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क्या नए संसद भवन के निर्माण में भी जीत के गणित हैं? - श्रीनारद मीडिया

क्या नए संसद भवन के निर्माण में भी जीत के गणित हैं?

क्या नए संसद भवन के निर्माण में भी जीत के गणित हैं?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

नया संसद भवन क्या है? इसे इतनी जल्दी में बनवाने, खड़ा करने का क्या मतलब? सही में वास्तु का कोई मामला था या अंग्रेजों की बेड़ियों से मुक्त होने का कोई उपक्रम? कोई लम्बा-चौड़ा गणित नहीं है। तमाम सरकारें जो कुछ भी करती हैं, वे आगे भी सत्ता में बने रहने के लिए करती हैं और तमाम राजनीतिक पार्टियां चुनाव में जीत के लिए गणित भिड़ाती रहती हैं। नए संसद भवन के निर्माण में भी जीत के गणित हैं। सत्ता में बने रहने के उपाय हैं।

दरअसल, नए संसद भवन के तहत निचले सदन यानी लोकसभा में 543 (+2) की बजाय 888 कुर्सियां हैं और राज्यसभा में 250 की बजाय 384 कुर्सियां हैं। साधारण सी बात है- जब कोई नया निर्माण होता है तो भविष्य के हिसाब से ही होता है। तय है कि आने वाले वर्षों में लोकसभा और राज्यसभा की सीटों में वृद्धि होना अत्यावश्यक है। लेकिन समझने की बात ये है कि सीटों की वृद्धि से आखिर सर्वाधिक लाभ किस राजनीतिक दल को हो सकता है और क्यों?

दरअसल, देश जब आजाद हुआ, उसके बाद पहले चुनावों में लोकसभा की 499 में से 489 सीटों पर चुनाव होते थे, बाकी दस सीटों पर मनोनयन होता था। 1976 में लोकसभा सीटों के बढ़ने की बारी आई यानी परिसीमन की। 1971 की जनगणना को आधार मानकर सीटों का निर्धारण किया गया। तब देश की जनसंख्या लगभग 54 करोड़ थी। फॉर्मूला बनाया गया कि हर दस लाख लोगों पर एक लोकसभा सीट होनी चाहिए।

इसी आधार पर लोकसभा की 543 सीटें तय हो गईं। आज भी इतनी ही हैं। दो मनोनीत सदस्यों को मिलाकर 545 होती हैं। खैर, अब आते हैं असल मुद्दे पर। 1971 से अब तक देश की जनसंख्या लगभग ढाई गुना बढ़ चुकी है। लेकिन लोकसभा सीटें उतनी ही हैं जितनी 1976 में तय की गई थीं। अब यहां यह जानना जरूरी है कि ऐसा क्यों हुआ? जनसंख्या में अपार वृद्धि के बावजूद लोकसभा सीटों में किसी सरकार ने वृद्धि क्यों नहीं की?

दरअसल, सत्तर के दशक में देश में परिवार नियोजन कार्यक्रम जोरों से चलाया गया था। बाकायदा शिक्षकों, पटवारियों तक को टारगेट दिए गए थे। भाई लोगों ने इंक्रीमेंट के चक्कर में ऐसे-ऐसे लोगों की भी नसबंदी करवा दी थी, जिनके बच्चे ही नहीं थे। कुछ ऐसे भी थे, जिनकी शादी तक नहीं हुई थी। कई मामलों में शिक्षकों, पटवारियों, ग्रामसेवकों ने तो अपनी नौकरी बचा ली, लेकिन लोगों का जीवन नीरस कर दिया। बर्बाद कर दिया।

खैर, कुल मिलाकर इस परिवार नियोजन कार्यक्रम का ज्यादा असर या कहें कि अच्छा इम्प्लीमेंट दक्षिण के राज्यों में हुआ। लेकिन हिंदी भाषी आठ राज्यों में इस कार्यक्रम के तहत घपले-घोटाले ज्यादा हुए और सही मायने में असर कम हुआ।

दक्षिण में तब मौजूद राजनीतिक दलों ने आवाज उठाई कि अगर जनसंख्या के आधार पर ही लोकसभा सीटों का निर्धारण होता रहा तो हम उत्तर और मध्य भारत की अपेक्षा बहुत छोटे रह जाएंगे। यानी दक्षिण भारत में लोकसभा सीटें शेष भारत की अपेक्षा बहुत कम रह जाएंगी।

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने दक्षिण के राज्यों की इस समस्या को समझा और संविधान संशोधन के जरिए 2026 तक लोकसभा सीटों के परिसीमन पर रोक लगा दी। इसका उद्देश्य यह था कि कम से कम इतने समय में दक्षिणी राज्यों की जनसंख्या वृद्धि का प्रतिशत भी शेष भारत के समान हो जाएगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

अब अगर 2026 में परिसीमन होता है तो सीटों की वृद्धि सर्वाधिक हिंदी भाषी राज्यों में ही होनी है। भले ही आधार 2011 की जनगणना को ही क्यों न माना जाए। वैसे भी 2021 में जो जनगणना होनी थी वह अब तक नहीं हो सकी है। एक अनुमान है कि 2011 की जनगणना को आधार माना जाए तो भी दक्षिण के राज्यों की अपेक्षा हिंदी भाषी राज्यों में दो गुना सीटें बढ़ जाएंगी।

माना जाता है कि हिंदी भाषी राज्यों में सीटें बढ़ने का ज्यादा फायदा भारतीय जनता पार्टी को होने वाला है। सब जानते हैं बजरंग बली वाला नारा कर्नाटक में भले ही न चला हो लेकिन हिंदी भाषी राज्यों में जरूर चलेगा। कहा जा सकता है कि नए संसद भवन के निचले सदन में जो कुर्सियां बढ़ी हैं, भविष्य में उन पर ज्यादातर भाजपा सदस्य ही बैठे मिलें तो कोई आश्चर्य नहीं होगा।

अब विपक्षी दल नए संसद भवन के उद्घाटन का विरोध करके ही अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझते रहें तो भले समझें, लेकिन आखिरकार उसका उद्देश्य उन्हें जरूर समझना चाहिए। हालांकि 2024 तक तो परिसीमन होना मुश्किल ही है, क्योंकि इसके पहले यह करतब किया भी जाता है तो इसकी प्रक्रिया बहुत लम्बी है, जो समय रहते पूरी नहीं हो पाएगी।

बहरहाल, नई संसद से भाजपा वालों के चेहरे खिले हुए हैं और कम से कम 2026 तक तो खिले ही रहेंगे। कर्नाटक की जीत कांग्रेस को ऊर्जा तो देगी लेकिन राजस्थान में जो कुछ चल रहा है, उससे लगता नहीं कि कांग्रेस वहां दोबारा भी सत्ता पा जाएगी। अब पार्टी आलाकमान भले ही कहता रहे कि गहलोत और सचिन पायलट में समझौता करा दिया गया है लेकिन ऐसा कुछ दिखाई तो नहीं देता।

सीटों का परिसीमन और जनसंख्या का गणित

तय है कि आने वाले वर्षों में लोकसभा और राज्यसभा की सीटों में वृद्धि होना अत्यावश्यक है। लेकिन समझने की बात ये है कि सीटों की वृद्धि से आखिर सर्वाधिक लाभ किस राजनीतिक दल को हो सकता है, और क्यों?

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