डॉ. विद्यानिवास मिश्र:हिंदी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान व साहित्यकार
आज बड़का बाबूजी डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी की जयंती है।
श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क
जीवित होते तो आज 97 साल के हो जाते। हिंदी और संस्कृत के प्रकांड विद्वान और बहुप्रतिष्ठित साहित्यकार। ऐसे साहित्यकार थे कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय से वे संस्कृत से एमए कर रहे थे और उस समय ही उनकी लिखी किताब कई विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग के पाठ्यक्रम में शामिल थी। अद्भुत व्यक्तित्व था बाबूजी का। बहुत ही सरल। 3 साल के बच्चे से लेकर 90 साल के बुजुर्ग तक वे उसी सरलता से और आनंद लेकर बातें करते थे। हम सबके बड़का बाबूजी थे तो उसी स्वरूप में उनका प्यार मिलता था तो कई बार डांट भी मिलती थी।
बात है 1987 की है। बाबूजी काशी विद्यापीठ के कुलपति थे। मेरा इंटरमीडिएट पूरा हो गया था। बीए के लिए फॉर्म सिर्फ इलाहाबाद विश्वविद्यालय का भरा था, बीएचयू का भरा नहीं, डेट भी निकल गई थी। बाबूजी बोले- ‘अतिआत्मविश्वास ठीक नहीं है, काशी विद्यापीठ का भी फॉर्म भर दो। इलाहाबाद में नहीं हुआ तो आखिर क्या करोगे?’ मैंने फॉर्म भरा नहीं, डेट विद्यापीठ की भी निकल गई।
उन्होंने पूछा- फॉर्म भरे..? मैंने कहा नहीं। पारा चढ़ गया, डांट लगाई- बाप का विश्वविद्यालय समझे हो..? मेरी हंसी छूट गई, मुंह से निकला- उसमें समझना क्या है, बाप का ही तो है। अब उनकी डांट में मुस्कान भी शामिल हो गई। बोले- बहुत बर्रैत हो गए हो तुम। खैर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय में मेरा एडमिशन हो गया, बाबूजी भी बहुत खुश हुए।
नवभारत टाइम्स में बाबू जी प्रधान संपादक थे। वहां से ऐतिहासिक त्यागपत्र देने के बाद बनारस शिफ्ट हो गए। दिल्ली में परमार्थ निकेतन के अध्यक्ष स्वामी चिदानंद सरस्वती के मेगा प्रोजेक्ट ‘इनसाइक्लोपीडिया इन हिंदुइज्म’ से प्रधान संपादक के तौर पर जुड़े थे। दिल्ली के सफदरजंग इन्क्लेव स्थित परमार्थ निकेतन में आवास मिला था। वहां भाई कुमुदेश के साथ मैं भी रहता था। बाबूजी कभी-कभी दिल्ली आते थे तो हमारे साथ परमार्थ निकेतन में ही रहते थे या फिर आईआईटी में वागीश मामा (वागीश शुक्ल) के घर । एक बार दिल्ली आए, परमार्थ निकेतन पहुंचे।
घर पर न मैं था और न ही कुमदेश। घर में ताला बंद। बाहर आश्रम के एक कमरे में इंतजार करने लगे। गुस्सा सातवें आसमान पर चढ़ रहा था, क्योंकि उनके आने से पहले उनके लिए फोन बजना शुरू हो जाता था। फोन बंद था घर के भीतर। अब हम दोनों पहुंचे तो बाबूजी की डांट शुरू हो गई। डांट क्या बच्चों की तरह कुछ अलग ही दिशा में उनका गुस्सा जाने लगा, कहने लगे- ठीक है तुम लोग मनमाने हो गए हो, पता था कि मैं आऊंगा, फिर भी मटरगस्ती कर रहे हो। अब मैं यहां आऊंगा ही नहीं, सीधे आईआईटी में आऊंगा। यहां से अपना कागज पत्तर ले जाऊंगा। तुम लोग रहो यहां आराम से, डिस्टर्ब नहीं करूंगा।
