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सांस्कृतिक जागरण, समेकन और एकात्मकता ही राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध के प्रमुख आधार हो सकते हैं! - श्रीनारद मीडिया

सांस्कृतिक जागरण, समेकन और एकात्मकता ही राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध के प्रमुख आधार हो सकते हैं!

सांस्कृतिक जागरण, समेकन और एकात्मकता ही राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध के प्रमुख आधार हो सकते हैं!

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✍️गणेश दत्त पाठक

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

विचार गोष्ठी में संवाद विचारों को तराशते हैं, निखारते है, सहेजते हैं, संवारते हैं। तथ्यों को स्पष्ट करते हैं, समस्याओं की समझ सृजित करते हैं, वैचारिक आयाम के दायरे को विस्तृत करते हैं, उसे तार्किक कलेवर प्रदान करते हैं। रविवार को विजयहाता स्थित महावीरी सरस्वती विद्या मंदिर में आयोजित एक विचार गोष्ठी में भागीदारी ने बहुत कुछ सोचने को प्रेरित किया। गोष्ठी के मुख्य वक्ता प्रज्ञा प्रवाह के क्षेत्रीय संयोजक श्री रामाशीष सिंह जी थे। लेकिन विचार गोष्ठी में मैंने यहीं महसूस किया कि सांस्कृतिक जागरण, समेकन और एकात्मकता के भाव के अंगीकरण के प्रयास ही राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध के आधार हो सकते हैं।

परंपरागत दीप प्रज्जवलन के बाद अतिथियों का परिचय प्रोफेसर रविंद्र पाठक ने कराया। विषय प्रवेश कराते हुए प्रोफेसर अशोक प्रियम्बद ने इस तथ्य पर मार्गदर्शन की आकांक्षा जताई कि राष्ट्रीय अस्मिता के जागरण की जगह क्षेत्रीय अस्मिता का जागरण कहीं ज्यादा प्रभावी रहा अपने देश में। प्रज्ञा प्रवाह के क्षेत्रीय संयोजक श्री रामाशीष सिंह ने अपने सारगर्भित उद्बोधन में राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध के संदर्भ में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पांच प्रण का संदर्भ लिया।

जिसमें विकसित भारत के लक्ष्य, गुलामी के हर अंश से मुक्ति, अपनी विरासत पर गर्व, एकता और एकजुटता, नागरिकों में कर्तव्य की भावना के तथ्यों का उल्लेख किया और बेहद सहज अंदाज में राष्ट्रीय अस्मिता के स्व बोध के तथ्यों को स्पष्ट करने का प्रयास किया।

विचार गोष्ठी के एक श्रोता के तौर पर मुझे इतना ही समझ आया कि राष्ट्र का संबंध भावना से हैं, आत्मा से है, संवेदना से है, संचेतना से है, सजगता से है, जो अपनी संस्कृति पर गर्व का आधार बनता है। यहीं सांस्कृतिक जागरण ही सकारात्मक ऊर्जा को सृजित करती है।

सांस्कृतिक तौर पर जागृत समाज ही राष्ट्रीय संवेदना के तत्व को अंगीकार कर पाता है। सांस्कृतिक जागरण ही विविधता के आयाम को संयोजित करने का आधार बनती है। सर्व भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना हमारी संस्कृति की पहचान रही है। हमारी सभ्यता की शाश्वत आधारशिला रही है।

स्नेह का बुनियादी तत्व ही हमारी सभ्यता की पहचान को प्रतिपादित करता रहा है। शायद यहीं कारण रहा कि सदियों से भारतीय सभ्यता और संस्कृति की शाश्वत प्रकृति दुनिया के लिए आश्चर्य का विषय रही है। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन के संकट के दौर में हमारी सांस्कृतिक शाश्वत विचारधारा एक आशा की किरण के तौर पर प्रस्फुटित होती दिखाई दे रही है।

एकात्मकता के भाव ने हमारे समेकित संस्कृति को समय के साथ प्रासंगिक बनाने के प्रयास किए हैं। एकात्मकता के तत्व का संचार ही हमारी संस्कृति के लिए संजीवनी बूटी रही है। आज यद्यपि हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हैं लेकिन राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध का सवाल कभी कभी ही चिंतन का विषय बन पाता है। जब चिंतन होता भी है तो मंथन का दायरा बेहद संकीर्ण मानसिकता के जद में आ जाता रहा है।

व्यापक और सारगर्भित वैचारिक आयाम ही एकात्मकता के भाव का संचार कर पाते हैं। इसलिए राष्ट्रीय अस्मिता के स्वबोध के लिए सांस्कृतिक जागरण, समेकन और एकात्मकता के भाव के संचार की नितांत आवश्यकता है। समस्या पर चिंतन हो जरूर लेकिन समाधान संदर्भित मंथन हो तो परिणाम बेहद शानदार ही आयेंगे। ऐसा मेरा मानना है।

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