पर नौकरी करने के साथ प्रेम थिएटर भी करने लगे। फिर एक दिन चुपचाप अपने सपनों के साथ मायानगरी आ गए।उस समय उनकी उम्र महज बीस साल थी। उन्होंने बांबे में पचास रुपये महीने पर दादर के पास लौंच में तीन लोगों के साथ रहना आरंभ किया।
साथ ही एंप्लायमेंट आफिस में नौकरी भी कर ली। फिर स्टूडियो के चक्कर लगाने आरंभ किए। उस दौरान उनकी मुलाकात निर्माता कुलदीप सहगल और निर्देशक लेख राज भाखरी से हुई। वह प्रेम के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने शम्मी कपूर अभिनीत फिल्म तांगेवाली में उन्हें छोटा सा किरदार दिया। यह इंस्पेक्टर का रोल था। यह फिल्म 1955 में रिलीज हुई। प्रेम फिल्म की स्क्रीनिंग के लिए दिल्ली गए। वहां पर उनकी मुलाकत लेख राज के चचेरे भाई मनोज गोस्वामी से हुई। दोनों में अच्छी दोस्ती हो गई।
दो साल बाद लेखराज ने मनोज को फिल्म फैशन से लांच किया। उन्हें स्क्रीन नाम दिया मनोज कुमार। तांगेवाली की रिलीज के आठ महीने बाद उनके हाथ में कोई खास प्रस्ताव नहीं आया। फिर एक अंग्रेजी अखबार में सर्कुलेशन विभाग में काम किया। तमाम संघर्ष के बाद पांच साल बाद पंजाबी फिल्म चौधरी करनाल सिंह में सही तरीके से किरदार मिला। फिल्म के लिए उन्हें दो हजार रुपये मिले थे जो उस समय बड़ी रकम हुआ करती थी। यह फिल्म 1960 में रिलीज हुई। यह फिल्म हिट रही। उन्हें कई पंजाबी फिल्में मिली।
इस बीच मनोज कुमार के साथ डा विद्या में संक्षिप्त रोल किया। हालांकि प्रेम हिंदी फिल्म करना चाहते थे। उसी दौरान महबूब खान से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने कहा कि वो फिल्म सन आफ इंडिया बना रहे हैं। उसमें उन्हें महत्वपूर्ण रोल देंगे। पर उसमें थोड़ा वक्त लगेगा। पर किस्मत को कुछ और मंजूर था। महबूब बीमार हो गए और प्रोजेक्ट बंद कर दिया गया। फिर प्रेम की मुलाकात एनएन सिप्पी से हुई। उन्होंने उन्हें खलनायक का प्रस्ताव दिया। यह फिल्म थी वो कौन थी। उसमें प्रेम का नाम नोटिस हुआ।
प्राण कभी नहीं गए लाहौर
सदाबहार अभिनेता प्राण उन कलाकारों में से थे जो अविभाजित भारत में नहीं जन्मे लेकिन वहां पर नौकरी करने गए। दरअसल, विभाजन से पहले पंजाब की राजधानी लाहौर शहर का अपना मुकाम था। वहां पर फिल्मों का निर्माण होता था। हिंदी सिनेमा में अपनी खास पहचान बनाने वाले प्राण ने वहां पर दास एंड कंपनी नामक दुकान में असिस्टेंट फोटोग्राफर थे। साल 1939 में वह अपने दोस्तों साथ पान खाने गए थे। उसी दौरान लेखक वली मुहम्मद वली ने उन्हें फिल्म में काम करने का प्रस्ताव दिया। उस दौरान फिल्मों में काम करना बहुत अच्छा नहीं माना जाता था। उस फिल्म के निर्माता दलसुख एम पंचोली नामक थे। उन्होंने अपनी पंजाबी फिल्म यमला जाट में प्राण को खलनायक का प्रस्ताव दिया। उस समय प्राण की उम्र 19 साल थी।
उसके बाद उन्हें पंचोली ने अपनी अगली फिल्म चौधरी में भी काम दिया। फिल्म हिट हो गई। प्राण ने उसके बाद हिंदी फिल्म खचांजी में काम किया। इस फिल्म से पंचोली ने हिंदी फिल्मों में कदम रखा था। उसके बाद 1940 तक वह बीस से ज्यादा फिल्मों में काम कर कर चुके थे। 1945 में प्राण की शादी शुक्ला अहलूवालिया से हो गई। वह वहां पर अपना घर बसा चुके थे। प्राण की जे पी आडवाणी द्वारा निर्देशित फिल्म बूथ तराश वर्ष 1947 में रिलीज हुई थी।
