क्या राहुल बाबा अपने में सुधार नहीं ला सकते ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
क्या आपने इस बार अमेरिका में राहुल गांधी की बॉडी लैंग्वेज और बोलने के लहजे में कुछ अंतर देखा? वे पहले से ज्यादा आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे थे। अतीत में हमने उन्हें अपनी विदेश यात्राओं पर संकोच से भरा या अपने में खोया हुआ पाया है, लेकिन इस बार उनके यहां एक तरह की बेपरवाही थी। शायद यह मेरी कल्पना हो, लेकिन लगता है कर्नाटक में बड़ी जीत ने राहुल को कॉन्फिडेंस से भर दिया है। ये सच है कि वे बोलते समय अकसर भूलें कर जाते हैं और उनके विषय भी दोहरावपूर्ण होते हैं, लेकिन हाल ही में उनके द्वारा दिए गए भाषण अनेक बिंदुओं को रेखांकित करते हैं।
फिर भी अहम सवाल यह है कि क्या विदेश में राहुल के द्वारा बोली जाने वाली बातों से देश में कांग्रेस को कोई फायदा होता है? या उलटे उनके कारण पार्टी की सम्भावनाओं की ही क्षति होती है? राहुल का होना भाजपा के लिए ज्यादा फायदेमंद है या कांग्रेस के लिए? क्या उनकी भारत जोड़ो यात्रा कारगर साबित हुई? या क्या कर्नाटक में जीत में उनका योगदान था? कांग्रेस तो यही मानेगी कि जीत राहुल के कारण मिली।
ध्यान रहे, अगर मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में होने जा रहे चुनावों में कांग्रेस की जीत होती है तो इसका श्रेय भी राहुल को ही दिया जाएगा। हमें भूलना नहीं चाहिए कि पिछली बार के चुनाव में भी मध्यप्रदेश में कांग्रेस को जीत मिली थी। वह तो राहुल द्वारा ज्योतिरादित्य सिंधिया के मिसमैनेजमेंट के कारण राज्य उनके हाथ से निकल गया, वरना कांग्रेस सरकार पूरे पांच साल के लिए ही बनी थी। मध्यप्रदेश में कांग्रेस का चुनावी गणित इस पर निर्भर करेगा कि वह मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर किसका चयन करती है।
अगर हम विदेश में राहुल के भाषणों वाले अपने मूल विषय पर लौटकर आएं तो पूछा जा सकता है कि उनका वैल्यू-एडिशन कांग्रेस के लिए क्या है? क्या मुस्लिम लीग को एक पूर्णतया सेकुलर पार्टी कहने या मोदी का यह कहकर मखौल उड़ाने कि उन्हें तो गॉड कॉम्प्लेक्स है, इससे कांग्रेस को भारत में वोट मिलेंगे? कर्नाटक के परिप्रेक्ष्य में कहा जा सकता है कि विदेशों में बोली जाने वाली बातों से चुनाव पर कोई असर नहीं पड़ता, क्योंकि कर्नाटक चुनावों के समय भी राहुल द्वारा लंदन और कैम्ब्रिज में कही बातों पर हो-हल्ला मचा हुआ था।
यह तो स्पष्ट है कि एक औसत भारतीय मतदाता राज्य के चुनावों में अलग मानस से वोट देता है और केंद्र के चुनावों में अलग। अगर केंद्र के चुनावों के लिए मोदी बनाम राहुल की स्थिति बनेगी तो मोदी हर हाल में जीतेंगे। राहुल के विदेश में दिए भाषणों से मालूम होता है कि वे मोदी से ऑब्सेस्ड हैं, लेकिन वे आत्ममंथन की क्षमता का परिचय देते नहीं मालूम होते।
वे अपनी राजनीतिक भूलों को स्वीकार नहीं करते, जैसे ज्योतिरादित्य सिंधिया को पार्टी में रोक नहीं पाना, अमरिंदर सिंह की उपेक्षा करना, अपने स्वयं के निर्वाचन-क्षेत्र के मतदाताओं का विश्वास गंवा देना जबकि वह दशकों से उनका पारिवारिक गढ़ रहा है, राजस्थान में अशोक गहलोत के विरुद्ध बगावत करने के बावजूद सचिन पायलट को प्रश्रय देना और एक अन्य भरोसेमंद मुख्यमंत्री बघेल के प्रति असंतोष जताना आदि- राहुल की राजनीतिक गलतियों की सूची बहुत लंबी है।
ऐसे में सवाल ये नहीं है कि उनके भाषणों से पार्टी को फायदा होता है या नुकसान। सवाल ये है कि क्या राहुल में आत्ममंथन करने और किसी विफलता की जिम्मेदारी लेने की क्षमता है? क्या कारगर साबित हो सकता है और क्या नहीं, इसको लेकर भी उनके कोई निश्चित मापदंड नहीं हैं। वे अपनी भूलों को सुधारने और अपनी विफलताओं पर आत्मचिंतन करने के बजाय मोदी के बारे में बातें करना ज्यादा पसंद करते हैं। यह नीति तो तभी कारगर साबित हो सकती थी, जब स्वयं मोदी ने अपने को इतना अलोकप्रिय बना दिया हो कि आप उनकी आलोचना करके लोकप्रिय हो जाते। पर ऐसा है नहीं।
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