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चक्रवर्ती सम्राट् अशोक ने धम्म देकर भारत को विश्वगुरु बनाया,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

चक्रवर्ती सम्राट् अशोक ने धम्म देकर भारत को विश्वगुरु बनाया,कैसे?

चक्रवर्ती सम्राट् अशोक ने धम्म देकर भारत को विश्वगुरु बनाया,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पहचानें अपने गौरव भाल को, सम्राट् जिसने मगध को भारत बनाया, सम्राट् जिसने भारत के जन-जन में धम्म पहुंचाया, सम्राट् जिसने दुनिया को बुद्ध और उनका धम्म देकर भारत को विश्वगुरु बनाया, सम्राट् जिसके जैसा कोई दूसरा नहीं, भारत ने इतनी विशाल सीमाएं अपने इतिहास में कभी नहीं देखी जितना इन्होंने बनाया, तलवार की जगह अहिंसा और प्रेम को वैश्विक विदेश नीति का हिस्सा बनाया, लोककल्याणकारी राज्य के संस्थापक; परम कारुणिक, तथागत वाणी विस्तारक, धम्मोन्नायक, न भूतो न भविष्यति वाक्य के आदर्श को पूर्ण करने वाले, देवप्रिय, प्रियदर्शी, राजाओं के राजा, चक्रवर्ती सम्राट् अशोक को आइए जानने की कोशिश करते हैं महायान बौद्ध ग्रंथ “अशोकावदान” से जो बौद्ध मिश्रित संस्कृत (Buddhist Hybrid Sanskrit) भाषा में लिखा हुआ है।

प्राचीन भारत में बौद्ध साहित्य पालि, प्राकृत (अपभ्रंश आदि) तथा विशुद्ध संस्कृत भाषाओं से इतर मिश्रित संस्कृत भाषा में भी लिखा गया है, जिसे पाश्चात्य विद्वान् फ्रेंकलिन एजर्टन (Franklin Edgerton) ने बौद्ध मिश्रित संस्कृत कहा है। बौद्ध मिश्रित संस्कृत में अपाणिनीय प्रयोगों की प्रचुरता है तथा पालि की भांति विभिन्न शब्दों तथा उनके रूपों का प्रयोग किया गया है।

मिश्रित संस्कृत में बौद्धों ने न केवल त्रिपिटकों का सृजन किया, अपितु स्वतंत्र रूप से अवदान साहित्य, वैपुल्यसूत्र अथवा महायान सूत्र (अष्टसाहस्रिका प्रज्ञा पारमिता, ललितविस्तर, सद्धर्मपुण्डरीक, लंकावतार, सुवर्णप्रभास, गण्डव्यूह, तथागतगुह्यक, समाधिराज व दशभूमीश्वर) आदि अनेक ग्रंथों की रचना की। प्राचीन भारत में यात्रा पर आये विभिन्न यात्रियों जैसे फाह्यान, हे चो, ह्वेनसांग आदि के यात्रा विवरणों में विभिन्न मिश्रित संस्कृत के बौद्ध ग्रन्थों के उल्लेख मिलते हैं। चीनी, जापानी, कोरियाई, तिब्बती, मंगोलियाई आदि भाषाओं में इन ग्रन्थों के अनुवाद भी उपलब्ध होते हैं।

अस्तु, सामान्यतः बुद्ध, धम्म और संघ के उपासक या उपासिका के जीवन चरित पर आधारित साहित्य अवदान साहित्य कहलाता है। अशोकावदान दिव्यावदान का उपग्रन्थ है। दिव्यावदान अर्थात् दिव्य कथायें बौद्ध कथाओं का संग्रह है। इसकी आधी कथायें विनयपिटक से एवं शेष सूत्रालंकार से संगृहीत की गई हैं। अशोकावदान का समय तृतीय शताब्दी माना जाता है।

अशोकावदान ग्रन्थ कई मूर्धन्य विद्वानों द्वारा सम्पादित है जैसे अशोकावदान के मूल संस्कृत ग्रन्थ का संपादन सबसे पहले कॉवेल एवं आर. ए. नील द्वारा क्रमशः सन् 1886 में कैम्ब्रिज से तथा 1963 में साहित्य अकादमी से हुआ, लेकिन पाठकों के लिए ग्राह्य नहीं था, तत्पश्चात प्रो. सुजीत कुमार मुखोपाध्याय ने अशोकावदान का सम्पादन, पादटिप्पणी एवं आंशिक आंग्लानुवाद किया। जे. प्रजुलुस्की ने 1923 में चीनी भाषा से फ्रेंच में तथा जॉन एस. स्ट्रॉन्ग ने 1983 में अंग्रेजी अनुवाद किया।

