पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पत्रकारिता में सांस्कृतिक राष्ट्रबोध.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जन्मदिवस पर विशेष
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी की पत्रकारीय दृष्टि राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण थी। पत्रकारिता वैसी होनी चाहिए जिससे राष्ट्रीय भावना को बल मिले। पत्रकारिता शुचिता पूर्ण हो इसके लिए दीनदयाल उपाध्याय ने अपने पत्रकारीय जीवन में इसका भरपूर ख्याल रखा। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी ने पत्रकारिता को अपने जीवन में एक व्यवसाय नहीं अपितु आदर्श के रूप में अपनाया था। पंडित जी सही अर्थों में संचार की शक्ति को समझते थे, इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय विचार से ओत-प्रोत मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म, साप्ताहिक समाचारपत्र पाञ्चजन्य (हिंदी) एवं ऑर्गेनाइजर (अंग्रेजी) और दैनिक समाचारपत्र स्वदेश प्रारंभ कराए।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्म 25 सितम्बर 1916 ई को उनके ननिहाल में हुआ था। उनके नाना पंडित चुन्नीलाल शुक्ल जी राजस्थान के धनकिया नामक ग्राम में रहते थे जो जयपुर-अजमेर रेलमार्ग पर बसा हुआ एक छोटा-सा ग्राम है। पं. चुन्नीलाल इसी ग्राम के रेलवे स्टेशन पर स्टेशन मास्टर के रूप में कार्यरत थे। पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी के पिता का नाम भगवती प्रसाद उपाध्याय था।
वे मथुरा जिले के फराह नामक गांव के रहने वाले थे। वे मथुरा में जलेसर मार्ग पर स्थित स्टेशन के स्टेशन मास्टर थे। पंडित जी की माता का नाम रामप्यारी देवी था। वे धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थीं। दीनदयाल जी के दादा पं. हरिराम उपाध्याय अपने समय के मथुरा के प्रकांड ज्योतिषी थे।
नियति जिसको समाज जीवन के लिए एक एक आदर्श पुरुष के रूप में गढ़ती है उसे हर तरीके से परखती है। उदाहरण स्वरूप सोने को बार बार जलाकर पिघलाया जाता है वहीं दूसरी ओर लोहे को एक बार ही जलाया जाता है। बचपन से ही उनका संचार कौशल अद्भुत था। पंडित जी के बाल्यावस्था की एक घटना है एकबार जब कुछ डाकुओं ने उनके ननिहाल में आक्रमण कर दिया और उन्ही डाकुओं में से एक डाकू ने उनकी मामी को धक्का देकर दिन दीनदयाल जी को भी जमीन में गिराकर उनकी छाती पर पैर रखकर उनके घर में उपलब्ध आभूषण की मांग की, तब दीनदयाल जी डाकू के पैर के नीचे दबे हुई अवस्था में बोले “हमने सुना था कि डाकू गरीबों की रक्षा के लिए अमीरों का धन लुटते हैं, किन्तु तुम तो मुझ गरीब को भी मार रहे हो।”
डाकू सरदार पर अबोध बालक की निर्भयता का असर हुआ, वह अपने गिरोह को लेकर चला गया। यह उनके संचार कुशलता का ही परिणाम था कि उनकी मार्मिकता पूर्ण बात का डाकू सरदार पर असर हुआ।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी सम्पूर्ण राष्ट्र में राष्ट्रबोध के जागरण करने के लिए पत्रकारिता का उपयोग करते थे। उनके आलेखों के माध्यम से तत्कालीन समय में राष्ट्र में घटित हो रही तमाम घटनाओं के राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का पता चलता है। दीनदयाल जी ने राष्ट्र को आत्मा माना है और उसे चिति नाम दिया है। इस शीर्षक से राष्ट्रधर्म मासिक पत्रिका में क्रमशः वर्ष 1947,1948 में दो आलेख भी प्रकाशित हैं।
6 अक्टूबर 1948 को मासिक पत्रिका राष्ट्रधर्म के 9 वें अंक में “राष्ट्र- जीवन की समस्याएं” शीर्षक से छपे आलेख में वे लिखते हैं “भारत में एक ही संस्कृति रह सकती है एक से अधिक संस्कृतियों का नारा देश के टुकड़े-टुकड़े करके हमारे जीवन का विनाश कर देगा। अतः आज लीग (मुस्लिम) का द्विसंस्कृतिवाद, कांग्रेस का प्रच्छन्न द्विसंस्कृतिवाद तथा साम्यवादियों का बहुसंस्कृतिवाद नहीं चल सकता।
आज तक एक- संस्कृतिवाद को सम्प्रदायवाद कहकर ठुकराया गया, किंतु अब कांग्रेस के विद्वान भी अपनी गलती समझ कर एक- संस्कृतिवाद को अपना रहे हैं। इसी भावना और विचार से भारत की एकता और अखंडता बनी रह सकती है, तभी हम अपनी संपूर्ण समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दीनदयाल जी यहां राष्ट्रीयता के भाव को विखंडित करने वाले लोगों को स्पष्ट तौर पर एक-संस्कृतिवादी होने को कह रहे हैं। कांग्रेस को भी मिश्रित गंगा जमुनी तहजीब के नाम पर आड़े हाथों लिया है तथा कांग्रेस में संस्कृतिनिष्ठता के जरिए राष्ट्रबोध में परिवर्तन की बात भी करते हैं।
