सुरंग से जीवित बाहर निकलना ऐसा है मानो जैसा दूसरा जन्म हुआ है,क्यों?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
उत्तराखंड के उत्तरकाशी में सिलक्यारा व डंडलगांव के बीच निर्माणाधीन सुरंग में 17 दिन तक फंसे रहने के बाद निकाले गये 41 श्रमिकों में बिहार के पांच मजदूर भी शामिल थे. जो शुक्रवार को फ्लाइट से पटना एयरपोर्ट पहुंचे और फिर अपने घरों को रवाना हुए. उनके साथ उनके परिजन भी आए. घर पहुंचने पर सभी का जोरदार स्वागत भी हुआ. सुरंग के अंदर अंधेरे में न सोने की जगह होती है और न ही शौच की. ऐसे में इन श्रमिकों ने विषम परिस्थिति में बिताए अपने 17 दिनों की आपबीती को साझा किया. सभी श्रमिकों ने उनको निकालने के लिए उत्तराखंड सरकार के प्रयासों की जमकर तारीफ की और इसे उनका दूसरा जन्म हुआ माना.
कैसे करते थे शौच-स्नान ?
मजदूरों ने बताया कि टनल में फंसने के बाद पहले 24 घंटे तक वे काफी परेशान रहे. इसके बाद जब उन्हें बाहर से खाना और अन्य सुविधाएं मिलने लगीं तो उन्हें उम्मीद जगी कि जल्द ही वे सुरंग से बाहर आ जाएंगे. इस दौरान सबसे बड़ी समस्या शौच को लेकर थी. मजदूर सुरंग के एक हिस्से में ही खुले में शौच करते थे. इसके अलावा उनके पास कोई दूसरा विकल्प नहीं था. नहाने के लिए भी अनुकूल परिस्थितियां नहीं थी. मजदूरों के पास न तो ज्यादा कपड़े थे और न ही गीले कपड़े सुखाने की कोई बेहतर व्यवस्था. ऐसे में जिन मजदूरों को नहाने की जरूरत महसूस हुई, उन्होंने सुरंग के एक हिस्से से टपक रहे प्राकृतिक पानी से ही स्नान किया.
शुरू के 24 घंटे में बहुत डर महसूस हुआ : सोनू साह
सारण के सोनू कुमार साह वहां सीनियर इलेक्ट्रिशियन का काम कर रहे हैं. उन्होंने बताया कि टनल धंसने के बाद शुरू के 24 घंटे में बहुत डर महसूस हुआ. लगा कि अब कभी बाहर की दुनिया देख पायेंगे भी या नहीं. लेकिन जब मैसेज मिला कि हम लोगों को निकालने का काम हो रहा है, तो फिर उम्मीद जगी. उसके बाद तो लगातार बाहर से खाना, दवाइयां और मैसेज भी आते रहे, जिससे 17 दिनों की लंबी अवधि में भी हमारा हौसला टूटने नहीं पाया.
टनल से निकलने के बाद एक-दूसरे को लगाया गले
रोहतास के सुशील विश्वकर्मा ने बताया कि जब टनल में हादसा हुआ, उस समय मैं हाइड्रा चला रहा था. इसकी जानकारी मिलते ही हम सभी परेशान हो गये. दो किमी आगे पूरा टनल पैक हो चुका था. हम लोगों को समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें. लगा कि मौत बिल्कुल पास खड़ी है. लेकिन अगले दिन जब पाइप के माध्यम से हमको ज्ञात हुआ कि लोग बाहर हमको निकालने के प्रयास में लगे हैं, तो थोड़ी राहत मिली. टनल से निकलने के बाद हम लोगों ने एक दूसरे को गले लगा लिया.
एक जगह जमा होकर एक-दूसरे को दिया हौसला
बांका के वीरेंद्र किस्को वहां पोकलेन चलाने का काम करते हैं. उन्होंने बताया कि अचानक मलबा गिरने से टनल का एक हिस्सा पैक हो गया. कुछ घंटे तक तो हमें समझ ही नहीं आया कि कि अब हम आगे क्या करें, लेकिन एक दूसरे को हमने हौसला दिया और टनल के उस हिस्से में एक ही जगह एकत्र हो गये. अगले दिन जब बाहर से खाना मिला और मैसेज आया, तब हमारे जान में जान आयी.
टनल में करते थे योगा
भोजपुर के सबा अहमद ने बताया कि टनल धंसने के बाद भय की स्थिति उत्पन्न हो गयी थी, लेकिन ऑक्सीजन की व्यवस्था होने के बाद बाहर निकालने की उम्मीद जगी. उन्होंने कहा कि हम लोग हिम्मत कभी नहीं हारे. वहीं, रेस्क्यू ऑपरेशन में जाने वाली सामग्री को रिसीव कर सबके बीच बराबर-बराबर वितरण किया जाता था. उन्होंने बताया कि टनल में फंसे सभी कामगारों को नियमित रूप से टनल में योगा भी कराता था, साथ ही सभी श्रमिकों को मनोरंजन के लिए खेल की सामग्री प्रशासन के द्वारा उपलब्ध करायी गयी थी. बाहर से भी हमें खाना और पीने के लिए पानी के साथ जरूरी दवाइयां भी मिलती रहीं, जिससे उम्मीद बंधी रही और अंतत: हम बाहर निकलने में सफल रहे.