सम्प्रति 2015 में अशोकावदान पर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से डॉ. दिलीप कुमार जी ने उत्कृष्ट शोध किया है। उन्होंने अपने लघु शोध-प्रबन्ध (एम.फिल्. डेजरटेशन) में इसके हिन्दी अनुवाद के साथ-साथ समीक्षा भी की है। अशोकावदान के एक भाग कुणालावदान का हिंदी अनुवाद डॉ. प्रफुल्ल गड़पाल जी के द्वारा किया गया है।

दिव्यावदान विभिन्न बौद्ध कथाओं, विभिन्न सम्राटों और जनसामान्य में उत्कृष्ट कार्य करने वाले मानवों के चरित को रोचकता से हमारे सम्मुख रखता है। सम्राट् अशोक से संबंधित दिव्यावदान का भाग अशोकावदान कहलाता है। अशोकावदान का समय तीसरी शताब्दी ईस्वी माना जाता है।

आरम्भ करते हैं हमारे वंशज और भारत के महान प्रतापी सम्राट् का इतिहास अशोकावदान मूल ग्रंथ से, बाकि कोई भी अपने नाटकों, काव्यों में किसी को भी नायक बनाए, उससे सत्य नहीं बदलता, सम्राट् अशोक तो वो सूरज है जिसे कोई कितना भी छुपाना चाहे तो भी छुपा न सकेगा।

लगातार मगध सम्राट् बिन्दुसार द्वारा उपेक्षा किए जाने पर, महामात्य ब्राह्मण खल्लटक और महारानी चारुमित्रा के षडयंत्रों ने राजकुमार अशोक का राजसी बचपन उनसे छीन लिया। राधागुप्त का सहयोग और माँ धम्मा की शुभेच्छाओं से प्रकृति के बीच तपकर तैयार हुए अशोक और मगध के बीच जो भी आया वो तलवार की धार पर अपने प्राण गंवाता रहा और इस तरह मगध ने अपना सम्राट् चुना देवानं पिय पियदस्सी राजानं राजा असोक को।

तलवारों की चमक और कलिंग युद्ध से उपजी सम्वेदना ने कब सम्राट् के हृदय को बुद्ध्यांकुरों से उर्वर कर दिया, पता ही नहीं चला। करुणा और सृजन के इस मार्ग पर बौद्ध रानी देवी का सहयोग सम्राट् के लिए शीतल लेप की भांति रहा। शास्ता के प्रति श्रद्धा का एक उदाहरण अशोकावदान से देखिए जब सम्राट् अशोक के यहाँ भिक्खु उपगुप्त आते हैं तो सम्राट् अशोक के उद्गार इस तरह व्यक्त होते हैं-

यदा मया शत्रुगणान् निहत्य प्राप्ता समुद्राभरणा सशैला।
एकातपत्रा पृथिवी तदा मे प्रीतिर्न सा या स्थविरं निरीक्ष्य॥

अर्थात् मेरे द्वारा शत्रुओं को मारकर प्राप्त की गई समुद्र पर्यन्त और पहाड़ों से युक्त एक छत्र पृथ्वी को पाकर भी उतनी प्रसन्नता नहीं हुई, जितनी आज थेर उपगुप्त आपको देखकर हो रही है। अंदाजा लगाईए कितना सम्मान था तथागत के प्रति सम्राट् अशोक का। एक चक्रवर्ती सम्राट् अपनी विजयों को हीन कह देता है, केवल तथागत के मार्ग का अनुसरण करने वाले एक भिक्खु के सम्मुख। ये था भारत और ये थी भारत की संस्कृति जहाँ त्याग और तथता के सम्मुख सम्राटों के सम्राट् ने भी समर्पण कर दिया और महान् बन गए।

जैन मतावलम्बी सम्राट चन्द्रगुप्त-दुदिन्ना के पौत्र और आजीवकानुयायी सम्राट बिन्दुसार-धम्मा की संतान तथा विश्व इतिहास के सर्वाधिक प्रसिद्ध, यशस्वी, और महान् सम्राट अशोक के जन्मदिवस पर आप सबको मंगलकामनाएं।

