क्या पत्रकारिता की गारंटी निष्पक्षता है?
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
सोशल मीडिया ने पारंपरिक मीडिया गढ़ों को चुनौती दी और पत्रकारिता को सहज सुलभ बनाया. सत्ता, काॅरपोरेट और दूसरे प्रतिष्ठानों के जरिये सामने न आ पाने वाली खबरों के लिए यह उत्साहजनक उम्मीद के रूप में उभरा. सोशल मीडिया से पहले छोटे पत्र-पत्रिकाओं ने वैकल्पिक मीडिया की भूमिका निभायी, पर सीमित संसाधन की वजह से उसकी पहुंच बेहद कम रही. इस संदर्भ में सोशल मीडिया ने उस वैकल्पिक मीडिया को असीमित पहुंच और प्रसार दिया.
तकनीक और डाटा के जरिये आयी इस ताकत को लोकतांत्रिक वरदान के रूप में देखा गया. लेकिन क्या सोशल मीडिया की खबरिया क्रांति सचमुच लोकतांत्रिक राह को सही मायने में अख्तियार कर चुकी है? यह सवाल चुनाव-दर-चुनाव सोशल मीडिया की खबरनवीसी के पक्षकार बनने और मुंह की खाने के बाद ज्यादा प्रासंगिक बना है. हालिया विधानसभा चुनावों की सोशल मीडिया में कभी खबरिया चैनलों के दिग्गज रहे पत्रकारों ने जैसी रिपोर्टिंग की, उसने सोशल मीडिया पर हो रही पत्रकारिता की साख पर प्रश्न तो खड़ा किया ही, यह भी साफ कर दिया है कि ऐसी पत्रकारिता एक दल विशेष का प्रचार भर रही.
मशहूर कथाकार राजेंद्र यादव ने एक इंटरव्यू में कहा है कि साहित्य की लड़ाई हवाई हमले जैसी होती है, जिसके जरिये माहौल बनता है. माहौल में आये इस बदलाव की वजह से पैदल सेना के लिए जमीनी कब्जा आसान हो जाता है. यह संयोग है या कुछ और, कि सोशल मीडिया पर जमे हुए कई पत्रकार और विश्लेषक इस तरह की रिपोर्टिंग कर रहे हैं जैसे वे विपक्ष के लिए पिच तैयार कर रहे हों. लेकिन विपक्ष, यानी एक खास दल उस पिच का सियासी फायदा नहीं उठा पा रहा है.
पिछले कुछ चुनावों से यूट्यूब और दूसरे सोशल मीडिया मंचों पर जो रिपोर्टिंग हो रही है, उसे तटस्थ नजरिये से देखें, तो यह माहौल बनाने की कोशिश ही है. तो, क्या सोशल मीडिया के जरिये मीडिया और खबरनवीसी के लोकतंत्रीकरण की उम्मीद पूरी हो पायी है? इसका जवाब है, नहीं. अगर एक चुनाव में ऐसा होता, तो उसे पेशागत कमी मान लिया जाता. लेकिन ऐसा हर बार क्यों हो रहा है. साल 2017 में उत्तर प्रदेश में सोशल मीडिया के ज्यादातर मठाधीश सिर्फ माया-अखिलेश गठबंधन को जिता रहे थे.
लेकिन नतीजे ठीक उलट आये. साल 2019 में भी सोशल मीडिया के ‘साखदार कर्मवीरों’ की नजर में मोदी हार रहे थे. ऐसा ही महाराष्ट्र में हुआ. लगभग हर चुनाव की यही कहानी है. यह भी याद किया जाना चाहिए कि आज सोशल मीडिया में जिन्होंने अपनी पत्रकारिता का बाजार तैयार किया है, उनमें से ज्यादातर कुछ साल पहले तक भारतीय खबरिया चैनलों के हीरो थे. तब भी उनका रवैया कुछ ऐसा ही था, हालांकि अपने संस्थानों की नीतियों के चलते वे खुलकर समर्थन या विरोध नहीं कर पाते थे. सोशल मीडिया की पत्रकारिता ने पारंपरिक पत्रकारिता की वाचमैन वाली भूमिका को ही खत्म कर दिया है.
पारंपरिक पत्रकारिता पर चाहे जितने सवाल हों, लेकिन यह तय है कि कोई संवाददाता या विश्लेषक अपनी मनमानी अखबार के पन्नों या टीवी के पर्दे पर नहीं रख सकता है. वहां डेस्क नामक एक चीज है और वह उसकी मनमानी पर रोक लगाकर जवाबदेही की अपनी भूमिका को निभाती रहती है. इसकी वजह यह है कि पारंपरिक पत्रकारिता कानून और संविधान के दायरे में ही भूमिका निभाती है, जबकि सोशल मीडिया की पत्रकारिता में न तो कानूनी बंधन की जरूरत है, न ही जवाबदेह वाचमैन की.
इस पत्रकारिता को इसीलिए अब पक्षकारिता कहा जाने लगा है. मुक्तिबोध की कविता की पंक्ति- पार्टनर आपकी पॉलिटिक्स क्या है- सोशल मीडिया की खबरनवीसी के लिए ज्यादा सटीक नजर आ रही है. सोशल मीडिया मंचों ने आर्थिक सहयोग और कमाई के लिए अपना जो अलगोरिदम विकसित किया है, उसे यह तमाशाई पक्षकारिता ही सूट करती है.
क्या पत्रकारिता का एक मात्र उद्देश्य सिर्फ पत्रकार की मोटी कमाई ही है और श्रोता या दर्शकों के प्रति उसकी कोई जवाबदेही नहीं है? क्या पत्रकारिता की आड़ में किसी दल का प्रचार करना जायज माना जाना चाहिए? अगर ये पत्रकार खुलकर उस दल विशेष का प्रचार करते, तो कोई सवाल नहीं होता. पत्रकारिता की न्यूनतम गारंटी निष्पक्षता है.
ऐसा नहीं कि पारंपरिक पत्रकारीय संस्थान हमेशा निष्पक्ष रहे हैं. उन्होंने अगर किसी का पक्ष लिया भी, तो उसे आटे में नमक के समान मिलाने की कोशिश की. लेकिन सोशल मीडिया की पत्रकारिता में ऐसी प्रवृत्ति नजर नहीं आयी. इसलिए अब वक्त आ गया है कि सोशल मीडिया की पत्रकारिता का भी नियमन किया जाए. किसी को किसी दल का पक्ष लेना है, प्रचार करना है, तो वह करे, लेकिन वह खबरनवीसी और रिपोर्टिंग का तमगा धारण कर ऐसा न करे. वह पत्रकारिता की बुनियादी सोच पर आगे बढ़े. सोशल मीडिया मंचों को भी कानूनी तौर पर ऐसे अलगोरिदम विकसित करने के लिए सोचना होगा, जो निष्पक्षता को बढ़ावा दे, वितंडावाद और अतिवाद को नहीं.