भारत आए विदेशी यात्रियों के विवरण अयोध्या निर्णय में अहम साबित हुए थे,कैसे?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
- 9 नवम्बर 2019 को एक अंग्रेज़ी अख़बार में एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिससे पता चला कि — किस प्रकार विदेशी यात्रियों के विवरण कभी-कभी इतिहास को बदल देते हैं। उक्त लेख में बताया गया कि — तीन विदेशी यात्रियों के यात्रा-विवरण अयोध्या निर्णय में महत्वपूर्ण साबित हुए।
- ये थे —1743 में भारत आए जेसुइट पादरी टिफ़ेन्थलर जो भारत में 27 साल तक रहे। 1608 में भारत आए विलियम फ़िन्च, जिन्होंने अयोध्या का भ्रमण किया था। और 1900 सदी के मध्य में राबर्ट मान्टगोमरी मार्टिन, जिन्होंने अयोध्या का भ्रमण किया था।
पिछले चौबीस सौ सालों में कितने ही विदेशी यात्री आए और उनके यात्रा वृत्तांतों से भारत के इतिहास और समाज के संबंध में अमूल्य जानकारी मिली है। यह ज़रूर है कि —इन यात्रियों ने अपनी रुचि की बातों का ज़िक्र किया है। अगर फाहियान और ह्वेनसांग को बौद्ध धर्म में रुचि थी तो अलबरूनी को भारत के धर्म-दर्शन और बर्नियर और मनूसी को मुग़ल दरबार की घटनाओं में दिलचस्पी थी। आइए, जानते हैं इन यात्रियों के बारे में…
फाहियान और बौद्ध धर्म
चीनी यात्री फाहियान को भारत मेें प्रचलित बौद्ध धर्म को जानने की और बौद्ध धर्मग्रंथों को पढ़ने की जितनी गहरी ललक थी, उसके जैसा दूसरा उदाहरण दुनिया में नहीं मिलता। उन्होंने 399 से 412 ई. तक का समय भारत की यात्रा में बिताया।
चीन के राजा मिंग ती ने एक दल भारत भेजा था। यह दल अपने साथ एक भारतीय विद्वान काश्यप मातंग को लेकर आया था। उसके बाद भारत से एक अन्य विद्वान धर्मारण्य चीन गए। इन दोनों विद्वानों ने ही चीन में बौद्ध धर्म की नींव रखी थी। इसके बाद पांचवीं सदी में भारतीय विद्वान कुमारजीव और छठवीं सदी में परमार्थ चीन गए। फाहियान इन्हीं के शिष्य थे। फाहियान का मक़सद सिर्फ़ भारत में प्रचलित बौद्ध धर्म की जानकारी लेना था, इसलिए उन्होंनेे वे ही स्थान देखे जो बुद्ध के जीवन से जुड़े थे या बौद्ध धर्म की उपासना के केंद्र थे। इसलिए उनके वृत्तांतों में भारत के जनजीवन का ज़्यादा वर्णन नहीं है। फिर भारत के बारे में लिखी कुछ बातों का उल्लेख किया जा सकता है।
जैसे फाहियान ने भारत के बारे में लिखा —
‘इस क्षेत्र का मौसम एक-सा है। रहने वाले सम्पन्न और सुखी हैं, राजा न्याय करता है और शारीरिक दण्ड नहीं देता, बल्कि अपराधी पर अपराध के अनुसार जुर्माना लगाया जाता है। यहां तक कि अपराधी विद्रोह उकसाने का भी दोषी पाया जाता है तो उसे मौत की सज़ा न देकर उसका दायां हाथ काटा जाता है। इस देश के लोग किसी जीवित प्राणी का वध नहीं करते, न वे शराब पीते हैं न प्याज़ खाते हैं और न लहसुन। वे जीवित जानवरों का व्यापार नहीं करते, न ही बाज़ारों में कसाई की या शराब की दुकानें हैं। व्यापार में वे पैसे के लिए कौड़ियों का इस्तेमाल करते हैं।’