यह विभाजन का दौरान था। उस समय प्राण का करियर उड़ान भर रहा था। अपनी किताब एंड प्राण ए बायोग्राफी में प्राण ने कहा कि 11 अगस्त, 1946 को उनके बेटे का जन्म हुआ। उस दौरान राजनीतिक हालात लाहौर में दिनों दिन खराब होते जा रहे थे। देश विभाजन की खबरें जोर पकड़ रही थीं। लाहौर में लूटमार शुरु हो गई थी। वह अपने साथ रामपुरी चाकू लेकर चलते थे। हालात को देखते हुए उन्होंने अपनी पत्नी और बेटे बबलू को अपनी साली पुष्पा वालिया के घर इंदौर भेज दिया। जबकि हालात बिगड़ने के बावजूद प्राण वहीं पर काम कते रहे।
10 अगस्त, 1947 को वह भी इंदौर आए। इसी दिन रेडियो पर खबर चली कि लाहौर में खून की होली खेली गई। उसके बाद 15 अगस्त को देश आजाद हो गया। प्राण ने अपने करीबी दोस्त से कुछ पैसे उधार लेकर बंबई आ गए।उन्हें यकीन था कि लाहौर में अच्छा करियर होने की वजह से बंबई में उन्हें काम मिल जाएगा। लाहौर में उन्हें फिल्मों में काम किस्मत से मिला था। 14 अगस्त 1947 को वह अपनी और बेटे के साथ अपनी प्रतिभा के दम पर बंबई आए। उसके बाद वह कभी लाहौर वापस नहीं गए।
प्राण ने खुद कहा था कि वह उस जगह पर कभी वापस नहीं जाना चाहते थे जिसने जबरन उन्हें निकाला। बहरहाल बंबई में काम मिलना आसान नहीं था। वली मुहम्मद उनसे पहले ही बंबई आ गए थे। उनके दोस्त सआदत हसन मंटो उस समय बांबे टाकीज में काम कर रहे थे। पर प्राण को काम नहीं मिल रहा था। 1948 में एक दिन बांबे टाकीज से फोन आया। आठ महीने की बेरोजगारी के बाद प्राण को काम के लिए बुलाया गया। उन्हें पांच सौ रुपये पर साइन किया गया। यह फिल्म थी जिद्दी। उसमें देवानंद और कामिनी कौशल थे।अगले दिन नवकल नामक एक शख्स उनसे मिलने होटल आया जहां वह पत्नी साथ रह रहे थे। वह उन्हें प्रख्यात निर्माता बाबूराप पाई के पास ले गए। उन्होंने पांच रुपये प्रति महीने देना स्वीकार किया। पर प्राण ने पैसा बढ़ाने को कहा तो उन्होंने छह सौ रुपये कर दिया। इस तरह जिद्दी के बाद उन्होंने दूसरी फिल्म अपराधी साइन की। वहां से उनकी गाड़ी चल पड़ी।
गुलजार ने बचपन में देखा था विभाजन का मंजर
दुनिया जिन्हें गुलजार के नाम से जानती हैं उनका पूरा नाम संपूर्ण सिंह कालरा है। अविभाजित भारत के झेलम जिले में पंजाब के दीना गांव (अब पाकिस्तान में) में जन्मे गुलजार की मां जन्म देने के बाद ही गुजर गई थी। वहां की स्मृतियों के बारे में किताब वो जो हैं के मुताबिक विभाजन का सदमा उनके दिलोदिमाग पर छाया रहा था। उस समय वह 11 साल के रहे होंगे। हालांकि उनके जन्मवर्ष को लेकर विवाद रहा है। कहीं 1934 लिखा है कहीं 1936। जब विभाजन हुआ तो उस समय गुलजार दिल्ली में रहते थे। विभाजन से कुछ समय पहले ही उनका परिवार दीना से दिल्ली आ गया था।
वह सब्जी मंडी इलाके में रहते थे। हालात बिगड़ रहे थे। तमाम तरह की खबरें उनके कानों में भी पड़़ती थी। एक दिन जिन गलियों में खेलते कूदते थे वे लाशो से पट गई। वहां दंगाई और लुटेरे कहर ढा रहे थे। वे जिन्हें रोजाना देखते आए थे बिल्कुल आम इंसानों की तरह वे राक्षस और हत्यारों में तब्दील हो गए थे। किताब के मुताबिक एक अगस्त 1949 को वह रिश्तेदारों के साथ बंबई आए। दरअसल, विभाजन के बाद रिश्तेदारों के झुड पाकिस्तान से आ रहे थे।
