छठ: प्रकृति से जुड़ने का एक महापर्व
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के रोक से अब दिल्ली में यमुना किनारे छठ पूजा नहीं हो सकेगी। एनजीटी के इस निर्णय की चर्चा देशभर में है। एनजीटी उसके अनुसार यमुना तट पर होने वाले छठ पूजा से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इससे नदियों की पारिस्थितिकी के समक्ष गंभीर संकट उठ खड़ा हुआ है। अब सवाल यह है कि क्या वाकई यमुना तट की छठ पूजा से दिल्ली का पर्यावरण दुष्प्रभावित हो रहा है। इस बात को समझने के लिए किसी भी तथाकथित पर्यावरणविद की आवश्यकता नहीं है। इसके लिए तो वही लोग पर्याप्त हैं जिन्होंने छठ पूजा को होते देखा है।
छठ के इस पावन त्योहार में सजावट और पूजन सामग्री के तौर पर केले का पौधा, गन्ना, अक्षत चावल और मिट्टी के दिये भर लगते हैं। वहीं इस पूजा में घर के बने आटे और गुड़ के पकवान, दूध और आसपास उपलब्ध मौसमी फल उपयोग में लाए जाते हैं। जबकि प्रसाद बांस के बने पात्रों में रखे और चढ़ाए जाते हैं। यह पर्व अब भी तड़क भड़क और बाजारवाद से दूर है। इस पूजा के दौरान जल में केवल अक्षत चावल, ताजे फूल और दूध छोड़े जाते हैं। वहीं पूजा बाद घाटों पर आपको सर्वत्र केले के रोपे पौधे दिखेंगे, जिसे श्रद्धालु नदी तालाब घाटों की सफाई के साथ लगाते हैं।
लोक आस्था का महापर्व छठ प्रकृति से जुड़ने का एक उत्सव है। यह सिसकती संस्कृति और मिटते नदियों और तालाबों के लिए भी एक आस है। आपके शहर में छठ व्रती सांस्कृतिक अतिक्रमण और नदियों पर कब्जे की नियत से नहीं उमड़ते हैं। यह तो पलायन की मजबूरी और परंपराओं से जुड़ाव के नाते घाटों का रुख करते हैं।
यहां लोग प्रदूषण फैलाने नहीं, बल्कि नदियों की सफाई और सनातन संस्कृति के चेतना जागरणार्थ आते हैं। यहां न तो प्लास्टिक और न ही किसी रसायन का कोई उपयोग होता है। यहां तक कि यह पूजा प्रदूषण के अन्य माध्यमों से भी मुक्त है। लोगबाग यहां श्रद्धा से खिंचे और भक्ति के रंग रंगे चले आते हैं।
आखिर सामूहिकता में विश्वास सूर्य में श्रद्धा और गंगा यमुना तट पर आस्था को आप कैसे रोक सकते हैं? छठ एक ऐसा पर्व है जिसे बिना लोगों के सहयोग के संपन्न नहीं किया जा सकता। प्रसाद बनाने, अर्ध्य देने और छठ गीत गाने तक के लिए रिश्तेदार और परिचित लोग चाहिए। इस पर्व में छठ घाट तक प्रसाद से भरी टोकरी को सिर पर ढोकर लाने और ले जाने का विधान है।
वहीं छठ गीतों में संयुक्त परिवार, गांव, प्रकृति और सार्थक सामाजिक संदेश होते हैं। बिखरते परिवार, उजड़ते गांव वाले दौर में भी छठ व्रती अपने लिए एक प्यारी बेटी और दूसरों के लिए सौभाग्य मांगते हैं। ऐसे सभी उपक्रम परिवार व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए हैं। इससे सामाजिक जुड़ाव और लगाव भी बढ़ता है।
बात अगर इसकी प्राचीनता की करें तो इसका अतीत इसे वेदों से जोड़ता है। पुराणों में वर्णित राजा ऐल की कथा में सूर्योपासना है। वैसे इस पर्व की शुरुआत बिहार के मगध क्षेत्र से है। इस अनूठे पर्व में लोक भाषा में रचे गीतों के सहारे पूजा संपन्न की जाती है। जहां सूर्यदेव संग छह कृतिकाओं की पूजा होती है।
इसलिए इस प्रकृति पूजा को सूर्यषष्ठी भी कहते हैं। वैसे इसका लोकप्रिय नाम छठ पूजा है। इसे जनप्रिय बनाने में सर्वाधिक योगदान यहां के एक विशेष वर्ग का है जिन्होंने वेदों के सूर्य स्तुति और मंत्रों को लोक काव्य में रचा। इनकी कई प्रमुख बस्तियां आज भी पुरातात्विक महत्व के सूर्यमंदिरों के आसपास है।
बिहार से ब्रिटेन तक विस्तार
बदलते दौर में अब छठ पूजा को लेकर नजरिया भी बदला है। पहले जहां श्रद्धालु अपने गांव लौटते थे तथा मिल-जुल कर नदी, पोखर के किनारों पर छठ पूजा करते थे, वहीं पुरबिया का यह पर्व वैश्विक हो चला है। बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र में प्रवासियों के साथ वहां तक पहुंचा यह पर्व अब सात समंदर पार तक मनाया जा रहा है। पुरबिया गिरमिटियों की संतानें अफ्रीका और न्यूजीलैंड के तटीय द्वीपों से कैरेबियन देशों तक इसे हर्षोल्लास के साथ मनाते हैं। शहर दर शहर की इस यात्रा में अब छठ पूजा मुंबई के समंदर किनारे जुहू चौपाटी से लेकर अहमदाबाद में साबरमती रिवरफ्रंट से लेकर लंदन के टेम्स किनारे तक मनाई जाती है।
छठ पर्व ने समय के साथ दूसरे सांस्कृतिक समुदायों को भी आकर्षित किया है। इसका एक बड़ा कारण इसके सीधे सरल रिवाज और इसका गीत संगीत का होना भी है। सामाजिक संदेश वाहक ये गीत मिट्टी की महक लिए भक्तिभाव से भरे पूरे हैं। संभवतः इसलिए इन गीतों को गाने गुनगुनाने का लोभ लोग छोड़ नहीं पाते हैं।
अभी पिछले वर्ष छठ पर्व पर एक विदेशी बाला का गाया गीत इंटरनेट पर काफी लोकप्रिय हुआ था। ठीक ऐसा ही एक गीत अप्रवासी भारतीयों द्वारा लंदन के टेम्स किनारे से गा कर लोकप्रिय किया गया था। बढ़ते पलायन के बीच नई जगह नए परिवेश में हो रहा छठ पूजा भी चर्चा में है।
हालिया वर्षों के कई लोकप्रिय छठ गीत वीडियो इसी पर केंद्रित है। आखिर नए जगह नए लोगों के बीच इस उत्सव को कैसे मनाया जाए यह प्रयास अब आगे बढ़कर लोगों को प्रकृति पर्व से जोड़ने का एक उपक्रम भी बना है। बस आवश्यकता इसे लोकप्रिय बनाने की है। यह सूर्योपासक रहे जाति और समुदायों को सनातन धर्म और भारत वर्ष के पास लाने का एक माध्यम भी बन सकता है।
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