दयानंद, विवेकानंद व अरविंद ने देश का स्व स्वत्व और स्वातंत्र्य से वैचारिक साक्षात्कार करवाया-प्रो. संजीव कुमार शर्मा
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
अनेकानेक समतुल्य महत्वपूर्ण योगदान तथा सर्वस्व बलिदान देने वाले व्यक्तियों की अनायास उपेक्षा हुई है। यह भी सत्य है कि संपूर्ण राष्ट्रीय आंदोलन को एक राजनीतिक मंच की क्रमिक विकास-यात्रा का पर्याय बनाने के प्रयत्नों ने भी समकालीन भारत के वैचारिक अधिष्ठान को पर्याप्त रूप से दिग्भ्रमित किया है। परिणामस्वरूप अनेक बार जाने-अनजाने हमारे अकादमिक तथा विद्वत समुदाय ने भी न्याय, समानता, बंधुत्व और भ्रातृत्व के सिद्धांतों के आडंबरों में छिपाई गई औपनिवेशिक शासन की क्रूरता, अमानवीयता और नियोजित वंचन को राजनीतिक स्वातंत्र्य के सामने उपेक्षणीय मान लिया।
हमारे शैक्षणिक संस्थानों में यह विश्वास सुदृढ़ कर दिया गया कि एक विपन्न, अशिक्षित, अनेकश: विभाजित तथा सामर्थ्यहीन भौगोलिक क्षेत्र को एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में विश्व-यात्रा करने का अवसर ब्रिटिश साम्राज्यवाद की नैसर्गिक उदारता का प्रतिफल है। इसका एक महत्वपूर्ण कारण हमारे विद्वत समाज में दृढ़ीकृत भावना है जो आत्मग्लानि, आत्महीनता और आत्मविस्मृति से उत्पन्न हुई है। हमने समकालीन भारत की स्वातंत्र्योत्तर काल से अद्यतन आर्थिक दशा का आकलन करते समय जिन महत्वपूर्ण तथ्यों की नियमित उपेक्षा की है, उनमें कुछेक ध्यातव्य हैं। अंग्रेजी शासन ने भारतवर्ष की स्थानीयताओं को विषमताएं निरूपित किया, विभिन्न विविधताओं को विरोध कहा, विमर्श को विवाद समझाया।
भारतीय दर्शन को धार्मिकता जाना, रचनात्मकता को पारंपरिकता तो साहित्य को प्रगति विरोधी कहा। भारत की भाषाओं को अविकसित और कौशल को अंधविश्वास कहा, पुरातन शिक्षा पद्धति को जड़ बताया और ग्रामीण कुटीर उद्योगों को पिछड़ापन कहा। सामाजिक समरसता में विषसंचरण किया। समस्त भारतीय सांस्कृतिक वैभव और ज्ञान-परंपरा के प्रति एक अनादर और तिरस्कार की भावना का सुनियोजित प्रसार किया। भारतवर्ष के ग्रामीण समाजों की विशद स्वावलंबन की सहज प्रवृत्ति को क्रमश: विनष्ट किया और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में मौलिकता और नवाचारी चिंतन की धाराओं को सप्रयास अवरुद्ध किया।
अभिकथन का स्वर्णिम अवसर
इस परिप्रेक्ष्य में भारत की राजनीतिक स्वतंत्रता के 75 वर्ष की सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, संवैधानिक और राजनीतिक यात्रा के प्रस्थान बिंदुओं और उनकी पूर्वपीठिकाओं पर सम्यक समालोचनात्मक दृष्टिपात अपरिहार्य हो गया है। अलक्षित नायकों और अवर्णित पूर्वपुरुषों, उपेक्षित प्रयासों और अनादृत उत्सर्गों, अपठित रचनाओं और अदृश्य मूर्तियों तथा अव्यक्त आख्यानों और असूचित विवरणों का अवगाहन, अवलोकन और अभिकथन करने का यह स्वर्णिम अवसर है।
आजादी का अमृत महोत्सव इस अनोखे वातायन को भारतीयता के स्वाभिमान, स्वातंत्र्य और स्वावलंबन के अंत:सलिल समीरों से सम्यक संयुक्त करने का सुअवसर है। यह संकुचित विचार समूहों के कृत्रिम आभामंडलों में विस्मृत और विलुप्त मूर्तियों की धूल हटाने और समाज के आत्मगौरव को जगाने का शंखनाद है।