गुलजार को याद है कि विभाजन के दंगों के इन भयंकर दृश्यों ने उन्हें और उनके भाई बहनों को कट्टर धर्मांधों में बदल दिया होता अगर उनके सामने पिता की मिसाल नहीं होती। बुरे ख्वाबों की उन स्मृतियों को उन्होंने कहानियों और कविताओं में उतारा। इसके चलते वह विभाजन पर फिल्म बनाना चाहते थे मगर इतिहास की खराशों को दबाए रखने के लोगों और सरकार के हिचक भरे रवैये ने उन्हें अपनी चाह पूरी करने से रोके रखा।
जब गरम हवा और तमस जैसे धारावाहिक बनें उन्होंने राहत महसूस की। अब जख्म खेलकर देखे जाने लगे थे। यही बात साल 1996 में गुलजार को माचिस बनाने तक ले गई। जो पंजाब के आतंकवाद पर थी। अपने नौ सौतेले भाई-बहनों में चौथे नंबर के गुलजार पढ़ना चाहते थे, लेकिन बड़े भाई और पिता ने इस जिम्मेदारी को उठाने से इंकार कर दिया तो वे मुंबई चले आए।
मुंबई आकर उन्होंने वर्ली के एक गेरेज में बतौर मेकेनिक काम किया। रिश्तों से खाली जिंदगी, लेकिन दुख और संवेदना से भरे उनके मन ने अनुभवों को कविता के रूप में शब्दों में पिरोना शुरू किया। उन्होंने रुपहले पर्दे पर अपने शब्दों के सुर देने का काम बंदनी फिल्म से किया। गीत था मेरा गोरा रंग ले ले मोहे श्याम रंग देदे। इस गाने के साथ ही वे उस दौर के तमाम गीतकारों की नजर में आ गए। फिल्म इंडस्ट्री में उन्होंने बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी और हेमंत कुमार के सहायक के तौर पर काम शुरू करने वाले इस गीत के बाद कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
मैं इतिहास बनाना चाहता था : मनोज कुमार
मनोज कुमार का जन्म ऐबटाबाद में हुआ, जो विभाजन के बाद पाकिस्तान का हिस्सा बना। उनके पिता ने भारत को चुना और रिफ्यूजी कैंप में रहने आ गए। मनोज ने फिल्मों में सिर्फ अभिनय नहीं किया, बल्कि गीतकार, स्क्रीनराइटर, एडिटर और फिल्ममेकर के तौर पर भी अपनी पहचान बनाई। वह अशोक कुमार, दिलीप कुमार और कामिनी कौशल के बहुत बड़े फैन थे। उनकी फिल्मों से प्रभावित होकर ही उन्होंने अपना नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी से बदलकर मनोज कुमार कर लिया था। उन्होंने करियर की शुरुआत साल 1957 में रिलीज हुई फिल्म फैशन से की थी। इसके बाद 1960 में फिल्म कांच की गुड़िया से उन्हें पहचान मिली। कई हिट फिल्में दे चुके मनोज के मन में देश के लिए फिल्में बनाने का जज्बा समय-समय पर उफान मारते रहता था। विभाजन के दर्द, देश के मुद्दों पर वह फिल्में बनाना चाहते थे।
मनोज कहते हैं कि मेरा बचपन विभाजन के दर्दनाक मंजर से गुजरा है। रिफ्यूजी कैंप में रहा हूं। राशन की दुकानों पर लंबी लाइनों में खड़े रहकर दाने-दाने के लिए तरसा हूं। गांव में इतनी सीधी-साधी जिंदगी थी। अचानक से लाशों और खून की बहती नदियों के बीच जान बचाते हुए रिफ्यूजी कैंप में आ पहुंचा। मैं उस वक्त नौ-दस साल का था। जब साल 1956 में दिल्ली से मुंबई हीरो बनने आया तो सपना यही था कि तीन लाख रूपये कमाने हैं। एक लाख माता-पिता, एक लाख भाई-बहनों और एक लाख अपने लिए।
मैं आरके स्टूडियो के बाहर खड़े होकर सोचा करता था कि एक दिन इसमें शूटिंग करूंगा। सारे सपने पूरे हुए। एक सपना बाकी था देश के लिए कुछ करने का। पिताजी रिफ्यूजी कैंप में मुझे कई बातें बातों-बातों में सिखा जाते थे। बस स्टॉप जाते वक्त उन्होंने मुझे एक कहानी सुनाई थी दो दोस्तों की, जिसमें एक दोस्त का पिता कहता है कि मैं चाहता हूं मेरा बेटा इतिहास का हिस्सा बने। दूसरे दोस्त के पिता ने कहा कि मैं चाहता हूं कि मेरा बेटा इतिहास बनाए। वह बातें मेरे सिस्टम में चली गई थीं। मैं इतिहास बनाना चाहता था।
