क्या 15 करोड़ भारतीयों को मानसिक स्वास्थ्य सेवा की आवश्यकता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक महत्वपूर्ण निर्देश में सभी उच्च शिक्षण संस्थाओं को कहा है कि वे मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित हेल्पलाइन के बारे में छात्रों को अधिक जागरूक करें. वर्ष 2022 में ऐसे हेल्पलाइन टेलीफोन नंबरों की सुविधा प्रारंभ की गयी थी, जो छात्रों को मानसिक स्वास्थ्य के बारे में आवश्यक सलाह प्रदान करते हैं.
इस कार्यक्रम को निमहांस और इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इन्फॉर्मेशन एंड टेक्नोलॉजी (बेंगलुरु) के सहयोग से विकसित किया गया है. इस टेली मानस कार्यक्रम के तहत 15 से 30 साल आयु वर्ग के लोगों के औसतन हर माह नौ हजार कॉल आते हैं. इस आयु वर्ग के 2022 से एक लाख से अधिक कॉल दर्ज किये जा चुके हैं. इन आंकड़ों से दो बातें इंगित होती हैं- हेल्पलाइन कार्यक्रम प्रभावी साबित हो रहा है तथा इस आयु वर्ग में मानसिक स्वास्थ्य पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है.
यदि शिक्षण संस्थाएं इन सुविधाओं के बारे में अधिक प्रचार-प्रसार करें, तो अधिक छात्र-छात्राएं इनसे लाभान्वित हो सकते हैं. अध्ययन बताते हैं कि हमारे देश में किशोरावस्था के उत्तरार्द्ध वाले आयु वर्ग में आत्महत्या मौत का चौथा सबसे बड़ा कारण बन चुका है. वर्ष 2019 से 2021 के बीच 35 हजार से अधिक छात्रों की मौत आत्महत्या से हुई थी. वर्ष 2022 में 13 हजार छात्रों ने खुदकुशी कर ली.
उस वर्ष आत्महत्या से हुई कुल मौतों में छात्र आत्महत्या का हिस्सा 7.6 प्रतिशत रहा था. स्कूली स्तर पर भी परामर्श देने, छात्रों की जांच करने और उनकी मदद के प्रयास हो रहे हैं. लेकिन ऐसे प्रयासों और हेल्पलाइन को लेकर जागरूकता बढ़ाने की जरूरत है. इस फरवरी में आईआईटी जोधपुर द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट में रेखांकित किया गया था कि मानसिक स्वास्थ्य की समस्या का दायरा जितना बड़ा है, उसकी तुलना में प्रभावित लोगों द्वारा उसके बारे में बताने, परामर्श लेने या चिकित्सक को संपर्क करने की प्रवृत्ति बहुत ही कम है.
कम उम्र के लोगों में ऐसा संकोच अपेक्षाकृत अधिक है. ऐसे में हेल्पलाइन बहुत मददगार साबित हो सकते हैं. इस संबंध में एक बड़ी समस्या प्रशिक्षित परामर्शदाताओं और मनोचिकित्सकों की कमी भी है. वर्ष 2022 में प्रकाशित निमहांस की रिपोर्ट में बताया गया था कि लगभग 15 करोड़ भारतीयों को मानसिक स्वास्थ्य सेवा की आवश्यकता है, पर तीन करोड़ से भी कम लोग सेवा लेने के लिए तत्पर होते हैं.
इंडियन जर्नल ऑफ साइकिएट्री के अनुसार, हमारे देश में हर एक लाख रोगियों के लिए केवल 0.75 मनोचिकित्सक उपलब्ध हैं. केंद्र और राज्य सरकारों के बजट में भी इस मद में आवंटन बढ़ाने की आवश्यकता है.
मानसिक स्वास्थ्य क्या होता है?
