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क्या ममता केवल क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना चाहती है? - श्रीनारद मीडिया

क्या ममता केवल क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना चाहती है?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बीते सप्ताह नई दिल्ली में अपने भतीजे और सांसद अभिषेक बनर्जी के सरकारी आवास पर बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक ही सांस में दो बातें कही थीं। पहली, उन्होंने अपने इस दौरे में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से मुलाकात की संभावना को सिरे से खारिज कर दिया था। दूसरी, वह 30 नवंबर को मुंबई जा रही हैं, जहां वह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) प्रमुख शरद पवार और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री व शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे से मुलाकात करेंगी।

इसके बाद साफ हो गया कि कांग्रेस को अलग रखकर ममता केवल क्षेत्रीय दलों से गठबंधन करना चाहती हैं। यही वजह है कि वह कांग्रेस की शक्ति और प्रभाव को खत्म कर खुद को उसके विकल्प के रूप में प्रस्तुत करने की कोशिश में हैं।

तृणमूल प्रमुख अपने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पीके) की रणनीति पर कदम बढ़ा रही हैं। इसी के तहत एक तरफ जहां कांग्रेस में सेंधमारी तो दूसरी ओर कांग्रेस की सहयोगी पार्टियों से लेकर सुब्रमण्यम स्वामी जैसे भाजपा नेताओं को अपने साथ जोड़ने की कोशिशें हो रही हैं। असम, त्रिपुरा, मेघालय, गोवा, बिहार, उत्तर प्रदेश और हरियाणा जैसे राज्यों के कांग्रेसी नेताओं को तृणमूल में शामिल कराया जा रहा है।

पिछले सप्ताह ही दिल्ली में ममता ने कांग्रेस नेता कीर्ति आजाद, हरियाणा के पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष अशोक तंवर, जनता दल (यूनाइटेड) के पूर्व महासचिव पवन वर्मा को तृणमूल का झंडा थमाया है। साथ में गीतकार व पटकथा लेखक जावेद अख्तर और लेखक व स्तंभकार सुधींद्र कुलकर्णी से भी मुलाकात की। यह राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे बुद्धिजीवियों को अपने पाले में लाने की उनकी कोशिश है, जिन्हें नरेन्द्र मोदी विरोधी मना जाता है।

संसद के शीतकालीन सत्र के शुरू होने से पहले कांग्रेस की ओर से बुलाई गई विरोधी दलों की बैठक में भी तृणमूल नहीं गई। उक्त बैठक से इतर ममता ने पार्टी सांसदों व नेताओं के साथ अपनी अलग रणनीति बनाई। क्या कांग्रेस को छोड़कर भाजपा विरोधी गठबंधन संभव है? वजह, देश में लोकसभा की 120 से अधिक सीटें ऐसी हैं, जहां भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है। ऐसा नहीं है कि ममता इस सच्चाई से अनजान हैं।

यही वजह है कि कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि उनकी पार्टी को कमजोर कर दरअसल तृणमूल भाजपा के हाथ मजबूत कर रही हैं। दूसरी ओर तृणमूल नेताओं का तर्क कुछ और है। उनका कहना है कि ममता अलग-अलग राज्यों में पार्टी के संगठन का विस्तार कर राष्ट्रीय राजनीति में खुद को भाजपा विरोधी चेहरे के रूप में स्थापित करना चाहती हैं।

बंगाल में भाजपा को हराकर उन्होंने यह साबित किया है। इसीलिए एक तरफ विभिन्न राज्यों में कांग्रेसी नेताओं और कार्यकर्ताओं को तोड़ा जा रहा है तो दूसरी ओर गैर-कांग्रेसी क्षेत्रीय दलों से ममता की बातचीत चल रही है। एक दिसंबर को शरद पवार और उद्धव ठाकरे के साथ होने वाली बैठक उसी का हिस्सा है। इसके बाद ममता यूपी भी जाएंगी।

तृणमूल के अनुसार यदि ममता क्षेत्रीय दलों के बीच अपना नेतृत्व स्थापित कर विभिन्न राज्यों में भाजपा विरोधी मजबूत गठबंधन स्थापित कर लेती हैं तो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस विरोधी गठबंधन का नेतृत्व करने का दावा खत्म हो जाएगा। अगर स्थिति उपयुक्त रही तो कांग्रेस को बाहर से ममता के नेतृत्व वाले क्षेत्रीय गठबंधन का समर्थन करने के लिए बाध्य होना पड़ेगा।

ममता कहती रही हैं कि उनकी पार्टी सभी राज्यों में चुनाव नहीं लड़ेगी। जहां जो क्षेत्रीय दल मजबूत होंगे, वहां उनका समर्थन किया जाएगा। यूपी में तृणमूल की इकाई खुल रही है। समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव अगर मदद चाहेंगे तो उनका समर्थन किया जाएगा। लेकिन क्या तीसरा फ्रंट संभव है? ममता 2012 से ही इसकी कोशिश कर रही हैं।

जब प्रणब मुखर्जी को कांग्रेस ने राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाया था तो तृणमूल प्रमुख ने मुलायम सिंह यादव के साथ मिलकर अलग मोर्चा बनाकर अपना उम्मीदवार उतारने की कोशिश की थी, लेकिन ऐन वक्त पर मुलायम ने पलटी मार दी थी। इसके बाद 2019 में भी 25 दलों के साथ कोलकाता के ब्रिगेड मैदान में रैली कर मोदी विरोधियों को एकजुट करने की उन्होंने कोशिश की, लेकिन सफलता नहीं मिली। अब एक बार फिर वह सक्रिय हैं और तीसरा मोर्चा बनाना चाहती हैं, लेकिन क्षेत्रीय क्षत्रपों में अधिकांश की पीएम बनने की चाहत है। ऐसे में ममता कितना सफल होंगी, यह वक्त बताएगा।

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