मोहन राकेश की कहानी ‘मलबे का मालिक’ पर टिप्पणी.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
रघुवीर सहाय के मुताबिक लेखक की एक मुश्किल जनता भी होती है। जनता का गुणगान करके भवसागर पार करने वाले बहुतेरे मिलते हैं, लेकिन उसकी कमियों पर उँगली रखकर उसे दिखाने वाले बिरले होते हैं। हाँ, जनसमुदाय को अपने फूहड़ हास्य-व्यंग्य का निशाना बनाने और हर बात के लिए ज़िम्मेदार ठहराकर उसकी भर्त्सना करने वाले शूरवीरों की कमी कभी नहीं होती। ऐसी निष्करुण और ज्ञानोद्धत आलोचना फ़िलहाल हमारी चिन्ता का विषय नहीं है। इस प्रसंग में लेखक की सच्ची भूमिका बकौल कबीर उस गुरु की तरह होती है जो ऊपर से चोट तो मारता है, लेकिन अन्दर हाथ का सहारा भी दिए रहता है।
बँटवारे के साम्प्रदायिक दौर की विभीषिका पर लिखी गई कहानियों से अलग ‘मलबे का मालिक उस दौर के गुज़र जाने के बाद किया हुआ उसका सिंहावलोकन है। गहरे अफ़सोस के साथ अतीत पर डाली गई पीड़ा भरी व्यंग्य-दृष्टि। आमतौर पर इसे, ‘मलबे’ के रूपक के चलते, बँटवारे की निरर्थकता और उसके विनाशकारी चरित्र का बयान करने वाली रचना माना गया है।
कहानी से मिलने वाला एक ऐसा सन्देश जिस पर कभी कोई दो राय नहीं हो सकती! किसी भी समय की स्थापित वैचारिकी हमेशा सुरक्षित निष्कर्षों की तलाश करती है, लेकिन रचनाशीलता नई और अरक्षित यात्राओं से ही अपना जीवन-द्रव्य जुटाती है। इसीलिए नई संवेदनाएँ पहले रचनाओं में अंकुरित होती हैं, आलोचना को देर-सबेर उन्हें पहचानना पड़ता है। मोहन राकेश की बहुचर्चित कहानी ‘मलबे का मालिक’ भी एक ऐसी ही रचना है।
कहानी की शुरूआत में चित्रित हिन्दू-मुसलमानों के जीवन-प्रसंगों की मर्मस्पर्शी एकता के बीच ही मुसलमानों के प्रति हिन्दुओं की आशंका का ज़िक्र एकाध वाक्य में आता है। बँटवारे के लिए ज़िम्मेदार यह मानसिकता जनसमुदाय की चिंतन-प्रणाली का अंग बन चुकी है। निस्संदेह इसके पीछे निहित स्वार्थों का सुनियोजित प्रयास है, लेकिन जनता भी उनके चंगुल में है और बाक़ायदा अपनी कमजोरियों के चलते है।
साम्प्रदायिक वैमनस्य का यह रास्ता ख़ुद हिन्दुओं के लिए कैसा आत्मघाती है, इसका पता इस बात से चलता है कि जिस ‘बाज़ार बाँसाँ’ की यह कहानी है उससे मुसलमानों को भगाने के लिए जलाए गए उनके ‘एक-एक घर के साथ हिन्दुओं के भी चार-चार, छह-छह घर जलकर राख हो गए थे।’
कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ आशंका का यह स्वर गहराता चला जाता है। ‘सब कुछ बदल गया, मगर बोलियाँ नहीं बदलीं’ कहता हुआ, साढ़े सात साल बाद लाहौर से अमृतसर आया ‘बुड्ढा मुसलमान’ अब्दुल ग़नी ‘अपनी’ गली में खेलते बच्चों को पुचकारता है कि गली में यह ख़बर फैल जाती है। औरतें एक-दूसरे को बताती हैं कि एक मुसलमान आया है जो रामदासी के बच्चे को उठा ले जाना चाहता था।
वे अपने बच्चों के साथ घरों के अन्दर चली जाती हैं। यह ख़बर इतनी ‘स्वाभाविक’ है कि कोई इसकी तस्दीक़ करने की नहीं सोचता। असमंजस में पड़ा ग़नी पहले तो अपनी मुस्लिम पहचान बन गई टोपी उतार कर हाथ में ले लेता है, फिर इस तरीक़े की व्यर्थता का भान होते ही उसे वापस पहन लेता है। ‘तक़सीम से छह महीने पहले बनवाए’ अपने घर को एक नज़र देखने के लिए जब वह गली में आगे बढ़ता है तो खिड़कियों से झाँकते लोग उसे पहचान जाते हैं, और कहानी की मूलभूत विडंबना को गहरा करते हुए, उनकी आशंका एक उम्मीद में बदल जाती है।