फाहियान के वृत्तांतों में कपिलवस्तु, लुम्बिनी और वैशाली का जिस प्रकार का वर्णन मिलता है, उससे पता चलता है कि इधर भारत में बौद्ध धर्म का महत्व कम होना शुरू हो गया था।
ह्वेनसांग और नालंदा
चीनी यात्री ह्वेनसांग ने फाहियान के क़रीब दो सौ साल बाद 630 ई. और 643 ई. के मध्य भारत का भ्रमण किया। ह्वेनसांग ने बहुत-सी राजनैतिक घटनाओं के विवरण दिए हैं, विशेष रूप से सम्राट हर्षवर्द्धन के। उनके द्वारा लिखे संस्मरणों में महत्वपूर्ण है उस समय के लोगों के रहन-सहन और जीवन का ब्योरा।
ह्वेनसांग लिखते हैं कि —
‘भारतीय दिल के साफ़ और भोले-भाले होते हैं। वे ग़लत ढंग से धन प्राप्त करने का प्रयास नहीं करते। जो न्यायपूर्ण मांग होती थी उससे ज़्यादा ही देने के लिए वे तैयार रहते हैं। वे अपने पापों के कारण दूसरे लोक में कष्ट झेलने से डरते थे। वे धोखाधड़ी नहीं करते और अपने वचन का पालन करते हैं।’
ह्वेनसांग ने नालंदा विश्वविद्यालय को अपने वृत्तांतों में अमर कर दिया है। ह्वेनसांग लिखते हैं कि दुनिया भर के छात्र यहां अध्ययन करते थे और कई देशों के शासक भवनों के लिए दान करते हैं। विश्वविद्यालय परिसर में 10 मंदिर थे और अनगिनत कक्षाएं, ध्यानकक्ष, छात्रावास आदि थे। 10 हजार छात्र, 2000 अध्यापक थे और 90 लाख पाण्डुलिपियां थीं। वहां छात्र वेद, तर्कशास्त्र, व्याकरण दर्शन चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, विधि, नगरनियोजन, अथर्ववेद और सांख्य का अध्ययन करते थे। चीन लौटते समय ह्वेनसांग 657 बौद्ध पाण्डुलिपियां, जो ज़्यादातर महायान पंथ की थीं, अपने साथ चीन ले गए थे।
इत्सिंग की 56 किताबें
एक और चीनी विद्वान इत्सिंग ह्वेनसांग के लौटने के क़रीब पैंतीस साल बाद भारत पहुंचे। वे दस साल भारत में रहे और बोधगया, नालंदा, राजगृह, वैशाली, कुशीनगर, सारनाथ और कुक्कुटगिरि की यात्राएं कीं। नालंदा विश्वविद्यालय के अध्यापकों से उन्होंने संस्कृत और पाली में लिखे गए बौद्ध ग्रंथों का अध्ययन किया और अनेक बौद्ध ग्रंथों का चीनी में अनुवाद भी किया।
इत्सिंग लिखते हैं कि —
‘उत्तर भारत और सुमात्रा, जावा आदि में मुख्यतः हीनयान का प्रचार है जबकि चीन और मलय द्वीपों में महायान का प्रचार है।’
उन्होंने 691 ई. में अपना प्रसिद्ध ग्रंथ ‘भारत और मलय द्वीपसमूह में प्रचलित बौद्ध धर्म का विवरण’ लिखा।
इब्नबतूता और सतीप्रथा
1304 में पैदा हुए इब्नबतूता ने अपने जीवन के तीस बरस घुमक्कड़ी में लगाए। उत्तर अफ्रीका स्थित टेन्जियर शहर के इस निवासी ने दुनिया के ज़्यादातर देशों की सैर की। उसने अपनी यात्रा का जो वृत्तांत लिखा, वह ‘रेहला’ नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इब्नबतूता लिखता है कि —
