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क्या शिक्षा, पेयजल और बिजली को ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहा जा सकता है? - श्रीनारद मीडिया

क्या शिक्षा, पेयजल और बिजली को ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहा जा सकता है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

रेवड़ी कल्चर का मुद्दा इस समय देश में छाया हुआ है। गली के नुक्कड़ से लेकर माननीय सुप्रीम कोर्ट (Supreme) तक पर इस पर बहस चल रही है कि आखिर ‘रेवड़ी कल्चर’ (Rewari Culture) कितना सही है और कितना गलत? इसी मुद्दे पर आज सुप्रीम कोर्ट में हुई सुनवाई के दौरान शीर्ष अदालत ने बड़ा सवाल पूछ लिया है कि क्या मुफ्त की शिक्षा, पेयजल और बिजली को ‘मुफ्त की रेवड़ी’ कहा जा सकता है?

रेवड़ी कल्चर काे चुनौती देने वाली याचिका पर गौर करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘गंभीर मुद्दा’ माना है। बुधवार को हुई सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायधीशों ने मौखिक रूप से पक्षकारों से इस पर बड़ा सवाल किया है। शीर्ष अदालत ने कहा कि चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा दिए जाने वाले ‘मुफ्त’ के वादों के खिलाफ याचिका की सुनवाई के दौरान उठाए गए मुद्दे ‘तेजी से कठिन’ होते जा रहे हैं।

कोर्ट ने पूछा- उचित वादे क्या हैं?

मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना (Chief Justice NV Ramana) की न्यायिक पीठ ने कहा कि अदालत राजनीतिक दलों को वादे करने से नहीं रोक सकती। हालांकि, पीठ ने सवाल किया, ‘ लेकिन “उचित वादे” क्या हैं?’ न्यायिक पीठ में शामिल जस्टिस जेके महेश्वरी (Justice JK Maheshwari) और जस्टिस हिमा कोहली (Justice Hima Kohli) ने आगे पूछा, ‘क्या हम मुफ्त की शिक्षा, मुफ्त पेयजल और मुफ्त बिजली को “मुफ्त की रेवड़ियां” (Freebies) के रूप में वर्णित कर सकते हैं?’

शीर्ष अदालत ने कहा कि क्या मुफ्त बिजली को कल्याणकारी कहा जा सकता है? यह चिंता का विषय है कि जनता के पैसे को खर्च करने का सही रास्ता क्या है। पीठ ने कहा, ‘कोई कहता है कि यह पैसों की बर्बादी है ताे कोई कहता है कि यह कल्याणकारी है। यह मुद्दा उलझता जा रहा है।’ कोर्ट ने इन सवालों पर पक्षकारों को अपनी राय देने के लिए कहा, ताकि इस पर बहस और चर्चा के बाद अदालत निर्णय ले सके। न्यायिक पीठ ने मनरेगा जैसी योजनाओं को भी सुनवाई के दौरान उद्धृत किया।

‘मुफ्त की रेवड़ी’ का दायरा बड़ा: डीएमके

राजनीतिक दल डीएमके (DMK) का प्रतिनिधित्व कर रहे वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन ने कहा कि पार्टी ने मामले में अपना पक्ष रखने के लिए आवेदन किया है। डीएमके ने कहा कि ‘मुफ्त की रेवड़ी’ का दायरा बहुत बड़ा है और ऐसे कई पहलू हैं, जिन पर विचार किया जाना है। राज्य सरकार द्वारा शुरू की गई कल्याणकारी योजना को ‘मुफ्त की रेवड़ी’ नहीं कहा जा सकता।

पार्टी ने कहा कि इस मुद्दे पर दाखिल याचिका राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों को विफल कर देगी। पार्टी ने कोर्ट के उस प्रस्ताव पर आपत्ति जताई है, जिसमें इस मुद्दे को लेकर विशेषज्ञों की कमेटी का गठन करने की बात कही गई है। गौरतलब है कि पिछली सुनवाई के दौरान अदालत ने केंद्र और राज्य सरकारों, विपक्षी राजनीतिक दलों, भारत के चुनाव आयोग, वित्त आयोग, भारतीय रिजर्व बैंक, नीति आयोग आदि के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए विशेषज्ञों का एक पैनल गठित करने का सुझाव दिया था।

केंद्र का प्रतिनिधित्व कर रहे महाधिवक्ता तुषार मेहता ने उत्तर देते हुए कहा, ‘अगर समाज कल्याण में सब कुछ मुफ्त करना ही उचित समझा जा रहा है तो मुझे खेद है कि यह एक अपरिपक्व समझ है।’

वहीं वरिष्ठ अधिवक्ता विकास सिंह ने शिकायत करते हुए कहा कि डीएमके द्वारा अपना मामले में पक्ष रखने के लिए आवेदन याचिकाकर्ता को देने के बजाए मीडिया में दिया है। इस पर कोर्ट ने कहा कि इन कागजातों का प्रयाेग पब्लिसिटी के लिए नहीं किया जाना चाहिए और सभी पक्षकारों को आवेदन की प्रतियां मुहैया करवाई जाएं। शीर्ष अदालत ने सभी पक्षों से शनिवार शाम तक अपने सुझाव देने के लिए कहा है और मामले की अगली सुनवाई अगले सप्ताह निर्धारित की है।

आम आदमी पार्टी ने रखा अपना पक्ष

वहीं सुनवाई के दौरान आम आदमी पार्टी (AAP) ने जांच कमेटी के गठन का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट से कहा कि चुनावी भाषण को विनियमित करना, एक जंगली हंस के पीछा करने से ज्यादा कुछ नहीं होगा।

बता दें कि शीर्ष अदालत अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय की एक याचिका पर सुनवाई कर रही है, जो चुनाव के दौरान मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए किए जाने वाले तर्कहीन ‘मुफ्त’ के वादों के खिलाफ है। याचिका में केंद्र और चुनाव आयोग को राजनीतिक दलों के चुनाव घोषणा पत्र को नियमित करने के लिए कदम उठाने की मांग की गई है।

भारत में बहुत से ऐसे  राज्य है जहां राजनीतिक दलों ने  मतदाताओं को मुफ्त सौगात बांटने के वादे किये और सत्ता में भी आ गये मगर खजाने खाली हो गये और यहां की सरकारें भारी कर्जदार हो गईं।  लोकतन्त्र में मतदाता राजनीतिक दलों की नीतियों व सिद्धान्तों व भविष्य के कार्यक्रमों को देख कर वोट देते हैं।

मगर दक्षिण भारत से शुरू हुई रेवड़ी बांटने की रवायत अब उत्तर भारत में भी शुरू हो गई है। मुफ्त लेपटाप या साइकिल बांटने या अन्य जीवनोपयोगी जरूरी सुविधाएं देने से  किसी गरीब परिवार का क्या भला हो सकता है जब तक कि उसकी आय बढ़ाने का स्थायी साधन न खोजा जाये और उसे इनका कानूनी हक न दिया जाये।क्योंकि सरकार बदलने पर इनका जारी रहना जरूरी नहीं होता । इन सुविधाओं को पाने के लिए तो उसे हमेशा गरीब ही बने रहना होगा?

संसद का वर्षाकालीन सत्र चल रहा है और ऐसा  माना जा रहा है कि इसी सत्र में ‘रेवड़ी बांटने’ के विरुद्ध मोदी सरकार कोई विधेयक भी ला सकती है। क्योंकि भारत के गांवों में यह कहावत आज भी प्रचिलित है कि ‘मुफ्त की रेवड़ी रोज-रोजना बंटी करतीं।’

 

 

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