मलबे में पड़ी चौखट से ग़नी के सिर के छूते ही भुरभुरे रेशों के साथ एक केंचुआ नीचे गिरता है और अपने छिपने के लिए सूराख़ खोजता है। कहानी में इसके ठीक बाद अपने-अपने घरों में महफ़ूज़, खिड़कियों से झाँक रहे लोगों को लगता है, ‘जैसे वह मलबा ही ग़नी को सारी कहानी सुना देगा. ….’ ग़ौरतलब है कि यह आकांक्षा गनी के प्रति हुए अन्याय के प्रतिकार की भावना के चलते नहीं है,
अन्यथा निष्क्रिय होने पर भी कम से कम नैतिक समर्थन की श्रेणी में आती। लोगों की मुश्किल यह है कि ‘रक्खा उस मलबे को अपनी जायदाद समझता आ रहा था, जहाँ न वह किसी को गाय-भैंस बांधने देता था और न ही खुमचा लगाने देता था। उस मलबे से बिना उसकी इजाज़त के कोई एक ईंट भी नहीं निकाल सकता था।’
ज़ाहिर है कि यह कहानी मलबे की ‘व्यर्थता’ के बारे में नहीं, उसकी ‘सार्थकता’ के बारे में है; वह भी रक्खे जैसे गुंडे के लिए नहीं, अपने-अपने घर की खिड़कियों से झाँक रहे भलेमानस हिन्दुओं के लिए। रक्खे के लिए तो मकान से मलबा बनने के बाद वह जगह महज़ अधिकार जताने की चीज़ रह गयी है। लेकिन बाकी मुहल्ले वाले उसकी एक-एक ईंट बटोर लेना चाहते हैं. वहाँ अपना खूँटा गाड़ देना चाहते हैं। ग़नी के बेटे चिरागदीन की हत्या भले ही रक्खे ने की हो, उसके पीछे बल तो सामूहिक था।
फिर यह कैसे न्यायसंगत है कि वह अकेले मलबे पर अधिकार जताए। शायद इसी असंतुलन को दूर करने के लिए नियति ने ग़नी को वहाँ भेज दिया है। उसे सचाई बताने तक का साहस किसी में नहीं है, लेकिन हवस है कि छिपाए नहीं छिप रही- ‘असल में मलबा न इसका है, न ग़नी का। मलबा तो सरकार की मिल्कियत है। मरदूद किसी को वहाँ गाय का खूँटा तक नहीं लगाने देता।’
तबाह और बरबाद हो जाने के बावजूद वह मलबा यक़ीनन ग़नी का है, लेकिन उसे सरकारी यानी सार्वजनिक खाते में डाल लिया गया है। इसके बावजूद ग़नी से उम्मीद है कि वह रक्खे से लड़-मरेगा। ग़नी से, विभिन्न कारणों से, कोई ख़तरा नहीं है। बस कुछ ऐसा हो जाए कि रक्खे का मलबे पर अधिकार विवादग्रस्त हो जाए। वह अकेला नहीं, हम सब मलबे के मालिक हो जाएँ।
ऐसी ही है फिलहाल हमारी जनता के एक बड़े हिस्से की न्याय-चेतना। ये भोले-भाले और मासूम लोग हैं जो चींटी तक नहीं मारते, लेकिन अपने आसपास, घर-परिवार-मुहल्ले में होने वाले बड़े से बड़े ज़ुल्म और अन्याय से आँख फेरते समय पलकें तक नहीं झपकाते। और अगर कहीं अपना छोटा-सा भी मतलब हल होता हो तो देखिए कैसी अच्छी-अच्छी बातें याद आती हैं– ‘ग़नी के सामने रक्खे का तालू कैसा खुश्क हो गया था….. रक्खा अब किस मुँह से लोगों को…… मलबे पर गाय बाँधने से रोकेगा? बेचारी जुबैदा! कितनी अच्छी थी वह!’
बहरहाल, ग़नी के जाने के बाद धर्म के सहारे रक्खा अपने क्षणिक अपराधबोध से उबरकर फिर मलबे पर अधिकार जताने लगता है। यहाँ आकर कहानी पूरी हो जाती है, लेकिन कथा ख़त्म नहीं होती, क्योंकि आम लोगों की ऐसी भूमिका से मानवीय भावनाओं के क्षेत्र में एक बड़ा शून्य पैदा हो जाता है। उसी शून्य को भरने के लिए वैकल्पिक जन का प्रतीक बनकर एक कुत्ता कहानी में आता और तात्कालिक तौर पर रक्खे को मलबे से हटाकर ही दम लेता है।
यह कोई आशावादी अंत नहीं है, सिर्फ चरम निराशा से ख़ुद को और अपनी रचना को उबारने की कथाकार की एक कोशिश है। जनता की इन कमजोरियों में साझा करने वाले पाठक के लिए भी यह कोशिश बाहर पड़ने वाली चोटों के बीच अंतरतम में मिलने वाला सहारा साबित होती है।
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