‘वह जब दिल्ली पहुंचा तब सुल्तान मुहम्मद तुगलक का शासन था। सुल्तान ने इब्नबतूता को 5000 दीनार सालाना की आमदनी वाला गांव दिया, दस बांदियां दीं, शाही अस्तबल से पूरी तरह सजा हुआ एक घोड़ा दिया और 5000 दीनार और दिए। इसके अलावा उसे 12000 दीनार सालाना तनख़्वाह पर दिल्ली का काजी बना दिया गया। एक साल की तनख़्वाह पेशगी दी गई और 12000 दीनार अतिरिक्त दिए गए।’
इब्नबतूता ने सल्तनत की कई घटनाओं का ब्योरा दिया है जैसे, रजि़या सुल्तान की मौत कैसे हुई, सुल्तान मुहम्मद तुगलक द्वारा दिल्ली से देवगिरि को राजधानी किस प्रकार लाया गया। अपनी पुस्तक में उसने मालवा के धार के पास के अमझेरा शहर में होने वाली सती का आंखों देखा ब्योरा दिया है। यह विवरण दिल दहलाने वाला है। उस ज़माने में सती प्रथा आम थी और पूरे देश में इसका प्रचार था, ख़ासकर राजपूताना और बुंदेलखण्ड में। लेकिन सती होने का उस ज़माने का यह एक मात्र आंखों देखा ब्योरा है।
दिल्ली में टॉमस रो
टाॅमस रो 1614 में इंग्लैंड की संसद का सदस्य हो गया था। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के आग्रह पर इंग्लैंड के राजा जेम्स ने टाॅमस रो को राजदूत के रूप में उस समय के मुग़ल बादशाह जहांगीर के पास भेजा। आगरा मेंं उसने बादशाह जहांगीर से मुलाकात की।
आगरा मेंं टाॅमस रो ने जहांगीर से मुलाकात की, जिसका रोचक विवरण उसने लिखा है —
‘जहांगीर को व्यक्तिचित्रों की रचना में गहरी रुचि थी और यह कलाप्रेमी मुग़ल बादशाह अपने दरबार में नियुक्त चित्रकारों के कौशल पर बहुत गर्व करता था। इस सिलसिले में टाॅमस रो एक घटना का ज़िक्र करता है कि एक बार बादशाह ने अपने एक दरबारी चित्रकार के द्वारा एक व्यक्तिचित्र की पांच प्रतिलिपियां तैयार कराईं और जब राजदूत उनमें से मूल चित्र नहीं पहचान पाया तो बादशाह बच्चों के समान प्रसन्न हुआ।’
टेवर्नियर के जवाहरात
मुग़ल बादशाहों के ज़माने में टेवर्नियर नाम का फ्रांसीसी यात्री सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में दो बार भारत आया- 1641 में और 1658 में। जवाहरातों के इस व्यापारी ने सम्राट लुई चौदहवें के कहने पर इन यात्राओं का विवरण 1676 में प्रकाशित कराया।
टेवर्नियर को सबसे ज़्यादा उसके द्वारा 116 कैरेट के टेवर्नियर ब्लू नामक हीरे की खोज और ख़रीद के लिए जाना जाता है। इसेे उसने बाद में 1668 में भारी क़ीमत लेकर फ्रांस के सम्राट लुई चौदहवें को बेच दिया था। इसकी कीमत 172 हज़ार औंस शुद्ध सोने के बराबर होती थी। पांच साल बाद लुई चौदहवें ने इसे कटवाकर 68 कैरेट का बनवा दिया। यह हीरा फ्रेंच ब्लू के नाम से मशहूर हुआ और इसे राजा ने अपने टोप के पिन के रूप में लगाया। उसके पौत्र लुई पंद्रहवें ने फिर से इसका आकार बदलवाया जो बाद में होप हीरा के नाम से मशहूर हुआ।
बनारस में बर्नियर