दुनिया के इतिहास में ज्यादातर सम्राटों ने नफरत या युद्धों से विजय प्राप्त की तथा वैसी ही मानसिकता के शिकार इतिहासकारों ने उन्हें महिमामंडित भी किया है। कलिंग के रक्तपात के पश्चात् महामानव बुद्ध की शरण में आकर सम्राट अशोक बौद्धमतावलम्बी बने तथा जनसामान्य में प्रेम, मैत्री, करुणा का प्रचार किया।

भारतीय संस्कृति और धर्म को विश्व-विश्रुत कर चतुर्दिक् लोककल्याणकारी राज्य की अवधारणा को विकसित किया। सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक स्तर पर न्याय की भावना को बलवती किया। 84000 स्तूपों, चैत्यों, विहारों का निर्माण करवाकर, उन्होंने जनसामान्य में अहिंसा और प्रेम के धम्म को अग्रसर किया।

कुछ वामपंथी इतिहासकार अशोक के शांति और धम्म की नीति को मौर्य साम्राज्य के पतन का कारण मानते हैं, इन मूढ़मतियों को कौन समझाए कि साम्राज्यों के पतन तो स्वाभाविक है। कोई भी चीज स्थाई नहीं होती। आवश्यक नहीं है कि अशोक के उत्तराधिकारी इतने योग्य हों। राजाओं का उत्थान-पतन इतिहास में देखा गया है।

किसी साम्राज्य के पतन का आधार उसके सिद्धान्तों की मृत्यु होती है, जैसे रूस में मार्क्सवाद के पतन के बाद वहाँ आर्थिक उदारवाद आया है। भारतीय सन्दर्भों में आए दिन किसी न किसी मध्यकालीन या प्राचीनकालीन शासक पर उसकी गलत नीतियों के कारण सवाल उठाए जाते रहे हैं। ऐसा कौन व्यक्ति है, जिसे अदम्य साहसी, कुशल प्रशासक, न्यायप्रिय, करुणावान, मैत्रीपसन्द, त्यागी सम्राट के ये गुण न पसन्द हो।

देवानं पिय पियदसि (देवप्रिय प्रियदर्शी) राजाओं के राजा चक्कवत्ती असोक (चक्रवर्ती अशोक) के बिना भारत ही नहीं अपितु विश्व का इतिहास अधूरा है। चक्रवर्ती सम्राट अशोक इतिहास नहीं वरन वर्तमान हैं, ये देश सदैव सम्राट अशोक का ऋणी रहेगा। पृथ्वी से सूर्य व चांद जब तक दिखते रहेंगे, तब तक सम्राट अशोक का यश और नाम जनमानस में बना रहेगा …. सम्राट अशोक के बारे में लिखने को इतना है कि एक जन्म कम पड़ जाएगा उसे लिपिबद्ध करने में। हमारे जीवन के विभिन्न पहलुओं से लेकर कला, संस्कृति, आचार – विचार सर्वत्र तो उनके द्वारा स्थापित मूल्य और संस्कृति विद्यमान हैं।

अस्तु, आज भी सम्राट अशोक प्रियदर्शी हैं और सम्राटों के भी सम्राट हैं। अशोक इस पृथ्वी पर अब तक के सबसे प्रतापी और महान् सम्राट हैं। आओ सम्राट अशोक का जन्मदिवस मनाएं (चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी अर्थात 29.03.2023)। अपनी पीढ़ीयों को उनका इतिहास बताएं।

आभार- डॉ. विकास सिंह

(लेखकीय परिचय – बिहार के दरभंगा में स्थित ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय की अंगीभूत ईकाई मारवाड़ी महाविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष हैं। लेखक ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के ‘संस्कृत एवं प्राच्यविद्या अध्ययन संस्थान’ से एम.ए., एम.फिल्., पीएच.डी., पालि एवं मंगोलियन भाषाओं में सर्टिफिकेट कोर्स तथा इग्नू से अनुवाद अध्ययन में एम.ए. की है। बौद्ध धर्म-दर्शन पर 4 पुस्तकों के लेखक हैं और राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय सेमीनारों में 100 के तकरीबन शोधपत्र पढें हुए हैं और 50 से अधिक शोधपत्र विभिन्न शोधपत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं।)

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