क्या राजनीति में अब सिद्धांत और जुनून मायने नहीं रखते-शशि थरूर.

क्या राजनीति में अब सिद्धांत और जुनून मायने नहीं रखते-शशि थरूर.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जितिन प्रसाद का भाजपा से जुड़ने का फैसला, वह भी उनके ‘बड़े भाई’ ज्योतिरादित्य सिंधिया के ऐसा ही करने के एक साल बाद, बहुत निराशाजनक है। मैं बिना किसी व्यक्तिगत कड़वाहट के ऐसा कह रहा हूं। दोनों मेरे मित्र थे। इसलिए यह व्यक्तिगत पंसद-नापसंद के बारे में नहीं है। निराशा के पीछे बड़ा कारण है।

सिंधिया और प्रसाद दोनों भाजपा व सांप्रदायिक कट्‌टरपन के खतरों के खिलाफ मुखर आवाजों में शामिल थे। आज दोनों सहर्ष उस पार्टी के रंग में रंग गए, जिसे कभी बुरा कहते थे। सवाल यह है कि वे किसके लिए खड़े हैं? उनकी राजनीति को चलाने वाले मूल्य क्या हैं? या वे सिर्फ सत्ता पाने और खुद को आगे बढ़ाने की राजनीति में हैं?

मेरे लिए राजनीति का अर्थ सिर्फ विचारधारा है। राजनीतिक पार्टियां आदर्श समाज के एक विचार को अपनाती हैं और खुद को उससे जोड़े रखने की शपथ लेती हैं। यह उनकी विचारधारा होती है। जब आप राजनीति में आते हैं, तो आप पार्टी को वैसे नहीं चुनते, जैसे आप वह कंपनी चुनते हैं जो सबसे अच्छी नौकरी का प्रस्ताव दे।

आप अपनी मान्यताओं के लिए साधन चुनते हैं। राजनीति आईपीएल की तरह नहीं है, जहां आप इस साल एक फ्रेंचाइज के लिए खेलें, अगले साल दूसरी के लिए। राजनीतिक पार्टियों में सिद्धांत और दृढ़ विश्वास मुख्य मुद्दे होते हैं। आप या तो सार्वजनिक क्षेत्र के लिए अधिक दखल देने वाली भूमिका में विश्वास करते हैं या मुक्त उद्यम में। आप या तो समावेशी समाज में विश्वास रखते हैं या सांप्रदायिक रूप से बंटे हुए में। आप या कल्याणकारी राज्य बनाना चाहते हैं या चाहते हैं कि लोग अपनी व्यवस्थाएं खुद करें। एक तरफ की मान्यताएं, दूसरे में नहीं होतीं।

आईपीएल में अगर आपको किसी टीम का प्रबंधन, प्रदर्शन या कप्तान पसंद नहीं आता, तो दूसरी टीम में जाने पर कोई दोष नहीं देता। इसके विपरीत राजनीति में आप अपनी ‘टीम’ में होते हैं क्योंकि उसके उद्देश्य में आपका भरोसा है। फिर भले ही आपकी टीम का प्रदर्शन कितना ही खराब हो, उसका कप्तान आपसे कैसा भी व्यवहार करे, आप किसी और कप्तान या पार्टी को अपनी वफादारी नहीं देते, जिसके विचार आपसे विपरीत हों। ऐसा इसलिए क्योंकि आपके अपने विचार, मान्यताएं आपकी राजनीति में इतनी अंतर्निहित हैं कि आप उन्हें छोड़ नहीं सकते।

बेशक पार्टी आपके सिद्धांतों के लिए सिर्फ प्रतिष्ठित संस्थान नहीं है, बल्कि ठोस संगठन है, जिसमें लोगों के पास उनकी तमाम कमजोरियां, पूर्वाग्रहों के बावजूद जिम्मेदारी है। हो सकता है आपकी पार्टी की विचारधारा वह हो, जिसे आप मानते हैं, लेकिन वह उससे मतदाताओं को प्रभावित न कर पाती है, या इतने अप्रभावी ढंग से चल रही हो कि आपको लगने लगे कि अच्छे विचार कभी चुनाव में जीत नहीं दिला सकते।

इन कारणों से आपकी पार्टी छोड़ने की इच्छा हो सकती है। लेकिन अगर आप खुद का और हर उस बात का सम्मान करते हैं, जिसके लिए आप अतीत में खड़े हुए थे, तो आप खुद को ऐसी पार्टी में ले जाएंगे, जिसकी समान मान्यताएं हों या फिर खुद की पार्टी शुरू करेंगे। आप कभी विपरीत विचारधारा वाली पार्टी में नहीं जाएंगे।

अतीत में राजनीति में आने वाले ज्यादातर लोगों की यही मान्यता होती थी। लेकिन पिछले कुछ वर्षों से हमने कई पदलोलुप राजनेता पैदा होते देखे हैं, जो राजनीति को पेशा समझकर उसमें आते हैं। इनके लिए सिद्धांत और जुनून मायने नहीं रखते। वे राजनीति की प्रक्रियाओं, हार और पुनरुत्थान व उलटफेर के प्रति अधीर रहते हैं। वे बस अगले प्रमोशन के इंतजार में रहते हैं।

हमारे देश में राजनेता जन्मजात रूप से अगले चुनाव से आगे सोचने में असमर्थ हैं। कभी-कभी इन राजनेताओं से पूछने का मन होता है- जब आप अपने पुराने वीडियो देखते हैं, जिसमें आप अभी जो कह रहे हैं, उससे ठीक विपरीत कहा था, तो क्या आपको कुछ शर्म आती है? या अपनी बात कहने के तरीके पर खुद को बधाई देते रहते हैं? जितिन प्रसाद के भाजपा में जाने के उद्देश्यों पर मीडिया कयास लगाता रहेगा। मेरा सवाल अलग है: राजनीति किसलिए है? मुझे डर है, उनका जवाब सही नहीं है।

ये भी पढ़े….

 

 

Leave a Reply

error: Content is protected !!