क्या राहुल गांधी एक बार फिर ताक़त के साथ उभर सकते है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
राजनीति में सब अपनी-अपनी अक़्ल के दरी- फट्टे साथ लेकर चलते हैं। जहां मौक़ा मिला, बिछाकर बैठने में देर नहीं करते। राहुल गांधी की संसद सदस्यता समाप्त होने के बाद कांग्रेस और भाजपा के तमाम नेता यही कर रहे हैं। मानहानि के जिस मामले में राहुल को सजा सुनाई गई, भाजपा उसे समग्र ओबीसी जाति का अपमान बता रही है।
ये बात और है कि जिन नीरव मोदी का राहुल ने नाम लिया था, वे जैन हैं और ललित मोदी मारवाड़ी। कांग्रेस इस पूरे मामले को साज़िश बता रही है जबकि फ़ैसला कोर्ट का है और कोर्ट के द्वारा दो या दो साल से ज़्यादा की सजा मिलने के बाद जनप्रतिनिधित्व क़ानून के तहत सदस्यता समाप्त होना लाज़िमी है। हाँ, एक बात ज़रूर है कि इतनी जल्दबाज़ी क्यों बरती गई?
दरअसल, यह क़ानूनी के साथ राजनीतिक सक्रियता को भी इंगित करती है। लेकिन कांग्रेस को खुद से सवाल पूछना चाहिए कि जब याकूब मेनन मामले में आधी रात को कोर्ट खुल सकती है तो राहुल मामले में आप फ़ैसला गुजराती भाषा में होने की बात कहकर देर करेंगे, यह बात गले नहीं उतरती।
वास्तव में इस वक्त भारतीय राजनीति के प्लेटफ़ॉर्म पर काली रात खड़ी है। काला कोट पहने हुए। सवाल यह उठता है कि आगे क्या होगा? राजनीति कौनसा मोड़ लेने वाली है? और कांग्रेस, भाजपा दोनों को इससे क्या नफ़ा- नुक़सान हो सकता है? इस वक्त राहुल गांधी की हालत उस घुँघरू की तरह है जो पायल से टूट कर गिर गया है। उस चुल्लूभर पानी की तरह भी, जो लहर के साथ किनारे आने की बजाय किसी सीपी के सीने में छूट गया है।
आख़िर में वो पानी सीप का मोती बन पाएगा या नहीं, यह भविष्य बताएगा। हालाँकि फ़िलहाल राहुल डर नहीं रहे हैं। मानो वे बिंदास कह रहे हैं कि कामयाबी भी आख़िर तो अलादीन का चिराग़ ही होती है। ठीक है- सत्ता का समन्दर हमारी जागीर नहीं हैं, लेकिन उसकी लहरों पर तुम्हारी कम्पनी का स्थाई ठप्पा भी नहीं लगा है। वैसे भी हवा को कोई नहीं रोक सकता। न हाकिमों की मुट्ठियाँ, न हथकड़ियाँ और न ही कोई कैदखाना।
दरअसल, कांग्रेस और भाजपा, दोनों ही राजनीति की हवा और शोले की तरह हैं। दोनों ही आग हैं। दोनों ही बिजली के ख़ानदान से हैं। राजनीति में कौन कितना करंट ला पाता है, भविष्य बताएगा। अब बात करते हैं कि इस सब के बाद होना क्या चाहिए? कांग्रेस को अब एग्रेशन अख़्तियार करना चाहिए। और इस एग्रेशन का मतलब ग़ुस्सा क़तई नहीं होना चाहिए। एग्रेशन मुद्दों का, एग्रेशन सच का हो और सबसे बड़ी बात एकता का हो। एकता का इसलिए कि कांग्रेस के लिए यही सबसे बड़ी समस्या है।
राहुल गांधी अगर मानहानि के फ़ैसले के खिलाफ अपील में न भी जाएं तो कांग्रेस के लिए, और खुद राहुल गांधी के लिए ज़्यादा बेहतर होगा। क्योंकि राहुल गांधी के राजनीतिक जीवन का यह सबसे बड़ा अवसर है जिसमें वे दुगनी- चौगुनी ताक़त के साथ फिर सामने आ सकते हैं। भाजपा इस मामले में कितना ही एग्रेशन दिखाए, फ़ायदा जितना भी होना है, कांग्रेस को ही होना है। वैसे भी भाजपा को अपनी राजनीति चमकाने या चमकाए रखने के लिए उसके सामने एक राहुल गांधी का होना बेहद ज़रूरी है।
अभी तक तो यही होता रहा है। अब तक भाजपा नेताओं के तमाम भाषण कांग्रेस और राहुल गांधी के इर्द- गिर्द ही रहे हैं। जब राहुल सजा काट रहे होंगे तो कोसने के लिए भाजपा के पास बचेगा क्या? उधर राहुल गांधी की लोकसभा सीट वायनाड में उपचुनाव की तैयारी चुनाव आयोग ने शुरू कर दी है। अगर राहुल के पक्ष में फ़ैसला आने से पहले उपचुनाव हो गया तो फिर उनका संसद में आना मुश्किल हो जाएगा।
दो साल की सजा का समय और उसके बाद छह साल की अयोग्यता तक वे कोई चुनाव नहीं लड़ पाएँगे। हालाँकि सांसद रहें या नहीं रहें, राहुल को इससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता। कांग्रेस में उनका ओहदा और सम्मान वही रहेगा, जो आज है।
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