इसी आलेख में पंडित जी आगे लिखते हैं “संस्कृति किसी काल विशेष अथवा व्यक्ति, विशेष के बंधन से जकड़ी हुई नही है!अपितु यह तो स्वतंत्र एवं विकासशील जीवन की मौलिक प्रवृत्ति है। इस संस्कृति को ही हमने धर्म कहा है। अतः जब कहा जाता है कि भारत धर्मप्रधान देश है मजहब मत या रिलीजन नहीं, किंतु यह संस्कृति ही होता है।”पंडित जी भारतीय संस्कृति को विशेष महत्व देते हैं। भारतीय संस्कृति का गौरवशाली अतीत हममें गौरव का बोध कराते हैं।
इसी आलेख में “भारत की विश्व को देन” नामक उपशीर्षक युक्त पैराग्राफ में लिखते हैं “भारत की आत्मा को समझना है तो उसे राजनीति अथवा अर्थनीति के चश्मे से न देखकर सांस्कृतिक दृष्टिकोण से देखना ही होगा। भारतीयता की अभिव्यक्ति राजनीति के द्वारा न होकर उसकी संस्कृति के द्वारा होगी।” पंडित जी यहां भारतीयता की अभिव्यक्ति को संस्कृति द्वारा समझने की बात कर रहे हैं। यदि भारत में एक संस्कृति और एक राष्ट्र को मानना है तो वह भारतीय संस्कृति एवं भारतीय हिन्दू राष्ट्र, जिसके अंतर्गत मुसलमान भी आ जाते हैं, के अतिरिक्त कोई हो भी नहीं सकता। पंडित जी यहां यह भ्रम दूर करते है कि हमारे भारतीय हिन्दू राष्ट्र में मुसलमानों के लिए कोई जगह नही है।
भारतीय संस्कृति को मानने वाले को वे भारतीय राष्ट्रबोध से जुड़ा मानते हैं। पंडित जी संस्कृति को राष्ट्रबोध का महत्वपूर्ण तत्व मानते हैं। संस्कृति भारत की आत्मा होने के कारण वे भारतीयता की रक्षा एवं विकास कर सकते हैं। शेष सब तो पश्चिम का अनुकरण करके या तो पूंजीवाद अथवा रूस की तरह आर्थिक प्रजातंत्र तथा राजनीतिक पूंजीवाद का निर्माण करना चाहते हैं। अतः आज की प्रमुख आवश्यकता तो यह है कि एक संस्कृतिवादियों के साथ पूर्ण सहयोग किया जाए तभी हम गौरव और वैभव से खड़े हो सकेंगे। तभी हम भारत विभाजन जैसी भावी दुर्घटना को रोक सकेंगे।
दीनदयाल जी का भारतीयत्व ही यहां राष्ट्रबोध की व्याख्या कर रहा है। भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना का विकास हो इसलिए वह राष्ट्र के अतीत के गौरव और वैभव की चर्चा करते हैं। उनके आलेखों, पत्रकारीय कर्म, उद्बोधन एवं लेखन में राष्ट्रबोध के विविध तत्वों के साक्षात् दर्शन होते हैं। उनका मुख्य जोर राष्ट्र की सांस्कृतिक अवधारणा के उद्दीपन एवं राष्ट्रधर्म के पालन पर रहा है अतएव उनकी पत्रकारिता राष्ट्रबोध की पत्रकारिता थी। राष्ट्रबोध के तत्वों जिनमे राष्ट्र संस्कृति, राष्ट्र चेतना राष्ट्रीय एकता समाहित है। यहां स्मरण रखने योग्य बात यह है कि वह राष्ट्रनिष्ठ विचार की पत्रकारिता के पुरोधा अवश्य थे, लेकिन कभी भी संपादक या संवाददाता के पद पर नहीं रहे।
दीनदयाल जी को सही मायनों में राष्ट्रीय पत्रकारिता का पुरोधा कहा जा सकता है। उन्होंने हमारे राष्ट्र में उस समय राष्ट्रनिष्ठ पत्रकारिता की पौध रोपी थी, जब पत्रकारिता पर साम्यवादियों का प्रभुत्व अत्यधिक था। यह वह दौर था जब स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत पत्रकारिता का कोई निर्धारित लक्ष्य नहीं था।
वामपंथियों के प्रभाव के कारण राष्ट्रीय विचारधारा को संचार माध्यमों में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो पा रहा था, बल्कि राष्ट्रनिष्ठ विचार के विरुद्ध नकारात्मकता को अधिक प्रसारित किया जा रहा था। देश को उस समय पत्रकारिता एवं संचार माध्यमों में ऐसे सशक्त विकल्प की आवश्यकता थी, जो कांग्रेस और कम्युनिस्टों से इतर दूसरा पक्ष भी जनता को बता सके।
सादगी से जीवन जीने वाले इस महापुरुष में राजनीतिज्ञ, संगठन शिल्पी, कुशल वक्ता, समाज चिंतक, अर्थचिंतक, शिक्षाविद्, लेखक और पत्रकार सहित कई प्रतिभाएं समाहित थी।
आभार- नवीन कुमार तिवारी,शोध छात्र, मीडिया विभाग
महात्मा गाँधी केन्द्रीय विश्वविधालय,मोतिहारी ,बिहार
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