भारत में दिव्यांगों के लिये संवैधानिक ढाँचा और उनके सशक्तिकरण के लिये पहल
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विशेषशक्तता या दिव्यांगता (Disability) तब उत्पन्न होती है जब दिव्यांगजनों को व्यावहारिक और पर्यावरणीय दोनों तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जो उन्हें समाज में पूर्ण एवं न्यायसंगत भागीदारी से अवरुद्ध करता है। दिव्यांगता पर परिप्रेक्ष्य का विकास एक व्यक्तिगत-केंद्रित चिकित्सा मॉडल से एक व्यापक सामाजिक या मानवाधिकार मॉडल के रूप में हुआ है, जो दिव्यांगजनों के समावेशन और भागीदारी पर सामाजिक कारकों के प्रभावको उद्घाटित करता है। इन पहलुओं के आलोक में, संरचित वार्ता दिव्यांगता अधिकारों से जुड़े मुद्दों को संबोधित करने में एक प्रभावशाली साधन के रूप में उभरती है।
संरचित वार्ता (Structured Negotiation) क्या है?
- परिचय:
- सहयोगात्मक दृष्टिकोण: संरचित वार्ता एक सहयोगात्मक और समाधान-प्रेरित विवाद समाधान पद्धति है, जो दिनानुदिन वाद या मुक़दमेबाज़ी (litigation) की जगह लेती जा रही है।
- सामाजिक कल्याण संबंधी विधान का फोकस: इसमें चूककर्ता सेवा प्रदाताओं (defaulting service providers) को वार्ता के लिये आमंत्रित करना शामिल है, जहाँ सामाजिक कल्याण संबंधी विधानों के अनुपालन पर बल दिया जाता है।
- अमेरिका में संरचित वार्ता की सफलताएँ:
- दिव्यांगता अधिकार संबंधी मामलों में प्रभावी: संयुक्त राज्य अमेरिका में दिव्यांगता अधिकार संबंधी मामलों के निपटान में संरचित वार्ता उल्लेखनीय रूप से सफल रही है।
- अभिगम्यता संबंधी मुद्दों को संबोधित करना: इन सफलताओं में ऑटोमेटेड टेलर मशीनों, पॉइंट ऑफ सेल उपकरणों, पेडेस्ट्रियन सिग्नल और सेवा प्रदाता वेबसाइटों के साथ समस्याओं का समाधान करना शामिल है।
- संरचित वार्ता में सर्वविजय की स्थिति:
- लागत और प्रचार संबंधी चिंताएँ: चूककर्ता सेवा प्रदाता मुक़दमेबाज़ी की उच्च लागत और नकारात्मक प्रचार से बचना चाहते हैं।
- बाधा-मुक्त बाज़ार: शिकायतकर्ताओं का लक्ष्य है बाधा-मुक्त बाज़ार भागीदारी, जिसे संरचित वार्ता के माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है।
- संरचित वार्ता में विधिक दृष्टांतों की भूमिका:
- दिव्यांग-अनुकूल दृष्टांतों का सृजन: यह सफलता सुदृढ़ दिव्यांग-अनुकूल विधिक दृष्टांतों या कानूनी मिसालों पर निर्भर करती है, जो संरचित वार्ता के लिये एक आधार तैयार करती है।
- अभिगम्यता के लिये खाका: न्यायालय अभिगम्यता के लिये एक खाका या ब्लूप्रिंट तैयार करते हैं, जिससे व्यवसायों को मुक़दमेबाज़ी के बिना अनुपालन सुनिश्चित करने की अनुमति मिलती है।
भारत में दिव्यांग आबादी के समक्ष विद्यमान प्रमुख चुनौतियाँ कौन-सी हैं?
- ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी योजनाओं के बारे में सीमित जागरूकता:
- दिव्यांगजनों के लिये उपलब्ध सरकारी योजनाओं और लाभों के बारे में जागरूकता की कमी एक प्रमुख चुनौती है।
- यह समस्या ग्रामीण क्षेत्रों में अधिक गंभीर है जहाँ सूचना प्रसारित करना विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण है।
- दिव्यांगजनों के लिये उपलब्ध सरकारी योजनाओं और लाभों के बारे में जागरूकता की कमी एक प्रमुख चुनौती है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा और रोज़गार तक सीमित पहुँच:
- ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगजनों को शिक्षा और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच में बाधा का सामना करना पड़ता है।
- शैक्षिक संस्थानों और व्यावसायिक प्रशिक्षण केंद्रों की अनुपस्थिति उनके कौशल अधिग्रहण और कार्यबल भागीदारी में बाधा उत्पन्न करती है।
- ग्रामीण क्षेत्रों में दिव्यांगजनों को शिक्षा और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच में बाधा का सामना करना पड़ता है।
- दिव्यांगजनों के लिये पर्याप्त अवसंरचना की कमी:
- स्कूलों, अस्पतालों, परिवहन प्रणालियों और सरकारी कार्यालयों सहित विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर दिव्यांगजनों के लिये प्रायः सामंजन सुविधाओं की कमी होती है।
- यह कमी उनकी गतिशीलता, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक एवं नागरिक गतिविधियों में संलग्नता को प्रतिबंधित करती है।
- स्कूलों, अस्पतालों, परिवहन प्रणालियों और सरकारी कार्यालयों सहित विभिन्न सार्वजनिक स्थानों पर दिव्यांगजनों के लिये प्रायः सामंजन सुविधाओं की कमी होती है।
- महत्त्वपूर्ण पहलों से दिव्यांग बच्चों का अपवर्जन:
- यूनिसेफ (UNISEF) इस बात पर प्रकाश डालता है कि दिव्यांग बच्चों को प्रायः सार्वजनिक स्थानों से अपवर्जित किया जाता है, जिससे वे उनके स्वास्थ्य एवं कल्याण में सुधार पर लक्षित महत्त्वपूर्ण पहलों से चूक जाते हैं।
- विकासात्मक योजनाओं से अनवधानात्मक अपवर्जन:
- कुछ विकास संबंधी योजनाएँ अनवधानात्मक रूप में या अनजाने में दिव्यांगजनों को अपवर्जित कर देती हैं। उदाहरण के लिये टीकाकरण अभियानों में रैंप, सांकेतिक भाषा के दुभाषियों या ब्रेल सामग्री जैसी पहुँच सुविधाओं का अभाव नज़र आया।
- भारत में दिव्यांगता अधिकार संबंधी कानूनों को लागू करने की चुनौतियाँ:
- जबकि भारत ने दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (CRPD) की पुष्टि की है और दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (RPwDs) को अधिनियमित किया है, इन कानूनों के प्रवर्तन एवं कार्यान्वयन में अंतराल और चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
- कई दिव्यांगजन अपने अधिकारों और उपलब्ध उपचारों के प्रति अनजान बने रहते हैं।
- जबकि भारत ने दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (CRPD) की पुष्टि की है और दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम (RPwDs) को अधिनियमित किया है, इन कानूनों के प्रवर्तन एवं कार्यान्वयन में अंतराल और चुनौतियाँ बनी हुई हैं।
- अपर्याप्त राजनीतिक भागीदारी:
- राजनीतिक अवसर के मामले में दिव्यांगजनों का अपवर्जन देश में राजनीतिक प्रक्रिया के सभी स्तरों पर और विभिन्न रूपों में घटित होता है, जैसे:
- निर्वाचन क्षेत्रों में दिव्यांगजनों की सटीक संख्या पर अद्यतन समग्र डेटा का अभाव।
- मतदान प्रक्रिया की दुर्गमता (ब्रेल इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के व्यापक उपयोग का अभाव)।
- दलीय राजनीति में भागीदारी के मामले में बाधाएँ।
- राजनीतिक अवसर के मामले में दिव्यांगजनों का अपवर्जन देश में राजनीतिक प्रक्रिया के सभी स्तरों पर और विभिन्न रूपों में घटित होता है, जैसे:
संरचित वार्ता दिव्यांगता अधिकारों को बढ़ावा देने में किस प्रकार मदद कर सकती है?
- भारतीय विधिक प्रणाली में मौजूद चुनौतियों को संबोधित करना:
- भारतीय सिविल न्यायालयों में लालफीताशाही: भारतीय सिविल न्यायालयों में मामलों के लंबित होने, कागजी कार्रवाई और लालफीताशाही (Red Tape) की स्थिति पारंपरिक विवाद समाधान को हतोत्साहित करती है।
- दिव्यांगजनों के अधिकार अधिनियम, 2016: यह कानून मुख्य आयुक्त को गैर-अनुपालन की रिपोर्ट करने की अनुमति देता है, लेकिन अभिगम्यता पर इसका प्रभाव अनिश्चित है, जहाँ संरचित वार्ता प्रभावी सिद्ध हो सकती है।
- भारत में CCPD के प्रयासों को पूरकता प्रदान करना:
- PayTM मामले का उदाहरण: दिव्यांगजनों के लिये मुख्य आयुक्त (Chief Commissioner for Persons with Disabilities- CCPD) ने PayTM को अपने ऐप को सुगम बनाने का निर्देश दिया, लेकिन अनुपालन के परिणामस्वरूप इसकी दुर्गमता बढ़ गई।
- निरंतर सतर्कता की आवश्यकता: वास्तविक समय अभिगम्यता के लिये समाधानों को मान्य करने हेतु निरंतर सतर्कता और उपयोगकर्ता इनपुट की आवश्यकता होती है। संरचित वार्ताएँ इन आवश्यकताओं को दूर कर सकेंगी।
- भारत में संरचित वार्ता की संभावना:
- ग़ैर-अनुपालन लेबल से बचना: संरचित वार्ता PayTM जैसे सेवा प्रदाताओं को गैर-अनुपालन से जुड़ी शर्मिंदगी से बचने में मदद कर सकती है।
- दिव्यांगजनों की प्रत्यक्ष भागीदारी: यह दिव्यांगजनों को प्रत्यक्ष रूप से सेवा प्रदाताओं को संबोधित करने और सुधारों के कार्यान्वयन की निगरानी करने में सक्षम बनाता है।
- भारत में व्यवसायों के लिये दिव्यांगता समावेशन को प्राथमिकता देना:
- प्राथमिकता का महत्त्व: वैकल्पिक विवाद समाधान (alternative dispute resolution) की सफलता उन सेवा प्रदाताओं पर निर्भर करती है जो दिव्यांगजनों की चिंताओं को प्राथमिकता देते हैं।
- विशाल क्रय क्षमता: व्यवसायों को दिव्यांग उपयोगकर्ताओं को प्राथमिकता देनी चाहिये ताकि उनकी उल्लेखनीय क्रय क्षमता का लाभ उठा सकें और इसमें संरचित वार्ता महत्त्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है।
- संवैधानिक अधिदेशों को बढ़ावा देना:
- राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (DPSP) के अनुच्छेद 41 में कहा गया है कि राज्य अपनी आर्थिक सामर्थ्य और विकास की सीमाओं के भीतर, काम पाने के, शिक्षा पाने के और बेकारी, बुढ़ापा, बीमारी और निःशक्तता तथा अन्य अनर्ह अभाव की दशाओं में सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त कराने का प्रभावी उपबंध करेगा।
- संविधान की सातवीं अनुसूची की राज्य सूची में ‘निःशक्त और नियोजन के लिये अयोग्य व्यक्तियों की सहायता’ निर्दिष्ट है।
- संरचित वार्ता इन दायित्वों की पूर्ति के लिये सरकारों के प्रयासों को पूरकता प्रदान करने में मदद करेगी।
दिव्यांगजनों के सशक्तीकरण के लिये प्रमुख सरकारी पहलें कौन-सी हैं?
- भारत में:
- विशिष्ट निःशक्तता पहचान पोर्टल (Unique Disability Identification Portal)
- सुगम्य भारत अभियान (Accessible India Campaign)
- दीनदयाल दिव्यांग पुनर्वास योजना (DeenDayal Disabled Rehabilitation Scheme)
- दिव्यांगजनों के लिये सहायक यंत्रों/उपकरणों की खरीद/फिटिंग में सहायता की योजना (Assistance to Disabled Persons for Purchase/fitting of Aids and Appliances)
- दिव्यांग छात्रों के लिये राष्ट्रीय फैलोशिप (National Fellowship for Students with Disabilities)
- वैश्विक स्तर पर:
- एशिया और प्रशांत क्षेत्र में दिव्यांगजनों के लिये ‘अधिकारों को साकार करने’ हेतु इंचियोन कार्यनीति (Incheon Strategy to “Make the Right Real” for Persons with Disabilities in Asia and the Pacific)।
- यह एशिया-प्रशांत क्षेत्र में दिव्यांगजनों के अधिकारों और कल्याण को आगे बढ़ाने के उद्देश्य से की गई पहल है।
- इस रणनीति का नाम इंचियोन (दक्षिण कोरिया) के नाम पर रखा गया है, जहाँ इसे दिव्यांगजनों के एशियाई और प्रशांत दशक 2003-2012 के कार्यान्वयन की अंतिम समीक्षा पर आयोजित उच्च स्तरीय अंतर-सरकारी बैठक के दौरान अंगीकार किया गया था।
- दिव्यांगजनों के अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (United Nations Convention on Rights of Persons with Disability)।
- अंतर्राष्ट्रीय दिव्यांगजन दिवस (International Day of Persons with Disabilities)
- दिव्यांगजनों के लिये संयुक्त राष्ट्र सिद्धांत (UN Principles for People with Disabilities)
- एशिया और प्रशांत क्षेत्र में दिव्यांगजनों के लिये ‘अधिकारों को साकार करने’ हेतु इंचियोन कार्यनीति (Incheon Strategy to “Make the Right Real” for Persons with Disabilities in Asia and the Pacific)।
- वैकल्पिक विवाद समाधान पद्धति के रूप में संरचित वार्ता की प्रभावकारिता, विशेष रूप से दिव्यांगता अधिकार मामलों को संबोधित करने के संबंध में, अतिरंजित नहीं की जा सकती है। दिव्यांगजनों के लिये अभिगम्य वातावरण को बढ़ावा देने में इसकी सफलता, जैसा कि प्रमुख निगमों से जुड़े उल्लेखनीय मामलों से प्रकट होता है, पारंपरिक वादों की तुलना में इसके अधिक व्यावहारिक लाभों को उजागर करती है। हेलेन केलर (Helen Keller) के शब्दों में कहें तो ‘आशावाद उपलब्धि की कुंजी है’ और भारत में बड़े पैमाने पर संरचित वार्ता की व्यवस्था करना अधिक समावेशी एवं अभिगम्य भविष्य की दिशा में एक सामयिक और अनिवार्य कदम है।
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