सूर्य की उपासना का पर्व छठ पूरी तरह प्रकृति के स्वाभिमान और स्वावलंबन को समर्पित.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
सूयरेपासना का प्रमुख पर्व है छठ। सूर्य सृष्टि के कारक हैं, अत: इन्हें आदिदेव माना जाता है। सूर्य भगवान निरंतर कर्मरत रहते हैं। वे बिना किसी भेदभाव के अपनी ऊर्जा और ऊष्मा प्रदान कर जीवन को संभव बनाते हैं। क्योंकि भगवान ने सर्वप्रथम उन्हें ही कर्मयोग का उपदेश दिया था। वे स्वावलंबन के सबसे बड़े उदाहरण हैं। उनका ही अवलंबन पाकर चांद, तारे और समूची सृष्टि प्रकाशित है। यही कारण है कि सूर्य की उपासना का पर्व छठ भी पूरी तरह प्रकृति के प्रति स्वाभिमान और स्वावलंबन को समर्पित है। इस पर्व में उपयोग में आने वाली सभी वस्तुएं प्राकृतिक हैं। हम इसे प्रकृति का महापर्व कह सकते हैं।
प्रत्यक्ष देव के रूप में भुवन भास्कर भगवान सूर्य नारायण संपूर्ण जगत के परम आराध्य हैं। उत्तर वैदिक साहित्य तथा रामायण-महाभारत में भी सूर्योपासना संबंधी चर्चा है। गुप्त काल के पूर्व से ही सूर्योपासकों का एक संप्रदाय बन चुका था, जो ‘सौर’ नाम से प्रसिद्ध था। सौर संप्रदाय के उपासक अपने उपास्य देव सूर्य को आदिदेव के रूप में मानते थे। भौगोलिक दृष्टि से भी भारत में सूर्योपासना व्यापक थी।
मथुरा, मुल्तान, कश्मीर, कोणार्क और उज्जयिनी आदि सूर्योपासना के प्रधान केंद्र थे। वर्तमान में सूर्योपासना का सबसे बड़ा पर्व छठ है। प्राचीन काल में भी सूर्योपासना के प्रमाण मिलते हैं। अत्रि मुनि की पत्नी ने भी सूर्योपासना की थी। राजा अश्वपति ने सूर्य की उपासना करके सावित्री देवी को कन्या रूप में पाया था। इन्हीं सावित्री ने यमलोक से अपने पति सत्यवान को वापस लाकर सतीत्व की मर्यादा स्थापित की थी।
अग्निपुराण के अनुसार, विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्माजी का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के पुत्र मरीचि थे। मरीचि से महर्षि कश्यप का जन्म हुआ। महर्षि कश्यप सूर्य के पिता हैं। हनुमान जी ने व्याकरण शास्त्र की शिक्षा सूर्य के सान्निध्य में रहकर प्राप्त की थी। सूर्य के पुत्र यम से नचिकेता ने कर्मयोग की शिक्षा प्राप्त की थी। सूर्य के तेज से कुंती के गर्भ से महावीर वैकर्तन (कर्ण) ने कवच कुंडल सहित जन्म लिया था। वनवास काल में सूर्य की उपासना करने से युधिष्ठिर को एक पात्र मिला था, जिसमें द्रौपदी भोजन बनाती थीं। उस पात्र में अन्न अक्षय हो जाता था।
कहा जाता है कि भगवान कृष्ण ने भगवान सूर्य की उपासना-आराधना करने के बाद सुदर्शन-चक्र प्राप्त किया था। वाल्मीकि रामायण के अनुसार, भगवान राम ने भी आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ कर रावण पर विजय प्राप्त की थी। पुराणों के अनुसार, एक बार सूर्य की पत्नी संज्ञा पति के तेज को सहन न कर सकने के कारण उत्तर-पूर्व में चली गई थीं। जब सूर्य को यह बात मालूम हुई, तब वह भी उत्तर-पूर्व गए और वहां अश्विनी रूप धारणी संज्ञा से दोनों अश्विनी कुमारों का जन्म हुआ।