स्वास्थ्य का ‘अर्थ मात्र रोग की अनुपस्थिति’ अथवा ‘शारीरिक स्वस्थता’ नहीं होता। इसे पूर्णरूपेण शारीरिक, मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य के रूप में परिभाषित करना अधिक उचित होगा। स्वास्थ्य शारीरिक, मानसिक तथा सामाजिकता की संपूर्ण स्थिति है। स्वास्थ्य की देखभाल हेतु मानसिक स्वस्थता अत्यंत आवश्यक है। मानसिक स्वास्थ्य का आशय भावनात्मक मानसिक तथा सामाजिक संपन्नता से लिया जाता है। यह मनुष्य के सोचने, समझने, महसूस करने और कार्य करने की क्षमता को प्रभावित करता है। मानसिक विकार में अवसाद दुनिया भर में सबसे बड़ी समस्या है। यह कई सामाजिक समस्याओं जैसे- बेरोज़गारी, गरीबी और नशाखोरी आदि को जन्म देती है।
मानसिक रोगों के विभिन्न प्रकारों के तहत अल्जाइमर रोग, डिमेंशिया, चिंता, ऑटिज़्म, डिस्लेक्सिया, डिप्रेशन, नशे की लत, कमज़ोर याददाश्त, भूलने की बीमारी एवं भ्रम आदि आते हैं। इसके लक्षण भावनाओं, विचारों और व्यवहार को प्रभावित करने की क्षमता रखते हैं। उदास महसूस करना, ध्यान केंद्रित करने की क्षमता में कमी, दोस्तों और अन्य गतिविधियों से अलग होना, थकान एवं निद्रा की समस्या आदि इसके लक्षणों के अंतर्गत आते हैं।
भारत में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति–
भारत में अगर मानसिक स्वास्थ्य संबंधी आँकड़ों की बात की जाए तो विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक, भारत की 7.5 फीसदी आबादी किसी-न-किसी मानसिक समस्या से जूझ रही है। विश्व में मानसिक और न्यूरोलॉजिकल बीमारियों की समस्या से जूझ रहे लोगों में भारत का करीब 15 प्रतिशत हिस्सा शामिल है। साथ ही भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को फंड का आवंटन भी अन्य बीमारियों की तुलना में बहुत कम है। भारत में हर दस लाख आबादी पर केवल तीन मनोचिकित्सक हैं।
कॉमनवेल्थ देशों के नियम के मुताबिक हर एक लाख की आबादी पर कम-से-कम 5-6 मनोचिकित्सक होने चाहिये। WHO के अनुमान के अनुसार, वर्ष 2020 तक भारत की लगभग 20 प्रतिशत आबादी मानसिक रोगों से पीड़ित हो जाएगी मानसिक रोगियों की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद अब तक भारत में इसे एक रोग के रूप में पहचान नहीं मिल पाई है। इसे यहाँ आज भी काल्पनिक माना जाता है और मानसिक स्वास्थ्य की पूर्णत: उपेक्षा की जाती है। लेकिन सच्चाई यह है कि शारीरिक रोगों की तरह मानसिक रोग भी हमारे स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार वर्ष 2020 तक दुनिया भर में अवसाद दूसरी सबसे बड़ी समस्या होगी।
आँकड़ों के अनुसार, भारत में 15-29 वर्ष की आयु वर्ग के लोगों की मृत्यु का सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है। वर्ष 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार, भारत में तकरीबन 1.5 मिलियन लोगों में बौद्धिक अक्षमता और तकरीबन 722,826 लोगों में मनोसामाजिक विकलांगता मौजूद है। इसके बावजूद भारत में मानसिक स्वास्थ्य पर किया जाने वाला व्यय कुल सरकारी स्वास्थ्य व्यय का मात्र 1.3 प्रतिशत है। 2011 की जनगणना के अनुसार मानसिक रोगों से ग्रस्त करीब 78.62 फीसदी लोग बेरोज़गार हैं। भारत में मानसिक रूप से बीमार लोगों के पास या तो देखभाल की आवश्यक सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं और यदि सुविधाएँ हैं भी तो उनकी गुणवत्ता अच्छी नहीं है।
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले कारक–
मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने में कई कारक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इन कारकों में समाज और परिवार की भी अहम भूमिका होती है।
व्यक्ति के मानसिक रूप से अस्वस्थ होने के कई कारण होते हैं जिनमें से प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं। कई बार आर्थिक एवं नैतिक पहलू इन कारकों के आर्विभाव में उत्तरदायी परिस्थितियों का निर्माण करते हैं-
- आनुवंशिकता
- गर्भावस्था संबंधित पहलू
- मस्तिष्क में रासायनिक असंतुलन
- मनोवैज्ञानिक कारण
- पारिवारिक विवाद
- मानसिक आघात
- सामाजिक कारण