स्वावलंबन के कीर्तिस्तंभ डा. होमी जहांगीर भाभा.
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
भारत अगर आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में अपना पताका लहरा रहा है तो इसका श्रेय डा. होमी जहांगीर भाभा को भी जाता है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. भाभा ने ना सिर्फ सैद्धांतिक शोधों में पूरी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विज्ञानियों का ध्यान खींचा, बल्कि राष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थानों के निर्माण में भी अतुलनीय योगदान दिया।
स्वाधीनता के अमृत महोत्सव काल में देश में आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन पर चर्चा स्वाभाविक है। स्वाधीनता पूर्व से ही राजनीतिक विमर्श में भी स्वावलंबन पर सबसे ज्यादा बल दिया गया। अंग्रेजी शासन से देश को मुक्त कराने के लिए राजनीतिक आंदोलन कर रहे अग्रिम पंक्ति के नेताओं का देश के उद्योग जगत की नामचीन हस्तियों के साथ लगातार संपर्कों और संवादों में इस प्रयास की झलक मिलती है। महात्मा गांधी एवं अन्य राष्ट्रीय नेतृत्व की दृष्टि में अपने पैरों पर खड़े होने की दिशा में भारत का संकल्प और प्रकल्प स्पष्ट था।
स्वयं का पोषण करते हुए पूरी दुनिया की सहायता करने लायक होने के राष्ट्रीय नेतृत्व की इस प्रतिबद्धता को विज्ञानियों का भी भरपूर साथ मिला। भारत अगर आज विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में पूरी दुनिया में अपना पताका लहरा रहा है तो इसका श्रेय इन्हीं विज्ञानियों को जाता है। जिन चुनिंदा विज्ञानियों ने स्वतंत्रता से पहले देश की आत्मनिर्भरता का ताना-बाना बुना उनमें डा. होमी जहांगीर भाभा का नाम उल्लेखनीय है। देश के दूसरे नोबेल पुरस्कार विजेता सी.वी. रमन सहित उनके समकालीन भौतिक विज्ञानियों ने अपने-अपने क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान दिए, लेकिन डा. भाभा इनमें सबसे अलग थे।
युवाओं को जोड़ा विज्ञान से
मुंबई के धनाढ्य और प्रतिष्ठित पारसी परिवार में 1909 में जन्मे बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. भाभा ने ना सिर्फ सैद्धांतिक शोधों में पूरी दुनिया के सर्वश्रेष्ठ विज्ञानियों का ध्यान खींचा, बल्कि राष्ट्रीय वैज्ञानिक संस्थानों के निर्माण में भी अतुलनीय योगदान दिया। टाटा इंस्टीट्यूट आफ फंडामेंटल रिसर्च (टीआइएफआर) और भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (बार्क) इसके ज्वलंत उदाहरण हैं। उन्होंने ना सिर्फ वैज्ञानिक अनुसंधान के संस्थानों के निर्माण में भूमिका निभाई, बल्कि युवा विज्ञानियों को उनसे जोड़ने का भी काम किया। उनकी प्रशंसा करते हुए स्वयं सी.वी. रमन ने 1941 की भारतीय विज्ञान कांग्रेस में कहा था, ‘भाभा संगीत के महान प्रेमी हैं, अत्यंत प्रतिभाशाली कलाकार हैं, मेधावी इंजीनियर हैं और उत्कृष्ट विज्ञानी हैं… वह आधुनिक काल के लियोनार्दो द विंची हैं।’
आत्मनिर्भरता का लगाया प्लांट
आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी कर स्वदेश लौटने के बाद वह दोबारा वहां जाना चाहते थे, लेकिन इस बीच द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ गया। युद्ध समाप्त होने के बाद उन्हें इंग्लैंड में पढ़ाने के प्रस्ताव भी मिले, लेकिन तब तक भाभा के अंदर बहुत कुछ बदल गया था। उन्हें महसूस हुआ कि स्वतंत्रता तो अब मिलकर रहेगी इसलिए देश निर्माण में जुट जाने का समय आ गया है। डा. भाभा ने ना सिर्फ शोध और अनुसंधान को दिशा दी, बल्कि वह उसके नैतिक पक्ष को लेकर भी बहुत सजग रहे।
डा. भाभा ने पूरे जीवन विज्ञान को मानवता के कल्याण की दिशा में लगाने का काम किया। डा. भाभा का सबसे बड़ा योगदान परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में है। उन्होंने परमाणु रिएक्टरों के निर्माण में अहम भूमिका निभाई साथ ही रिएक्टर में काम आने वाले अहम हेवी वाटर के क्षेत्र में भी भारत को आत्मनिर्भर बनाने का काम किया। उनके ही प्रयासों से फर्टिलाइजर कारपोरेशन आफ इंडिया ने 1962 में पहला हेवी वाटर प्लांट स्थापित किया। आज हम हेवी वाटर के प्रमुख उत्पादकों में शामिल हैं।
खुलेआम की परमाणु बम बनाने की घोषणा
जानकर आश्चर्य होगा कि स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले डा. भाभा सहयोगी विज्ञानियों के साथ परमाणु बम के बारे में सोच रहे थे। यह सब अमेरिका के परमाणु परीक्षण और जापान पर परमाणु बम गिराए जाने से पहले की बात है। भारत पर चीन के हमले ने डा. भाभा को काफी उद्वेलित किया। 1964 में चीन के परमाणु परीक्षण के बाद उन्होंने आल इंडिया रेडियो से घोषणा की कि अगर जरूरत पड़े तो हम 18 महीने के अंदर परमाणु बम बना सकते हैं। यही नहीं, उन्होंने अमेरिकी विदेश मंत्रालय के अधिकारियों से भी मुलाकात की और कहा कि भारत हर साल 100 परमाणु बम बना सकता है।
डा. भाभा ने आने वाले समय में कंप्यूटर के महत्व को भी पहचाना था। वैज्ञानिक शोध के लिए यह कितना जरूरी है, वह यह बखूबी समझ गए थे। टीआइएफआर का इलेक्ट्रानिक्स ग्रुप इसकी मिसाल है। डा. भाभा के प्रोत्साहन से टीआइएफआर ने डिजिटल कंप्यूटर के निर्माण का कार्य प्रारंभ किया। 24 जनवरी, 1966 को विएना जाते समय विमान हादसे में उनकी मृत्यु से इस महान विज्ञानी के जीवन का अंत हुआ, लेकिन वह आज भी युवा विज्ञानियों के प्रेरणास्रोत हैं। सिर्फ अपने लिए नहीं, देश के लिए जीने की उनकी उत्कंठा अनुकरणीय रहेगी।
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