अश्विनी कुमार देवताओं के चिकित्सक कहे जाते हैं। शर्याति की कन्या सुकन्या के पतिव्रत धर्म से प्रसन्न होकर इन्होंने च्यवन ऋषि को दृष्टि शक्ति एवं सुंदरता का दान किया था। सूर्यदेव आरोग्य के अधिष्ठाता देव भी हैं। मार्कण्डेय पुराण में सूर्य की उत्पत्ति तथा उनकी दोनों पत्नियों संज्ञा व छाया और छ: संतानों का विस्तार से वर्णन आया है।
भगवान सूर्य की उपासना का महापर्व छठ।
सूर्य की शक्ति हैं छठी माता: पुराणों में कहीं सूर्य की पत्नी संज्ञा को, कहीं कार्तिकेय की पत्नी को षष्ठी देवी या छठी मैया माना गया है। श्रीमद्भागवत महापुराण के अनुसार, प्रकृति के छठे अंश से प्रकट हुई सोलह मातृकाओं में प्रसिद्ध षष्ठी देवी (छठी मैया) ब्रह्मा जी की मानस पुत्री हैं। सूर्य की छह प्रमुख रश्मियां मानी गई हैं। इन्हीं छ: रश्मियों का संयुक्त रूप छठी मैया हैं। भारतीय पूजा-परंपरा में किसी भी देवता के साथ एक देवी की कल्पना की गई है। जैसे शिव के साथ शक्ति की, विष्णु के साथ लक्ष्मी की, ब्रह्मा के साथ सरस्वती की। उस शक्ति के बिना शिव शव तुल्य हो जाते हैं। उसी प्रकार सूर्य के साथ माता संज्ञा अर्थात षष्ठी देवी की कल्पना की गई है। षष्ठी देवी सूर्य की शक्ति हैं। दोनों मिलकर जगत की रक्षा का कार्य करते हैं। इसीलिए छठ की पूजा तभी पूरी मानी जाती है, जब उनके साथ छठी माता की पूजा होती है।
भारतीय संस्कृति में आरंभ से ही सूर्य की महिमा बताई जाती रही है। भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं। तत्वत: वह पूर्णब्रह्म माने जाते हैं। उनकी उपासना का विधान वेदों में तो है ही, सूर्योपनिषद व चक्षुउपनिषद में भी विशद रूप में वर्णित है। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने अजरुन से कहा था कि सूर्य की कोई अलग स्थिति नहीं है। उदय काल में ब्रह्मा, मध्याह्नकाल में महेश और संध्या बेला में विष्णु स्वरूप हैं। जिसने मेरा दर्शन किया, उसने आदित्य का भी दर्शन किया और जिसने आदित्य का दर्शन किया, उसने मेरा भी दर्शन कर लिया।
ग्रंथों में उल्लेख है कि भगवान ने सूर्य को सृष्टि के प्रारंभ में कर्मयोग का उपदेश दिया था, क्योंकि सूर्य के प्रकाश में ही कर्म होते हैं : प्रकाशयत्येक: यही कृत्स्नं लोकमिमं रवि:। (श्रीमद्भगवद्गीता 13/ 33)। कर्मयोग का वास्तविक अधिकारी सूर्य को जानकर ही भगवान ने उनको सर्वप्रथम कर्मयोग का उपदेश दिया। श्रीमद्भगवद्गीता (4/1-3) में भगवान कृष्ण कहते हैं कि मैंने इस अविनाशी योग के बारे में विवस्वान सूर्य को बताया था। सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। हे अजरुन, इस प्रकार परंपरा से प्राप्त इसे योगी व राजर्षियों ने जाना, किंतु उसके बाद वह योग पृथ्वीलोक में लुप्तप्राय हो गया। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिए यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है।
