क्या 2024 में भाजपा को सत्ता में आने से रोका जा सकता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
2019 लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाले NDA को करीब 45% वोट मिले। बाकी 55% वोट कांग्रेस समेत अन्य दलों को मिले थे। अब 2024 में BJP को सत्ता में आने से रोकने के लिए इसी 55% वोट को एकजुट करने की बात हो रही है।
इस मिशन को अंजाम तक पहुंचाने के लिए पूर्व राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने ‘वन इज टु वन’ फॉर्मूला दिया है। CM नीतीश कुमार और ममता बनर्जी ने भी विपक्षी दलों को एकजुट करने की बात कही है।
जब किसी मजबूत पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ बाकी सभी विपक्षी दल मिलकर अपना सिर्फ एक उम्मीदवार उतारते हैं तो इसे ‘वन इज टु वन’ का फॉर्मूला कहा जाता है। पूर्व राज्यपाल सतपाल मलिक ने एक इंटरव्यू में कहा-
‘2024 में BJP के एक उम्मीदवार के सामने अगर विपक्ष ने एक ही उम्मीदवार उतारा तो भाजपा की हार तय है। 1989 के दौरान वीपी सिंह के समर्थन में और 1977 में इंदिरा के विरोध में यही फॉर्मूला काम आया था। इसके जरिए 2024 में BJP को सत्ता में आने से रोका जा सकता है।’
इसे ऐसे समझिए कि 2024 के लोकसभा चुनाव में दिल्ली की 7 लोकसभा सीटों पर BJP के खिलाफ आम आदमी पार्टी, कांग्रेस, बसपा समेत बड़े विपक्षी दल मिलकर मैदान में अपने 7 उम्मीदवार को उतारें। ऐसा करने से भाजपा के विरोध में पड़ने वाले वोटों को बंटने से रोका जा सकेगा।
‘वन इज टु वन’ फॉर्मूले के सामने चार बड़ी चुनौतियां ……………
- ज्यादा से ज्यादा सीट पाने की चाहत: मान लीजिए 2024 में सभी विपक्षी दल इस फॉर्मूले से चुनावी मैदान में उतरते हैं तो बिहार में राजद और जदयू चाहेंगे कि उनके हिस्से में ज्यादा सीटें आएं। इसी तरह UP में सपा, बसपा और रालोद ज्यादा से ज्यादा सीटें चाहेंगीं। इससे विपक्षी दलों की एकता खतरे में पड़ सकती है।
- प्रधानमंत्री पद पाने की होड़: अगर सीटों को लेकर तालमेल बन भी जाए तो लड़ाई PM पद को लेकर शुरू होगी। अगर गठबंधन में शामिल सभी बड़े दलों के नेता खुद को प्रधानमंत्री पद की दौड़ में शामिल कर लेते हैं, तो ऐसे में यह तय करना बेहद मुश्किल होगा कि चुनाव के बाद प्रधानमंत्री कौन बनेगा।
- सरकार में हिस्सेदारी: अगर सीट और प्रधानमंत्री पद पर बात बन भी जाए तो सरकार में हिस्सेदारी को लेकर टकराव होना तय है। हर क्षेत्रीय दल मंत्रिमंडल में ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी चाहेगा। जबकि मंत्री पदों की संख्या निश्चित होती है। ऐसे में किसी दल की सरकार में हिस्सेदारी उम्मीद के मुताबिक नहीं होगी तो वो गठबंधन से अलग होने की धमकी दे सकता है।
- क्षेत्रीय और राष्ट्रीय मुद्दों पर बहस: इस तरह के गठबंधन में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दल दोनों शामिल होते हैं। ऐसे में इन दलों के मुद्दे भी अलग होते हैं। ये विचारधारा और काम दोनों के स्तर पर हो सकते हैं। जैसे…
विचारधारा के स्तर पर: कांग्रेस वीर सावरकर का विरोध करती है, जबकि शिवसेना और NCP नेताओं की नजर में वो सम्मानित हैं। इससे टकराव की स्थिति पैदा हो सकती है।
काम के स्तर पर: तीन तलाक कानून, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद- 370 को खत्म करने और कॉमन सिविल कोड पर शिवसेना, BJP का समर्थन करती है। वहीं कांग्रेस का स्टैंड अलग है।
जब 46 साल पहले आजमाया गया ‘वन इज टु वन’ का फॉर्मूला
जनवरी 1977, देश में इमरजेंसी लगे 19 महीने हो गए थे। इंदिरा गांधी को अपनी गलती और लोगों के गुस्से का एहसास हो गया था। इसलिए 18 जनवरी को अचानक से इंदिरा गांधी ने मार्च 1977 में लोकसभा चुनाव कराने का ऐलान कर दिया।