लगभग इन्हीं दिनों फ्रांस के एक यात्री बर्नियर ने भारत की यात्रा की। 1658 के आख़िर या 1659 की शुरुआत में वह सूरत पहुंचा था और लगभग 12 साल तक भारत में रहा। इस दौरान वह लगभग पूरा हिंदुस्तान घूमा। फ्रांस लौटकर बर्नियर ने भारत के बारे में विस्तार से लिखा है। औरंगज़ेब और दाराशिकोह की राजनीति, युद्ध जीतने के बाद औरंगज़ेब के आगरा के लाल क़िले में जाने, शाहजहां को कैद करने और भारत का बादशाह बनने का वर्णन है। इसके अलावा उस समय के भारतीयों के जीवन के दूसरे पक्षों को समझने के लिए भी उसकी पुस्तक महत्वपूर्ण दस्तावेज़ मानी जाती है। बर्नियर ने बंगाल, बनारस, आगरा, दिल्ली, सूर्यग्रहण, हाथियों की लड़ाई, पाठशालाएं, काश्मीर, कोहेनूर, तख़्ते ताऊस, आगरा और दिल्ली के क़िले, क़ैदी शाहजहां और अपने साथ जुड़े क़िस्सों के बारे में लिखा है।
बनारस के संबंध में बर्नियर लिखता है —
‘बनारस शहर गंगा नदी के किनारे बहुत सुंदर और सम्पन्न जगह पर बसा हुआ है। यह भारत का एथेंस है, जहां ब्राह्मण और दूसरे श्रद्धालु रहते हैं। ये ब्राह्मण अकेले ऐसे लोग हैं जो पढ़ाई में अपना दिमाग़ लगाते हैं। शहर में न तो कोई विद्यालय है, न लगातार चलने वाली कक्षाएं हैं, जैसा कि हमारी फ्रांस की यूनिवर्सिटी में होता है। इसके विपरीत ये हमारे पुराने समय के स्कूलों जैसे लगते हैं।’
मनूसी के मुग़ल
औरंगज़ेब जब मुग़ल सिंहासन पर बैठा तब एक अन्य विदेशी यात्री मनूसी भी भारत में था। उसने बहुत विस्तार से मुग़ल सम्राटों और उनके समय की घटनाओं के बारे में लिखा है। भारत में उस समय औरंगज़ेब दाराशिकोह को हराकर तथा अपने पिता बादशाह शाहजहां को क़ैद करके बादशाह बन चुका था।
जब शाहजहां आगरा के क़िले में क़ैद था, तब मनूसी बहुत बार आगरा के क़िले में गया था। वह लिखता है —
‘क़िले में शाहजहां छोटी-सी जगह में क़ैद था। जब भी मैं वहां जाता तो हमेशा मैं और दूसरे लोग क़िले के गवर्नर से बात करते थे। हम देखते थे कि क़िले के गवर्नर के अधीन कोई खोजा उसके कान में फुसफुसाकर शाहजहां की बातों और उसके क्रियाकलापों के बारे में बताता था। कई बार खोजा मुस्कराते हुए हम लोगों को भी अंदर की बातें बताता था। इससे भी संतुष्ट न होकर वह चेहरे पर शाहजहां के लिए तिरस्कार का भाव लाकर दिखाता था कि वह शाहजहां के साथ तुच्छ गुलाम की तरह व्यवहार करता है।
एक बार एक खोजा उसे बताने आया कि शाहजहां को एक बिना एड़ी की चप्पल की ज़रूरत है। गवर्नर ने कई जोड़ियां लाने का आदेश दिया। दुकानदाराें ने कई तरह की चप्पलें बताईं। कुछ चमड़े की थीं जिनकी कीमत आधा रुपए की थी, कुछ सादे मखमल की थीं और कुछ कढ़ाई वाऐ मखमल की थीं। कुछ आठ रुपए की थीं। शाहजहां के लिए यह बहुत मामूली बात थी। इसके बाद भी वह गहरा डंक मारना चाहता था, इसलिए उसने शाहजहां को मामूली चमड़े की चप्पल भेजी। । मुझे निश्चित ही बहुत तकलीफ़ हुई। जब शाहजहां आज़ाद था और हिंदुस्तान का बादशाह था, तो मैं उस शान शौकत को जानता था जिसमें वह रहता था। एतबार खान यानी वही खोजा गवर्नर इसी शाहजहां का पहले ग़ुलाम था, जिसे उसने औरंगज़ेब को दे दिया था।’
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