सृष्टि में जो सर्वप्रथम उत्पन्न होता है, उसे ही कर्तव्य का उपदेश दिया जाता है। उपदेश देने का तात्पर्य है कर्तव्य का ज्ञान कराना। भगवान के द्वारा दिए गए कर्मयोग के उपदेश का सूर्य ने पालन किया। जनक आदि राजाओं तथा संतों-ऋषियों ने कर्मयोग का आचरण कर परम सिद्धि प्राप्त की थी। कालांतर में जब वह योग लुप्तप्राय हो गया, तब पुन: भगवान ने अजरुन को उसका उपदेश दिया।
भारत में आज भी सूर्योपासना प्रचलित है। छठ पर्व का आयोजन साल में दो बार क्रमश: चैत्र एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी को ‘नहाय खाय’ से शुरू होकर सप्तमी के दिन पारण से समाप्त होता है। इन चार दिनों के व्रतानुष्ठान के दौरान 36 घंटे का उपवास व्रती रखते हैं। बिहार प्रांत की सांस्कृतिक पहचान के रूप में धर्म एवं संस्कृति की इंद्रधनुषी छटा बिखेरते कृतज्ञता एवं आस्था की पराकाष्ठा का यह महापर्व बिहार समेत पूरे देश और विदेश में मनाया जाता है। देश में हों या विदेश में, बिहार प्रांत के लोग बिना किसी भेदभाव के एक साथ किसी जलाशय के पास एकत्रित होते हैं। अपनी प्रकृति और अपनी संस्कृति के प्रति स्वाभिमान प्रकट करते हैं और छठ पर्व मनाते हैं।
कुछ लोग छठ पर्व को कृषि के साथ भी जोड़कर देखते हैं। उनका तर्क है कि कार्तिक मास में भदई तथा धान की फसल और चैत्र मास में रबी की फसल हो जाती है। फसलें मुख्यत: मौसम पर निर्भर हैं और मौसम सूर्य पर निर्भर होता है। इस कारण कृषि सूर्य पर ही निर्भर है। जिसे हम रबी की फसल कहते हैं, वह रवि का अपभ्रंश है। इस फसल का नाम भी भगवान सूर्य के नाम पर ही हुआ है, क्योंकि रवि का अर्थ सूर्य होता है।
छठ में अस्ताचलगामी और उदयाचलगामी, दोनों स्थिति वाले सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। इस बारे में यह पौराणिक प्रसंग जानना आवश्यक है कि भगवान सूर्य जब अपनी पत्नी संज्ञा को लेकर अपने ससुर विश्वकर्मा के घर आए तो विश्वकर्मा ने अपनी बेटी की विदाई धूमधाम से की। यही संज्ञा छठी माता के रूप में पूजी जाती हैं। सायंकालीन और प्रभातकालीन सूर्य की पूजा का कारण यह है कि सूर्य सायंकाल में अपनी ससुराल गए थे।
पूरी रात विश्वकर्मा और उनकी पत्नी ने विदाई की तैयारी की थी और अपनी पुत्री व जामाता का स्वागत किया था। छठ पूजा में ठेकुआ, फल वगैरह चढ़ाने का जो विधान है, वह इसी परंपरा का पोषक है। सांयकालीन अघ्र्य पुत्री जामाता के स्वागत का और फिर अगले दिन प्रात:कालीन अघ्र्य विदाई का परिचायक है।
- यह भी पढ़े……
- आखिर चीन के जंगी जहाज से क्यों चिंतित हैं अमेरिका और भारत?
- कश्मीर में नहीं थम रही टारगेट किलिंग.
- स्वास्थ विभाग के अपर सचिव पहुंचे गांव, ग्रामीणों से मिलकर भर आई आंखे
- सिसवन बीडीओ सीओ ने किया खतरनाक छठ घाटों का निरीक्षण