इसके 5 दिन बाद ही 23 जनवरी 1977 को 10 विपक्षी दलों ने मिलकर एक पार्टी बनाई। इस पार्टी का नाम था- जनता पार्टी। विचारधारा में अलग होने के बावजूद ये पार्टियां स्वतंत्रता सेनानी जयप्रकाश नारायण के कहने पर एकजुट हुई थीं।
इन दलों का सिर्फ एक मकसद था- किसी तरह इंदिरा गांधी को प्रधानमंत्री बनने से रोकना। इसके लिए सभी विपक्षी दल एक हो गए और इन्होंने हर सीट पर इंदिरा गांधी के उम्मीदवार के खिलाफ अपना एक उम्मीदवार उतारने का फैसला किया।
शुरुआत में 5 दलों के मिलने से जनता पार्टी बनी। इसमें जनता मोर्चा, भारतीय लोक दल, स्वतंत्र पार्टी, सोशलिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया और भारतीय जनसंघ शामिल थीं। बाद में जनता पार्टी ने अलग-अलग राज्यों में इंदिरा गांधी को हराने के लिए वहां की क्षेत्रीय पार्टियों से भी गठबंधन किया या उन्हें समर्थन दिया।
पंजाब में जनता पार्टी ने अकाली दल के साथ गठबंधन किया, जबकि बंगाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के साथ।
कई दलों ने जनता पार्टी के खिलाफ अपने उम्मीदवार नहीं उतारे
माना जाता है कि ‘वन इज टू वन’ फॉर्मूले के तहत ही जनता पार्टी के खिलाफ कई दलों ने अपने उम्मीदवार नहीं उतारे थे। उस समय जगजीवन राम दलितों के बड़े नेता थे। उन्होंने इंदिरा गांधी की पार्टी से अलग होकर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी का गठन किया। उनकी पार्टी जनता पार्टी के घोषणा पत्र पर चुनाव लड़ी और संसद में भी जनता पार्टी का समर्थन किया था।
वहीं 30 जनवरी 1977 को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) ने कहा कि वह जनता पार्टी के खिलाफ उम्मीदवारों को नहीं खड़ा करके विपक्षी वोटों में बिखराव होने से बचाएगी। कम्युनिस्ट पार्टी की ये घोषणा उन सीटों के लिए थी, जहां उनका जनाधार कमजोर था।
इसी तरह दक्षिणी भारत के कई राज्यों में भी जनता पार्टी वहां की क्षेत्रीय पार्टियों के साथ तालमेल बैठाकर चुनाव लड़ी। परिणाम ये हुआ कि इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को 200 से भी कम सीटों पर जीत मिली।
1989 में इसी फॉर्मूले से राजीव गांधी को हराकर वीपी सिंह PM बने
1989 के लोकसभा चुनाव में दो राष्ट्रीय पार्टियां मैदान में थीं। एक कांग्रेस और दूसरी BJP। इसी वक्त कई पार्टियों के गठबंधन से नेशनल फ्रंट बना। एनटी रामाराव इसके अध्यक्ष और वीपी सिंह संयोजक बने। नेशनल फ्रंट मुख्य रूप से जनता दल और भारतीय कांग्रेस (समाजवादी) पार्टी के साथ आने से बना था।
आंध्र प्रदेश में TDP, तमिलनाडु में DMK और असम में असम गण परिषद ने नेशनल फ्रंट का नेतृत्व किया। नेशनल फ्रंट को लेफ्ट फ्रंट का भी समर्थन प्राप्त था। वामपंथी नेता पी. उपेंद्र इस फ्रंट के महासचिव थे।
परिणाम ये हुआ कि 1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की करारी हार हुई। उन्हें केवल 197 सीटें ही मिलीं। वहीं वीपी सिंह के नेतृत्व में जनता दल ने 143 सीटें जीतीं। नेशनल फ्रंट की बाकी पार्टियों ने कुछ कमाल नहीं किया, पर हां, BJP को 85 सीटें मिलीं। इस चुनाव में कांग्रेस का वोट प्रतिशत 39.5% था। वहीं, यूनाइटेड फ्रंट का लगभग 24% और भाजपा का वोट प्रतिशत 11.4% था। हालांकि बाकी दलों के समर्थन से नेशनल फ्रंट सरकार बनाने में सफल रही। आजादी के बाद दूसरी बार कांग्रेस विपक्ष में बैठी।
BJP ने बाहर से यूनाइटेड फ्रंट की सरकार को समर्थन दिया और वीपी सिंह ने संसद में देवी लाल का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए प्रस्तावित किया। इसके बाद देवी लाल ने नाटकीय ढंग से मना करते हुए वीपी सिंह का नाम प्रधानमंत्री पद के लिए पेश किया। वीपी सिंह देश के 7वें प्रधानमंत्री बने और देवी लाल देश के दूसरे उप प्रधानमंत्री बने।
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