सिविल सेवक में दूसरे की भावनाओं को समझने की क्षमता होनी चाहिए.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पिछले दिनों त्रिपुरा में एक जिला मजिस्ट्रेट ने कोरोना महामारी के फैलाव को देखते हुए जिले में धारा-144 लगा दी। इसके निरीक्षण के लिए वह एक ऐसी जगह पर पहुंचे, जहां शादी-समारोह चल रहा था। उसे देखते ही वह आगबबूला हो उठे। उन्होंने वहां मौजूद पुजारी की पिटाई कर दी। वर-वधू और बारातियों को भी अपमानित किया। बारातियों को गिरफ्तार करने का भी आदेश दिया। जिला मजिस्ट्रेट के इस व्यवहार की पूरे देश में आलोचना हुई। कुछ लोग ऐसे भी निकले, जो जिला मजिस्ट्रेट को सही ठहराने लगे। ऐसे में इस घटना को तटस्थ दृष्टि से देखा जाना बहुत जरूरी है।

सरकारी अधिकारी के दो रूप: पहला व्यक्तिगत और दूसरा सार्वजनिक

किसी भी सरकारी अधिकारी के दो रूप होते हैं। उसमें पहला रूप उनका व्यक्तिगत होता है तो दूसरा रूप सार्वजनिक। इस घटना में हम इन दोनों रूपों का घालमेल पा रहे हैं, इसलिए मामला उलझ-सा गया है। जिला मजिस्ट्रेट जिले का प्रमुख होता है। उसे इस बात का पूरा अधिकार है कि वह कानून का उल्लंघन करने वालों को विधिसम्मत दंड दे। व्यवस्था बनाए रखने के लिए यह अनिवार्य भी है। इस दृष्टि से धारा-144 का उल्लंघन करने वालों के खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए। पुलिस अधिकारी को निलंबित करना भी एक उचित प्रशासनिक निर्णय कहा जा सकता है।

सच पूछिए तो इन दोनों ही मुद्दों पर कोई विवाद भी नहीं है। मूलत: विवाद इस बात को लेकर है कि क्या कोई अधिकारी, चाहे वह कितना भी बड़ा क्यों न हो, किसी भी व्यक्ति के साथ सार्वजनिक रूप से इस तरह का अपमानजनक व्यवहार करने के लिए अधिकृत है? उत्तर होगा-नि:संदेह रूप से नहीं। खासकर एक लोकतांत्रिक प्रणाली में तो कदापि नहीं।

देश की प्रशासनिक व्यवस्था सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त

ऐसा नहीं है कि अखिल भारतीय प्रतियोगी जैसी कठिन परीक्षा से सफल होकर आए हुए एक अधिकारी को इस तथ्य की जानकारी न हो, लेकिन इसके बावजूद यदि वह इस तरह का व्यवहार करता है तो हमें समझना होगा कि इसकी जड़ें कहां हैं? दुर्भाग्य से भारत की प्रशासनिक व्यवस्था अभी भी सामंतवादी एवं उपनिवेशवादी मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त है। सामंतवादी मानसिकता जहां उसे जनता का माई-बाप मानने के लिए प्रेरित करती है, वहीं उपनिवेशवादी मानसिकता उसे तानाशाह जैसा बनाती है। आज भी जिला अधिकारी को लोग जिले का सेवक के बजाय जिले का मालिक ही समझते हैं।

युवा अधिकारियों के दिमाग में यह बात आइएएस बनने से पहले ही अच्छी तरह उनके अवचेतन में बैठ चुकी होती है। यदि हम इसी घटना को देखें तो साफ दिखाई पड़ता है कि लोगों की पिटाई और अपमानित करने के पीछे कहीं-न-कहीं अवचेतन में मौजूद यह सोच ही काम करती दिखाई पड़ती है कि ‘मेरे आदेश की अवहेलना करने की हिम्मत कैसे पड़ी?’

जिसे हम नौकरशाही कहते हैं, वह मूलत: भारतीय प्रशासनिक सेवा को इंगित करती है

जिसे हम नौकरशाही कहते हैं, वह मूलत: भारतीय प्रशासनिक सेवा को ही इंगित करती है। चाहे केंद्र हो या राज्य, पूरे देश की प्रशासनिक व्यवस्था का तानाबाना कुछ इस तरह का बनाया गया है कि राष्ट्र की प्रत्येक गतिविधि किसी-न-किसी आइएएस अधिकारी द्वारा ही नियंत्रित होती है। प्रशासन का यह स्वरूप जाने-अनजाने में ही आइएएस अधिकारी के मन में स्वयं के बारे में ‘ईगो’ यानी अहंकार भाव भर देता है। हम त्रिपुरा के जिला मजिस्ट्रेट को अपने इसी निजी व्यक्तित्व को सार्वजनिक करता हुआ देखते हैं।

आइएएस बनने के लिए ‘भावनात्मक-बुद्धिमत्ता’ की भी परीक्षा होती है

आइएएस बनने के लिए ‘भावनात्मक-बुद्धिमत्ता’ की भी परीक्षा होती है। इसमें बताया जाता है कि एक सिविल सेवक में स्वयं और दूसरों की भावनाओं को समझकर आवश्यकतानुसार उसका प्रबंधन करने की क्षमता होनी चाहिए। यहां हम जिला मजिस्ट्रेट को इसका सही उपयोग करने में असफल पाते हैं। मसूरी प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षुओं को जनसेवक बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है, लेकिन जब यही अधिकारी बनकर राज्यों में ट्रेनिंग के लिए पहुंचते हैं तो वहां निचले स्तर का पूरा प्रशासन उनके लिए बिछ जाता है। ऐसा केवल जी-हुजूरी की दृष्टि से ही नहीं होता, बल्कि कार्यप्रणाली में भी होता है। ट्रेनिंग की शुरुआत में ही अपनी सेवा के बारे में ऐेसी छवि के बन जाने को उनके इस तरह के तुनक-मिजाजी व्यवहार के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

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