एक दिन मैं सो रहा था। एक निर्माता आए और बहुत से पैसे छोड़कर चले गए कि मनोज को कहना कि मेरी फिल्म ही करें। मैंने सोचा कि लोग अपने सपनों को पूरा करने के लिए पैसे खर्च करते हैं। यहां मुझे अपने शौक को पूरा करने के पैसे मिल रहे हैं, तो क्यों न अच्छी फिल्में बनाई जाएं, जिससे देश को लेकर लोगों में प्रेम बढ़े। विभाजन का दंश मैं भूला नहीं था। फिर सोचा अब मैं अपने मन की बात करूंगा। बतौर फिल्ममेकर मैंने अपनी फिल्मों को बनाने में कभी कोई कमी नहीं की। फिल्म की डिमांड को पूरा किया। जो फिल्मों से कमाया, फिल्मों पर लगा दिया।
हिंदी सिनेमा के ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार
हिंदी सिनेमा में ट्रेजडी किंग के नाम के प्रख्यात दिवंगत अभिनेता दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में हुआ था, जो कि अब पाकिस्तान में हैं। दिलीप कुमार का नाम मोहम्मद युसुफ खान था। उनके पिता मोहम्मद सरवर खान का फलों के व्यापार के सिलसिले में बॉम्बे (वर्तमान में मुंबई) आना-जाना था। बॉम्बे में व्यापार के बेहतर मौकों के बारे में उन्हें राज कपूर के दादा बशेश्वरनाथ कपूर ने बताया था। मोहम्मद सरवर ने बांबे में अपना व्यापार स्थापित किया, तथा इस बीच उनका पेशावर आना-जाना भी लगा रहता था।
पिछली सदी के तीसरे दशक के मध्य में वह युसुफ समेत अपने परिवार को भी बॉम्बे ले आएं। बॉम्बे पहुंचने के बाद साल 1937 में उनका दाखिला अंजुमन इस्लाम स्कूल में पांचवी कक्षा में कराया गया था। पेशावर के पठान मोहम्मद युसुफ को फिल्मों में पहला मौका अभिनेत्री और फिल्म प्रोडक्शन स्टूडियो बॉम्बे टॉकीज की देखरेख कर रही देविका देविका रानी ने दिया। उनकी पहली फिल्म ज्वार भाटा साल 1944 में रिलीज हुई। इस फिल्म की रिलीज से पहले देविका रानी के सुझाव पर ही युसुफ को दिलीप कुमार नाम दिया गया। उसके बाद मोहम्मद युसुफ का स्क्रीन नाम दिलीप हो गया।
देश की आजादी और विभाजन से ठीक पहले मई 1947 में दिलीप कुमार की फिल्म जुगनू रिलीज हुई थी। फिल्म में उनके साथ अभिनेत्री नूरजहां थी। भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद जहां दिलीप कुमार के परिवार ने भारत में रहना पसंद किया, वहीं नूरजहां पाकिस्तान चली गई। विभाजन को लेकर दिलीप कुमार का कहना था कि अगस्त 1947 में भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद आगाजी (पिता) को पता चला कि अब उनके पूर्वजों की जमीन और सारी संपत्ति नव निर्मित देश पाकिस्तान में है। इसमें कोई शक नहीं कि यह जानकर वह काफी परेशान हुए। इसके बावजूद जो लोग भी उनसे पाकिस्तान जाने और वहां अपनी संपत्ति संभालने के लिए कहते थे, उन लोगों को आगाजी पहला जवाब यही देते कि हम भारत में ही रहेंगे और भारत में ही मरेंगे। 15 अगस्त 1947 के सुनहरे दिन की स्मृतियों के बारे में दिलीप कुमार ने अपनी आत्मकथा बताया कि मुझे 15 अगस्त 1947 का दिन अच्छी तरह से याद है।