दस दिनों तक खाने के लिए मिली मूढ़ी
जीवन और मौत से संघर्ष के बाद अपने घर मुजफ्फरपुर पहुंचे दीपक कुमार की गाड़ी जैसे ही घर के दरवाजे पर रुकी. मां ऊषा देवी दीपक को गले लगाने के लिए दौड़ पड़ी. दोनों मां-बेटे की आंखों में आंसू थे. मां ने जब बेटे को नजदीक से देखा तो पिछले 20 दिनों की घबराहट और बेचैनी एक पल में दूर हो गयी. दीपक ने बताया कि हमलोगों के पास बाहर संपर्क करने का कोई उपाय नहीं था. पहले लगा कि छोटा-सा ब्लॉक होगा. कुछ देर में ठीक हो जायेगा. फिर सुबह से रात हो गयी. बाहर से संपर्क नहीं हुआ तो हमलोगों को डर लगने लगा. खाने के लिये भी कुछ नहीं था तो हमलोगों ने पानी पीकर रात काटी. दूसरे दिन भी वही स्थिति थी. तीसरे दिन सुरंग में लगे चार इंच के पाइप से खाने के लिये मूढ़ी मिली.
पाइप से चिल्लाकर बोलते थे श्रमिक
दीपक ने बताया कि पाइप से ही हमलोगों को ऑक्सीजन मिल रहा था. बाहर से लोग पाइप से ही बोलकर बताते थे. हमलोगों को कहा किया कि चिंता मत कीजिये. जल्द ही आप लोगों को निकाल लिया जायेगा. हमलोगों को कुछ बोलना होता था तो पाइप से चिल्लाकर बोलते थे, जिससे आवाज बाहर चला जाये. दस दिनों के बाद छह इंच का पाइप अंदर भेजा गया. उसके जरिये फल, पानी और खाना बाहर से आया करता था. अंदर हमलोगों के पास जियो टेक्सटाइल था, जो चादर जैसा होता है. उसी को बिछा कर हमलोग सोते थे. 17 दिनों तक हमलोगों के लिये एक-एक पल गुजारना मुश्किल था. हालांकि यह विश्वास था कि हमलोगों को निकालने की कोशिश हो रही है.
उत्तरकाशी के लोगों ने 28 को मनायी दीपावली
दीपक ने बताया कि 28 तारीख को जब उन लोगों को सुरंग से निकाला गया तो एंबुलेंस से 25 किमी दूर अस्पताल पहुंचाया गया था. रास्ते में सड़क के दोनों किनारे लोगों ने दीप जला रखे थे. रास्ते में कई जगहों पर लोग हाथ में दीपक लिये खड़े थे और भारत माता का जयकारा लगा रहे थे. एंबुलेंस गुजरने के दौरान कई जगह पर आतिशबाजी भी हुई. ऐसा लग रहा था मानो उत्तरकाशी के लोग आज ही दीपावली मना रहे हैं.
उसी रात अस्पताल में सीएम पुष्कर सिंह धामी हम लोगों से मिलने पहुंचे. उन्होंने कहा कि इस घटना के बाद हम लोगों ने भी दीपावली नहीं मनायी है. आप सभी 29 को मेरे आवास पर निमंत्रित हैं. हम लोग एक साथ दीपावली मनायेंगे. हम लोगों को 29 को सीएम आवास पर ले जाया गया. वहीं पर सामूहिक रूप से दीप जलाये गये और आतिशबाजी की गयी. फिर हम लोगों ने एक साथ भोजन किया. रात में सांस्कृतिक कार्यक्रम का भी आयोजन किया गया. सीएम ने हम लोगों को एक-एक लाख का चेक दिया.
क्यों हुई इतनी परेशानी
साथ ही उन्होंने सुरंग ढहने की घटना को सामान्य बताते हुए कहा है कि ऐसी घटनाएं हर सुरंग निर्माण परियोजना के दौरान होती हैं लेकिन इस बार हम बदकिस्मत थे कि मजदूर वहां फंस गए. खलखो ने आगे कहा, सुरंग ढहने की घटनाएं, जिन्हें ‘गुहाओं’ के रूप में भी जाना जाता है, सिल्क्यारा की तरफ और सुरंग के बारकोट छोर दोनों पर हुईं, उन्होंने कहा कि “सिल्कयारा की तरफ की तुलना में बरकोट की तरफ अधिक ढह गईं”. उन्होंने आगे कहा कि सिल्क्यारा छोर से सुरंग के मुहाने के अंदर 160 से 260 मीटर (जिसे चेनेज भी कहा जाता है) के क्षेत्र को भंगुर चट्टानों वाले ‘रेड जोन’ या ‘शियर जोन’ के रूप में पहचाना गया था.