स्वाभिमान के संवाहक दयानंद
आधुनिक भारत का सुसुप्त भारतीय समाज से सार्थक और समर्थ साक्षात्कार कराने में संलग्न और सन्नद्ध पूर्वपुरुषों में यह सुदृढ़ विश्वास था कि भारत अपने सांस्कृतिक वैशिष्ट्य और ज्ञान-संयुक्त वैभव से ही विलक्षण और शाश्वत परंपरा की ज्योति को बचाए रखने में समर्थ रहा है। ऋषि दयानंद भारतीय वैदिक परंपरा की सार्वकालिक विद्या की शक्ति को भविष्य के भारत की असंदिग्ध वरेण्यता से संबद्ध करते हैं।
शास्त्रार्थ की सुदीर्घ और सुदृढ़ परंपरा के आधुनिक भारत के सर्वाधिक सामथ्र्यवान संवाहक के रूप में दयानंद भारतीय आध्यात्मिक स्वातंत्र्य, वैचारिक स्वावलंबन और सहज स्वाभिमान का सशक्त बीजारोपण और देशांतर में गुंजायमान शंखनाद भी करते हैं। भारतीयता का प्रारंभिक चिह्न वेदों को मानने वाले स्वामी दयानंद की दृष्टि अकादमिक विमर्श तक सीमित न रहकर समाज और भविष्य निर्माण तक विस्तारित थी और उनकी दार्शनिक बौद्धिक व्यावृत्ति हमें तत्वत: वैश्विक स्वामी विवेकानंद की विचार-भूमि में स्पष्टत: परिलक्षित होती है।
पराधीनता का प्रतिकार करने की ऊर्जा स्वामी दयानंद के अनुसार, स्वाभिमान से ही प्राप्त होती है और यह स्वाभिमान आत्म-परिचय और राष्ट्र-परिचय से उद्भूत होता है। यही आत्मिक और नैतिक स्वावलंबन का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। यही भारत की स्वतंत्रता का मूलमंत्र हो सकता है। इसीलिए भारतीय वैदिक परंपरा में निष्णात दयानंद की शास्त्रार्थ क्षमता और दूरदृष्टि भारत के वृहद समाज को चारित्रिक परिवर्तन और आचरणगत उन्नति की ओर ले जाने में समर्थ हुई।
विवेकानंद ने जागृत किया श्रेष्ठ भाव
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सर्वोत्कृष्ट आध्यात्मिक प्रतिनिधि और सांस्कृतिक-धार्मिक दर्शन के सर्वाधिक सशक्त अधिवक्ता के रूप में स्वामी विवेकानंद अतुलनीय हैं। वे पराधीन भारत के वृहद समाज में स्वाभाविक स्वाभिमान के संचार का महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु भी सिद्ध होते हैं। संभवत: स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व से जिस वैश्विक गुरुत्व की स्वप्न-यात्रा पर ले जाते हैं वैसा किसी और भारतीय विचारक द्वारा संभव न हो सका।
यह श्रेष्ठ-भाव अहं तुष्टि अथवा उच्चभिमान कदापि नहीं था वरन विश्व-दृष्टि-संपन्न कल्याण-भाव था जो मानवमात्र के भेद की कामना से परिपूर्ण था। अत: भारत के विश्व गुरु होने की सामथ्र्य का उद्घोष था, तो साथ ही भारत की मेधा से अपनी संपूर्ण जिजीविषा के साथ उठ खड़े होने का आग्रह भी था। उपनिषद के एक वाक्यांश ‘उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत’ को समस्त भारतीय युवा समुदाय का शताब्दी से भी अधिक समय तक उत्साह-मंत्र बना देने की अकल्पनीय शक्ति स्वामी विवेकानंद में ही थी।
