परिवर्तन भाषा का शाश्वत धर्म है,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
लोक में रमा हुआ तत्व है भाषा, जिसका प्रवाह सनातन से है और जो पग-पग पर डगर बदलती चलती है. भाषा गतिमान है और इसीलिए लोक के प्रवाह में शब्दों के रूप और अर्थ बदलते रहते हैं. यह बदलाव व्यंग्य के तौर पर नजर आता है. किसी जमाने में नेतृत्वकर्ता ही नेता होता था. आज दलाल, बिचौलिया जैसे लोग भी ‘नेता’ बन गये हैं. आज का युवा ‘नेता बनना’ नहीं चाहता, क्योंकि अब इसे ‘नेतागीरी’ के तौर पर लिया जाने लगा है. हिंदी में इन दिनों ‘नेतागीरी’ या ‘नेता बनना’ ये दो नये मुहावरे भी चल पड़े हैं.
हिंदी में प्रबंध की अर्थवत्ता वाले शब्दों में इंतजाम की शोहरत सबसे ज्यादा है. चीजों को संवारने, तरतीब देने, नियमानुसार काम करते हुए सब कुछ सही ढंग से आयोजित-नियोजित करनेवाले लोग आजकल इंतजामुद्दीन या इंतजाम अली के खिताबों से नवाजे जाते हैं. हालांकि, हिंदी की तत्सम शब्दावली के ‘व्यवस्था’, ‘प्रबंध’ या ‘फारसी’ के ‘बंदोबस्त’ जैसे शब्द भी इंतजाम के पर्याय हो सकते हैं. गौर करें, ‘प्रबंधकौशल सिंह’, ‘व्यवस्था भारती’ या ‘बंदोबस्ती लाल’ जैसी लाक्षणिक संज्ञाएं इनसे भी बनायी जा सकती थीं, पर नहीं बनीं. इंतजामिया कमेटी में जो व्यंग्य है,
वह प्रबंध समिति में नहीं. तुष्टिकरण की राजनीति में समितियों की भरमार रहती है. विभिन्न पद बांटे जाते हैं. कुर्सी पर बैठते ही लोग नेता बन जाते हैं. जो कहीं नहीं खप पाते हैं, उन्हें इंतजामिया कमेटी में रख दिया जाता है. वे कहते हैं कि हम इंतजाम देख रहे हैं. ऐसे लोग ही इंतजाम अली होते हैं. महज लक्षणा के आधार पर इंतजाम अली या इंतजामुद्दीन जैसी संज्ञाएं नहीं गढ़ी गयीं, बल्कि मुस्लिम तबके में बतौर व्यक्तिनाम भी ये चलन में हैं.
शब्दों की अभिव्यक्ति में यह बदलाव दरअसल सामाजिक रीतियों, वृत्तियों में आ रहे व्यंग्यात्मक विचलनों की वजह से होता है. सावरकर, गांधी, गोडसे, बुद्ध, माओ, लेनिन, मार्क्स आदि सिर्फ संज्ञा अथवा व्यक्तिनाम भर नहीं रह गये हैं. अलग-अलग संदर्भो में, अलग-अलग समुदायों में इन शब्दों के बर्ताव के अनेक स्तर हैं. इनकी हैसियत मुहावरेदार है.
पुराने नामों में कारूं, दकियानूस, अंगुलिमाल, चंगेज, हलाकू, तैमूर अथवा भगतसिंह, आजाद जैसे पद अब महज नाम भर नहीं बल्कि लक्षण, गुण के आधार पर लोक द्वारा चुनी गयी व्यंजनाएं हैं. इसी तरह ‘सांप्रदायिक’ शब्द की दुर्गति कर दी गयी है. संप्रदाय का अर्थ मत, मार्ग, पंथ, मान्यता अथवा धर्म से जुड़े लोगों का समूह हुआ. समूह से सामूहिक विशेषण बनता है.