जब हमारे महान पुरुषों और महिलाओं के दशकों के दृढ़ तथा अथक संघर्ष के बाद हमें स्वतंत्रता मिली। मैं चर्चगेट स्टेशन के नजदीक फुटपाथ पर चल रहा था। उस वक्त मैं ज्वार भाटा (1944), प्रतिमा (1945) और मिलन (1946) फिल्मों में काम कर चुका था, इसके बावजूद ज्यादा लोग मुझे नहीं जानते थे। उस दिन जब मैंने देखा कि लोग अपने चेहरे पर खुशी के भाव के साथ घर की तरफ भाग रहे थे, तो मैं भी तेजी के साथ घर की तरफ बढ़ा। घर पहुंचने के बाद मुझे अपने परिवार के सारे सदस्य एक साथ दिखे।
सभी के चेहरे पर एक नए बदलाव तथा शुरुआत की चमक और खुशी थी। वह देखकर मुझे अहसास हुआ कि वह आजादी का दिन था। फिर मैंने भी बिना समय गवाएं स्वतंत्र भारत का नागरिक होने का जश्न मनाना शुरू कर दिया। आजादी के बाद हिंदी सिनेमा को मुगल-ए-आजम, मदर इंडिया और देवदास समेत कई कालजयी फिल्में देने वाले दिलीप कुमार को साल 1994 में भारतीय सिनेमा का सबसे प्रतिष्ठित दादा साहेब फाल्के अवॉर्ड तथा साल 2015 में भारत का द्वितीय सर्वोच्च नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
जब सिनेमा बंट गया था दो देशों में
– 114 फिल्में उस साल बॉम्बे में रिलीज हुई थीं। इस वक्त बॉम्बे, कलकत्ता (अब कोलकाता), मद्रास (अब चेन्नई), पूणे और लाहौर यह पांच जगहें प्रोडक्शन सेंटर मानी जाती थीं।
– दिलीप कुमार और नूर जहां अभिनीत फिल्म जुगनू उस साल की सबसे बड़ी हिट फिल्मों में शामिल थी। उस वक्त 25 पैसे की सिनेमा की टिकट मिला करती थी। फिल्म ने 50 हजार रुपयों की कमाई की थी।
– 15 अगस्त 1947 के दिन बॉम्बे (अब मुंबई) में दो फिल्में शहनाई और मेरा गीत रिलीज हुई थी। शहनाई उस साल की हिट फिल्मों में शामिल हुई थी।
– मोहम्मद रफी विभाजन के दौरान बॉम्बे में थे। उनका परिवार लाहौर में था। उन्होंने लाहौर जाने की बजाय परिवार को बॉम्बे बुला लिया था।
– उस वक्त के जानकार बताते हैं कि आजादी के 24 घंटे पहले देश में हर किसी के चेहरे पर एक मुस्कान थी। देव आनंद इतने खुश थे कि उन्होंने अपनी कार निकाली और चर्चगेट घूमने निकल गए।
– इसी साल राज कपूर और मधुबाला बतौर लीड अपनी पहली फिल्म नील कमल से लोगों का ध्यान आकर्षित किया।
– साल 1947 में ही अभिनेता और गायक के.एल सहगल की आखिरी फिल्म परवाना रिलीज हुई।
– इसी साल रिलीज हुई फिल्म सिंदूर विधवा पुनर्विवाह का मुद्दा उठाया गया। किशोर साहू निर्देशित और अभिनीत इस फिल्म को सराहनीय कदम बताया गया, जिसमें फिल्म का हीरो विधवा लड़की को अपना लेता है।
1947 की बड़ी कमाई करने वाली फिल्में
– जुगनू : दिलीप कुमार की पहली हिट फिल्म रही, जिसमें नूरजहां भी थीं। फिल्म का निर्देशन नूरजहां के पति शौकत हुसैन रिजवी ने किया था। फिल्म में मोहम्मद रफी का एक कैमियो भी था।
– दो भाई : फिल्म में कामिनी कौशल और उल्हास अभिनीत इस फिल्म में नौ गाने थे।
– दर्द : सुरैय्या, मुनव्वर सुल्ताना, नुसरत और श्याम फिल्म में मुख्य भूमिका में थे। फिल्म में 10 गाने थे।
– मिर्जा साहिबान : नूरजहां और त्रिलोक कपूर अभिनीत इस फिल्म ने लगभग 35 लाख की कमाई बॉक्स ऑफिस पर की थी।
– शहनाई : रेहाना, नासिर खान अभिनीत यह फिल्म 15 अगस्त 1947 के दिन ही रिलीज हुई थी। दिलीप कुमार भले ही भारत में रह गए, लेकिन उनके छोटे भाई नासिर लाहौर चले गए। साल 1948 में उन्होंने पहली पाकिस्तानी फिल्म तेरी याद में अभिनय किया। हालांकि साल 1951 में वह वापस भारत आ गए। वहीं रेहाना भी भारत में कुछ फिल्में करने के बाद पाकिस्तान चली गईं।
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