स्वामी विवेकानंद दरिद्रनारायण के प्रति समानुभूति का भाव ही प्रकट नहीं करते अपितु वैश्विक वर्चस्वों से संगठनबद्ध संघर्ष की शृंखलाओं से मुक्ति हेतु क्रांति आह्वान भी करते हैं। स्वामी विवेकानंद की वेदांत-दृष्टि वस्तुत: वृहद सामाजिक आर्थिक रूपांतरण की आधारभूमि प्रदान करती है। साथ ही समस्त भारतवासियों में स्वत: स्फूर्त आत्मगौरव का सुखद विस्तार भी करती है। यही स्वाभिमानी समाज परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर संपूर्ण स्वाधीनता के मार्ग में आत्मविश्वास से परिपूर्ण होकर विजय-यात्रा प्रारंभ कर सकेगा।
इस प्रकार स्वामी विवेकानंद की विचार-सरणि भी भारत के स्वाभिमान की स्वातंत्र्य से स्वावलंबन की पथगामिनी है। नवभारत हेतु स्वामी विवेकानंद का शंखनाद भारत की आत्मा का जागरण है। वह भारतीयता का स्व से, स्वत्व से और स्वातंत्र्य से साक्षात्कार है।
स्वातंत्र्य विचार के सूत्रधार अरविंद
यह भी सुखद संयोग है कि भारतीय सांस्कृतिक स्वाभिमान और संपूर्ण स्वातंत्र्य से सार्वकालिक स्वावलंबन के मार्ग में दिशा-प्रदीप्ति के दायित्व को स्वत: स्वीकार करने वाले महापुरुषों में श्री अरविंद सार्वजनीन समर्थ सिद्ध होते हैं। अपनी अकादमिक सामर्थ्य, वैचारिक प्रांजलता, अविस्मरणीय विदग्धता, अकल्पनीय निर्भीकता, असंदिग्ध भारतीयता, स्पृहणीय विद्वत्ता, अद्भुत प्रगल्भता और अकाट्य तार्किकता से सर्वथा चमत्कृत और विस्मित करने वाले श्री अरविंद राजनीतिक सजगता और आध्यात्मिक उत्कर्ष की प्रतिमूर्ति हैं।
श्री अरविंद राष्ट्रीय आंदोलन में भारतीय स्वाभिमान के प्रतीक और स्वातंत्र्य विचार के सूत्रधार के रूप में उपस्थित होते हैं। श्री अरविंद भारत के अतीत को विभिन्न पाश्चात्य और पौर्वात्य सभ्यताओं के समक्ष तुलनात्मक रूप में प्रस्तुत करते हुए भारतीय सभ्यतामूलक शक्तियों और विशिष्टताओं को रेखांकित करते हैं। श्री अरविंद हिंदू धर्म ग्रंथों, पुराण, उपनिषद, श्रीमद्भगवद्गीता आदि पर साधिकार व्याख्या और टिप्पणी करते हुए विश्व के अन्य महान विचारकों के तर्कों और दृष्टिकोणों का विशद और गहन बौद्धिक परीक्षण करते हैं। तदनंतर श्री अरविंद भारत की विश्व का नेतृत्व करने की क्षमता का आकलन करते हैं।
भारतीय समाज, संस्कृति, परंपरा, ज्ञान, शिक्षा, विचार, प्रकृति, सभ्यता आदि पर सुसंगठित तथा स्पष्ट विचार रखते हुए श्री अरविंद भारत की अपरिहार्य जागृति और भाग्योदय का न केवल स्वप्न देखते हैं अपितु सारे विश्व को आलोकित करने की भारत की असंदिग्ध सामर्थ्यथ्र्य का तूर्यनाद भी करते हैं।
इनका स्मरण हमारा नैतिक दायित्व
आजादी का अमृत महोत्सव मनाते समय आधुनिक भारत की आत्मा के जागरण में इस बौद्धिक एवं कर्मयोगी त्रिमूर्ति का स्मरण हमारा नैतिक दायित्व भी है और सामाजिक आवश्यकता भी। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव को राजकीय आयोजनों के साथ-साथ बौद्धिक विमर्श तथा ऐतिहासिक आत्मावलोकन की ओर ले जाने के प्रयत्नों में यह एक अति महत्वपूर्ण पद-सोपान सिद्ध होगा।
अमृत महोत्सव भारत के पुनर्जागरण का सूर्योदय है। भारत की आत्मा का विराट और विस्तीर्ण प्रकटीकरण है। भारतीयता की वैश्विक स्वीकृति है। भारत के संकल्पों की विस्तृत स्वीकार्यता है। यह भारत का क्षण है। यह भारत की पुन: उपस्थिति की पदचाप है। यह भारत की पुनरुत्थान यात्रा का घोष-नाद है।
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