कुमुदेश की सिट्टी पिट्टी गुम थी। एक बार फिर मोर्चा मुझे संभालना पड़ा। रात के 8 बज भी रहे होंगे। मैं भीतर गया पानी और उनकी पसंदीदा कॉफी बनाकर ले आया। बाबूजी बोले- रहने दो मैं आईआईटी चला जा रहा हूं। मैंने कहा- अच्छा कॉफी पी लीजिए, बाद में चले जाइएगा। बाबूजी ने कॉफी पी, गुस्सा थोड़ा शांत हो गया। जल्दी से खाना बनाने में भिड़ा। बाबूजी को गाजर और मेथी के पत्ते की सब्जी बहुत पसंद थी। पहले से सब लाकर रखा ही था। सब्जी बनाई, रोटी बनी। बाबूजी ये कहते हुए चौके में आए- चलो आज खा लेता हूं।
एक रोटी और सब्जी जब खा चुके तो बोले- तोरे माई के हाथे क भोजन भी बहुत मधुर होला। तेहूं बढ़िया बनउले बाटे। (तुम्हारी मां के हाथ का खाना भी बहुत मीठा होता है। तुम भी अच्छा बनाए हो। ) यानी किला फतेह। बाबूजी खुश।
बाबूजी का दिल्ली में ही आंख का ऑपरेशन हुआ था, दिल्ली में कई दिन रहे। दिन भर तो आने जाने वालों से घिरे रहते। रात में तमाम संस्मरण सुनाते। प्रेरक कहानियां सुनाते। जीवन का संघर्ष बताते। कहते कि जीवन में समझौता नहीं करना चाहिए। एक बार समझौता किया तो जीवन भर करना पड़ेगा।
मैं हिमालय दर्पण अखबार में दिल्ली में रिपोर्टर था। मेरे पास एक छोटा टेपरिकॉर्डर था। मेरे अखबार के लिए तो डॉ. विद्यानिवास मिश्र जी का लेख दुर्लभ था, मेरी वजह से सुलभ हो जाता। बाबूजी सुबह 5 बजे जगा देते थे। जिस विषय पर लेख होता वो बोलते जाते, रिकॉर्डर में रिकॉर्ड हो जाता और दफ्तर में उसे नोट करके मैं छपने के लिए दे देता। कमाल की बात ये थी कि जब वो लेख के लिए बोलते थे तो एक भी शब्द इधर से उधर करने की जरूरत नहीं पड़ती थी। शुरू से लेकर आखिर तक वे धारा प्रवाह ही बोलते थे।
बाबूजी और अटल बिहारी वाजपेयी के अद्भुत संबंध थे। अटल जी उम्र में बाबूजी से एक साल बड़े थे, लेकिन अटल जी बाबूजी को अपने से श्रेष्ठ ब्राह्मण मानते थे। जब दोनों लोगों की मुलाकात होती तो अटल जी उनके पांव छूने के लिए झुकते, लेकिन उससे पहले बाबूजी उन्हें रोककर गले लगा लेते। अटल जी के कार्यकाल में ही बाबूजी को राज्यसभा की सदस्यता मिली थी, जिसके बारे में उन्हें खुद मीडिया से पता चला था। यानी सरप्राइज।
एक बार का किस्सा पहले भी यहां लिखा था, आज भी प्रसंगवश बता देता हूं। 1995 की बात है, तब अटल जी लोकसभा में विपक्ष के नेता थे। बाबूजी को विश्व भोजपुरी सम्मेलन में कुशीनगर जाना था, वही सम्मेलन के अध्यक्ष भी थे।सम्मेलन के एक दिन पहले सुबह-सुबह उनकी फ्लाइट थी दिल्ली से बनारस के लिए। कार्यक्रम ये था कि फ्लाइट से बनारस पहुंचेंगे, वहां माई को साथ लेकर कार से कुशीनगर के लिए निकलेंगे। उनकी आदत थी दो घंटे पहले एयरपोर्ट पहुंचने की। खैर हम लोग एयरपोर्ट पहुंचे सुबह-सुबह। पता चला कि फ्लाइट कैंसिल हो गई। अब बाबूजी परेशान, कैसे जाएंगे, कब पहुंचेंगे। शाम को वैशाली ट्रेन थी, लेकिन फुल।