समुदाय से सामुदायिक बनता है और इसी तरह संप्रदाय से सांप्रदायिक बनता है जिसका सीधा-सा अर्थ है पंथी, मार्गी, किसी संप्रदाय का, संप्रदाय से संबंध रखनेवाला, किसी परंपरा को माननेवाला, किसी रीति या रूढ़ि का अनुयायी वगैरह. जबकि किसी को ‘सांप्रदायिक’ कहने के पीछे आशय होता है ‘वर्गभेदी’ साबित करना. जब हम कहते हैं कि तुम सांप्रदायिक हो, तब हम दरअसल कहना चाहते हैं कि तुम सांप्रदायिक विद्वेष रखते हो. यही बात कम्युनल के साथ हो रही है. अंग्रेजी के कम्यून में समूह, समुदाय, संप्रदाय, बिरादरी, धर्मसंघ का आशय है.
जाहिर है कम्युनल का आशय जातीय, समूह संबंधी, संप्रदाय का, जाति का, बिरादरी का आदि हुआ. अगर वर्गभेदी अर्थ में कम्युनल का प्रयोग करना होगा, तो वहां आमतौर पर कम्युनल हैटरेड का प्रयोग होता है. भाषा में आते बदलाव पर अनेक लोग कोहराम भी मचाते हैं. इसे साजिश समझते हैं. हर व्यक्ति, समूह की अभिव्यक्ति का स्तर उसके परिवेश और भाषायी संवेदना पर आधारित होता है. अर्थापकर्ष इसी वजह से होता है.
समाज औसत आकलन के आधार पर धारणाएं बनाता है. शब्दों से खिलवाड़ अलग चीज है और मुहावरेदार बर्ताव अलग. शब्दों को मुहावरों में नहीं बदलेंगे, तो भाषा रूढ़ और अरुचिकर हो जायेगी. उस्ताद, बाबा, गुरु, मठाधीश, पीर, नेता, चौधरी जैसे तमाम गुरुता वाले शब्दों का अर्थापकर्ष हिंदी की शब्दयात्रा का बेहद दिलचस्प मुकाम है.
किसी व्यक्ति विशेष ने इन संज्ञाओं को नहीं बदला, बल्कि नामित के व्यवहार के चलते संज्ञा को एक नया अर्थायाम मिला. इसे हिंदी के विकास की तरह समझना चाहिए. टकसाल में कमी ढूंढना, कोख में कमी ढूंढने जैसा है.
सामाजिक मूल्यों का बदलाव भाषा पर भी अलग ढंग से असर डालता है, पर इसे भाषा के खिलाफ साजिश के खाते में नहीं चढ़ाया जा सकता. भाषा की समझ रखनेवालों का दायित्व है कि पदों, सर्गों आदि के गलत प्रयोग से अनजान लोगों का मार्गदर्शन भी लगातार करते रहें. इस संदर्भ में एक बहुराष्ट्रीय कंपनी द्वारा बनाया गया वनस्पति घी ‘डालडा’ भारत में, खासतौर पर हिंदी पट्टी में इतना लोकप्रिय हुआ कि डालडा का अर्थ ही वनस्पति घी हो गया. हिंदी के लगातार विकसित होते जाने में बाजार की भूमिका के ये कुछ उदाहरण हैं.
जिस तरह से कठोर खुरदुरी चट्टानों को भी पानी चिकना बना देता है ताकि उस पर सुगमता से गुजर सके, उसी तरह सदियों तक अलग-अलग समाजों के बीच विकसित होती भाषा अपना रास्ता बनाती है. किसी शब्द के साथ समस्या होते ही, ध्वनितंत्र अपने शब्दों के उच्चारणों को जिह्वा के अनुकूल बना लेता है.
स्कूल-इस्कूल, लैंटर्न-लालटेन, एग्रीमेंट-गिरमिट, गैसलाइट-घासलेट, ऊं नमो सिद्धम्-ओनामासीधम, सिनेमा-सलीमा, प्लाटून-पलटन, बल्ब-बलब-बलप-गुलुप, लेफ्टिनेंट-लपटन जैसे अनेक शब्द हैं जो एक भाषा से दूसरी में गये और फिर उस जुबान में अलग रूप में जगह बनायी. भाषाओं के प्रचार-प्रसार में संचार माध्यमों का बड़ा योगदान रहता है. किसी जमाने में मेलों-ठेलों के जरिये एक शब्दों की आवाजाही होती थी.