क्या मोदी ने लोकप्रियता का राजनीतिक लाभ उठाया?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

यत्र -तत्र-सर्वत्र व्याप्त मीडिया के इस युग में मोदी सरकार ने ‘हेडलाइन प्रबंधन’ की कला में महारत हासिल कर ली है। उन्हें लोगों का ध्यान भटकाना बखूबी आता है। एक देश एक चुनाव का प्रस्ताव इसी का उदाहरण है। जिस दिन अदाणी विवाद में नई सूचनाएं सामने आईं, शी जिनपिंग ने जी-20 में सम्मिलित नहीं होने का निर्णय लिया और इंडिया गठबंधन ने मुम्बई में बैठक की, उसी दिन संसद का विशेष सत्र बुलाने की घोषणा कर दी गई। इससे पहले एकल-चुनाव के विचार का परीक्षण करने के लिए समिति बनाई गई थी। ये तमाम खबरों को मैनेज करने की कलाएं हैं।

लेकिन ब्रेकिंग न्यूज की होड़ में यह भुला दिया गया है कि ठीक ऐसा ही प्रस्ताव भाजपा द्वारा पांच साल पहले भी रखा गया था। अगस्त 2018 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने विधि आयोग को पत्र लिखकर अनुरोध किया था कि वे ‘राष्ट्रहित’ में एक देश एक चुनाव पर विचार करें।

2015 में संसद की एक स्टैंडिंग कमेटी ने अनुशंसा की थी कि दो चरणों में एक साथ चुनाव कराए जाएं, वहीं नीति आयोग ने 2018 में इसके ब्लूप्रिंट को पुरजोर तरीके से प्रचारित किया था। लेकिन गैर-भाजपा पार्टियों का समर्थन नहीं मिलने के कारण बात आगे नहीं बढ़ी। तो क्या 2018 से 2023 अलग है या भाजपा पुराने एजेंडे की नई पैकेजिंग कर रही है?

एकल-चुनाव विचार को फिर से सामने रखने के पीछे चार कारण दिखलाई देते हैं। पहला तो वही जो पहले ही बता दिया है, ध्यान भटकाने और सुर्खियों में रहने की नीति। दूसरा, एक शिगूफा छोड़कर व्यापक सार्वजनिक बहस छेड़ना, क्योंकि भारत हमेशा ही चुनावी मोड में रहता है और चुनावों पर होने वाले खर्च का सवाल विशेषकर मध्यवर्ग पर असर डाल सकता है।

प्रधानमंत्री इससे पहले रेवड़ियों पर भी बहस छेड़ चुके हैं और चेता चुके हैं कि मुफ्त की सौगात बांटने की होड़ से इकोनॉमी चौपट हो जाएगी। विडम्बना है कि खुद भाजपा हर चुनाव से पहले दिल खोलकर खर्च करती है। बीते कुछ महीनों में मध्यप्रदेश सरकार ने नगद राशि बांटने की जितनी योजनाएं घोषित की हैं, उन्हें ही एक नजर देख लें। यह सच है कि चुनाव कराना सस्ता-सौदा नहीं है, लेकिन इनकी अनियंत्रित लागत का बड़ा कारण तो पार्टियों द्वारा धनबल का अनाप-शनाप प्रदर्शन करना ही है।

तीसरा कारण है मोदी की लोकप्रियता का राजनीतिक लाभ उठाना। बीते एक दशक में भाजपा ने बहुत सचेत तरीके से हर चुनाव को नेतृत्व की प्रतिस्पर्धा में तब्दील कर दिया है। मोदी के सामने कौन- यह भाजपा के चुनावों की थीम रही है।

हर चुनाव में प्रधानमंत्री की लार्जर-दैन-लाइफ छवि को यह पार्टी एक ब्रह्मास्त्र की तरह इस्तेमाल करती है। इसके बावजूद हिमाचल और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों से पता चला है कि मोदी के नाम पर चुनाव लड़ना हमेशा ही कारगर नहीं होता। दोनों ही राज्यों में सत्तारूढ़ भाजपा को कांग्रेस से हार का सामना करना पड़ा और डबल इंजिन की सरकार का नैरेटिव वहां नहीं चला। दोनों ही राज्यों में प्रधानमंत्री ने कहा था कि भाजपा को वोट देने का मतलब होगा उनके नेतृत्व में विश्वास जताना, लेकिन बात बनी नहीं।

वास्तव में 2019 के बाद से ही विधानसभा चुनावों में देखा गया है कि भाजपा-शासित राज्यों में पार्टी की जमीन कमजोर हुई है और उसे एंटी-इंकम्बेंसी का सामना करना पड़ रहा है। यही कारण है कि एकसाथ चुनाव कराने से पार्टी को अधिक प्रभावी तरीके से मोदी-कार्ड खेलने का मौका मिलेगा।

1999 से 2014 के बीच जुटाए गए चुनावी डाटा बताते हैं कि एकसाथ कराए गए चुनावों में वोटरों ने 77 प्रतिशत निर्वाचन-क्षेत्रों में केंद्र और राज्य में एक ही पार्टी को चुना है। लेकिन छह माह के अंतराल में चुनाव कराए जाने पर केवल 61 प्रतिशत वोटरों ने ही एक ही पार्टी को वोट दिया।

चौथा कारण उनके लिए परेशान करने वाला हो सकता है, जिन्हें डर है कि संविधान के मूलभूत ढांचे को बदलने के लिए गेमप्लान बनाया जा रहा है। मोदी सरकार ने अनेक अवसरों पर केंद्र-राज्य के संवैधानिक फ्रैमवर्क को बदलने की कोशिशें की हैं, जबकि प्रधानमंत्री खुद एक समय मुख्यमंत्री रह चुके हैं और यह दावा करते हैं कि वे सहभागितापूर्ण-संघवाद के समर्थक हैं।

नोटबंदी से लेकर कृषि कानून, जीएसटी से लेकर शिक्षा नीति और लॉकडाउन से लेकर हिंदी थोपने तक अनेक अवसरों पर राज्यों को महत्व नहीं देते हुए और उनके साथ सर्वसम्मति बनाए बिना निर्णय लिए गए हैं। संविधान ने राज्य सरकारों को अधिकार दिया है कि वे विधानसभा भंग करके अपनी राजनीतिक टाइमलाइन बना सकते हैं, एक देश एक चुनाव से इस स्वायत्तता में भी बाधा आती है।

नोटबंदी से लेकर कृषि कानून, जीएसटी से लेकर शिक्षा नीति और लॉकडाउन से लेकर राज्यों पर हिंदी भाषा थोपने तक अनेक अवसरों पर राज्यों को महत्व नहीं देते हुए और उनके साथ सर्वसम्मति बनाए बिना निर्णय लिए गए हैं।

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