मैंने कहा-बाबूजी अगर कोई सांसद अपने कोटे से चाहे तो रिजर्वेशन हो सकता है। बड़े बाबूजी ने सीधे अटल जी को फोन मिला दिया। पूरा माजरा बताया और कहा- अटल जी कभी-कभी तलवार से भी सुई का काम लेना पड़ता है। खैर अटल जी ने कहा-पंडित जी परेशान मत होइए, आपका काम हो जाएगा। शाम को हम लोग घंटे भर पहले स्टेशन पर पहुंच चुके थे। वहां अनाउंस हो रहा था-डॉ. विद्यानिवास मिश्र अगर आप स्टेशन पर आ गए हों तो कृपया स्टेशन अधीक्षक के कक्ष में आ जाएं, नेता प्रतिपक्ष अटल बिहारी वाजपेयी आपका इंतजार कर रहे हैं।
हम लोग स्टेशन अधीक्षक के कमरे में पहुंचे। वहां दोनों मित्रों की भाव विह्वल मुलाकात हुई। बाबूजी ने फिर कहा- कभी कभी तलवार से भी सुई का काम लेना पड़ जाता है अटल जी। अटल जी मुस्कुराते हुए बोले- नहीं पंडित जी आपने सुई से ही सुई का काम लिया है। ये दो विद्वानों की अद्भुत मुलाकात थी।
बाबूजी के पास रोजाना दर्जनों चिट्ठियां आती थीं। वे एक बार में एक एक करके सारी चिट्ठियां पढ़ते थे और फिर बारी बारी से सबके जवाब भी देते थे। किसने क्या पूछा था, क्या जानना चाहा था, सब उन्हें याद रहता था। पोस्टकार्ड का जवाब पोस्टकार्ड में, अंतर्देशीय का जवाब अंतर्देशीय में और लिफाफे का जवाब लिफाफे में भेजते थे। सबकी चिट्ठी का जवाब भेजते थे।
बड़का बाबूजी हमारे पंक्तिपावन समाज के लिए अवतारी व्यक्तित्व थे। समाज का शायद ही ऐसा कोई हो, जिसे उनका स्नेह न मिला हो। बहुत लोगों का उन्होंने कल्याण किया। उन्होंने कभी अपना-पराया नहीं किया। मेरे बाबूजी उनके सगे भाई नहीं थे। रिश्तों का ये रसायन आज के पैमाने से नापा भी नहीं जा सकता। मेरा जन्म जब गोरखपुर के अस्पताल में हुआ तो मेरा पहला संस्कार यानी ‘बरही’ बाबूजी और माई ने ही मुझे गोद में लेकर किया था।
बाबूजी मुझे अक्सर ‘बर्रैत’ कहते थे, क्योंकि उनसे बतकही भी होती थी और कई बार अपनी बात उनसे मनवा भी लेता था। एक बार विकट प्रसंग फंसा मेरी शादी को लेकर। मेरे पिताजी और मेरे बीच ही ठन गई। मेरे बाबूजी पहुंचे बड़का बाबूजी के पास। बड़का बाबूजी बोले- ‘मैं उसे अच्छी तरह जानता हूं। उसने जो भी फैसला लिया है, वो ठीक होगा। उसकी बात मान लो, वो गलत नहीं कर सकता।’ बाबूजी ने निराकरण ही नहीं किया, मेरे सही होने पर मुहर भी लगा दी। ये बात भी मुझे मेरे बाबूजी ने ही बताई थी।
बड़का बाबूजी नहीं चाहते थे कि मैं पत्रकारिता में आऊं, वे चाहते थे कि मैं संस्कृत का प्रोफेसर बनूं और साहित्य के क्षेत्र में बना रहूं। जब पत्रकारिता में आया तो वे ये नहीं चाहते थे कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में आऊं, लेकिन नियति मुझे यहां भी ले आई। जीवन पथ पर जब उनकी कही और सिखाई बातें काम आती हैं तो बाबूजी बहुत याद आते हैं, लेकिन जब उनकी सिखाई बातों पर अमल नहीं कर पाता तो और भी याद आते हैं और मन कचोटता भी है। बाबूजी ने जीवन में कभी भी समझौता नहीं किया, अपने सिद्धांतों पर ही चले, लेकिन ये 21वीं सदी है। यहां सुविधा के लिए समझौते का आधुनिक नाम ‘समझदारी’ हो गया है.