क्या चीन का सामना करने के लिये हमें एकजुट होना होगा ?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
इस महीने की 9 तारीख को अरुणाचल प्रदेश के तवांग सेक्टर में एलएसी पर भारत और चीन के बीच जो भिड़ंत हुई, वह हर भारतीय के लिए चिंता का विषय है, फिर वह चाहे जिस पार्टी से सम्बद्ध हो। एक लोकतंत्र में विपक्ष को यह अधिकार है कि देश के ताजा हालात पर सरकार से सवाल पूछे।
वहीं सरकार की भी यह जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा की मर्यादाओं के भीतर जो भी सूचनाएं पारदर्शिता के साथ सामने रख सकती है, वैसा करे। लेकिन इस मामले में जिस तरह से कांग्रेस और भाजपा ने एक-दूसरे की राष्ट्रीय निष्ठाओं को प्रश्नांकित करते हुए आक्षेप लगाए, वह अस्वीकार्य था।
दोनों पक्षों ने एक-दूसरे पर चीन के सामने घुटने टेक देने का आरोप लगाया, जो कि हमारे राजनीतिक-विमर्श में आई एक नई गिरावट है। यह एक साझा शत्रु के विरुद्ध हमारी लोकतांत्रिक कार्यप्रणाली की भी अवमानना है। मैंने शत्रु शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया है। चीन का व्यवहार निश्चय ही भारत के प्रति शत्रुतापूर्ण है।
अव्वल तो चीन को लगता है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी ताकत- एक मिडिल किंगडम- बनकर उभर सकता है। इस लक्ष्य की पूर्ति में वह भारत को एक बाधा की तरह देखता है। केवल इसलिए नहीं कि भारत भी एशिया में लगभग एक महाद्वीप जितने आकार वाला ताकतवर देश है, बल्कि इसलिए भी कि वह एक लोकतांत्रिक देश है और चीन के एकदलीय निरंकुश तंत्र के लिए अनवरत चुनौती है।
दूसरे, यह पूरी तरह से सम्भव है कि भारत आने वाले समय में दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनकर उभरे, जिससे चीन की महत्वाकांक्षाओं को क्षति पहुंचे। तीसरे, चीन भारत को उसके विरुद्ध एक वैश्विक-मोर्चे का हिस्सा मानता है। भारत जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के साथ क्वाड का सदस्य है। हाल ही में एलएसी के निकट अमेरिका के साथ हमारी साझा एयरफोर्स ड्रिल से भी यही संकेत जाता है।
चौथे, चीन दक्षिण एशिया में प्रभुत्व जमाना चाहता है और भारत उसकी राह में बाधा है। यही कारण है कि हमें एलएसी पर चीन की हरकतों के और बढ़ने का ही अंदेशा जताना चाहिए। वह योजनापूर्वक ऐसा कर रहा है। जून 2020 में गलवान में हुई झड़प, अक्टूबर 2021 में यांगत्सी में हस्तक्षेप और हाल ही में तवांग में हुई घटनाएं चीन की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं।
यह कोई संयोग नहीं है कि चीन बीते अनेक सालों से 3440 किलोमीटर लम्बी विवादित एलएसी पर प्रतिरक्षा के बड़े बुनियादी ढांचों का निर्माण करवा रहा है। इस स्थिति में भारत एक ही प्रत्युत्तर दे सकता है- चीनी आक्रामकता का सामना करने के लिए खुद को तैयार करना। अफसोस की बात है कि चाणक्य के देश में दशकों से इसके लिए तैयारियां नहीं की गईं।
हमारे एक रक्षा मंत्री ने तो एक बार यह तक कह दिया था कि सीमा पर हमारी तरफ सड़कें बनवाना खतरनाक हो सकता है, क्योंकि इसकी मदद से चीनी अधिक आसानी से भारत में प्रवेश कर सकेंगे! लेकिन गनीमत है कि अब हम खतरे के प्रति सतर्क हो रहे हैं। मौजूदा सरकार ने सीमा पर ऑपरेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड कर दिया है। इसमें 150 किमी के ऑपरेशनल ट्रैक्स के साथ ही एक बड़ी सड़क भी शामिल है, जो हिमाचल और लदाख के बीच सीधा सम्पर्क स्थापित करेगी।
साथ ही दर्जनों बैली ब्रिज, बंकर, सीमा पर 22 हजार ट्रूप्स के रहने की व्यवस्था, 450 वाहनों, टैंक्स, आर्टिलरी गन्स आदि का भी बंदोबस्त किया गया है। नियोम में एक बड़े मिलिट्री एयरफील्ड के निर्माण के साथ ही नए शस्त्रागार की स्थापना की भी योजना है। भारत के प्रति चीन की नीति यह रही है कि संवाद भी जारी रखो और समय-समय पर उकसावे की हरकतें भी करते रहो। अभी तक हम बातचीत को तो तैयार रहे, लेकिन हरकतों को नजरअंदाज करते रहे।
हमारी नीति यह होनी चाहिए कि हम चीन के सैन्य उकसावों का जवाब देने के लिए एक पुख्ता तैयारी करें। चीन लगातार अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा पेश करता रहा है और उसे वह दक्षिणी-तिब्बत कहकर पुकारता है। एक बार तो उसने यहां तक कह दिया कि अरुणाचल के भारतीयों के लिए स्टैपल्ड वीजा होंगे।
वैसे में हमें भी जवाब में कहना चाहिए था कि हम भी तिब्बती मूल के चीनियों को स्टैपल्ड वीजा देंगे। पर ऐसा किया नहीं गया। याद रखें कि चीन ताकत की ही भाषा समझता है। इसके लिए हमें सामूहिक इच्छाशक्ति की जरूरत है, आरोप-प्रत्यारोप की नहीं।
आज चीन में अंदरूनी समस्याएं बढ़ रही हैं, इकोनॉमी लड़खड़ा रही है, असंतोष उभर रहा है, वैसे में सम्भव है कि वह लोगों का ध्यान भटकाने के लिए सैन्य हरकतें कर रहा हो। लेकिन हमें तैयारी रखनी चाहिए।
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