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पहले पूरइन का पत्ता भोज की शोभा हुआ करता था,कैसे? - श्रीनारद मीडिया

पहले पूरइन का पत्ता भोज की शोभा हुआ करता था,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बिहार के सभी इलाकों में पूरइन का पत्ता पहले भोज की शोभा हुआ करता था। जेठ वैशाख के महीने में पूरइन का पत्ता खूब लहलहता है जब गर्मी के कारण सभी अन्य वनस्पतियां सूख जाती है।90 के दशक तक ग्रामीण इलाकों में आयोजित होने वाले शादी समारोह और अन्य आयोजनों में पत्तल प्लेट की जगह लोगों को भोजन कराने के लिए पूरइन के पत्ते का इस्तेमाल किया जाता था।

इसकी खासियत थी कि इसमें अन्न का एक भी दाना बर्बाद नहीं होता था नाम मात्र के खर्च पर यह कहीं भी उपलब्ध हो जाता था तथा अन्य प्रचलित पत्तल प्लेटो की अपेक्षा शुद्ध था। 90 के दशक तक ग्रामीण अंचलों में होने वाले शादी समारोह सिर्फ एक आयोजन नहीं होते थे बल्कि समाज के सभी तबकों की उसमें सहभागिता होती थी पूरइन के पत्तों का जुगाड़ करने की जिम्मेवारी मछुआरा समुदाय के जिम्मे होता था। जिसके घर समारोह होता था वह इन पत्ते के बदले पत्ते लाने वाले को नेग में अनाज कपड़े और पैसे देता था।

पूरइन के पत्ते पर जब पानी के छींटे पडती थी तू वह ओस की बूंदों की तरह ठहर जाती थी काफी मनोहारी दृश्य होता था। जो प्राकृतिक सोंधी खुशबू आती थी इन पत्तों से वह खाने वालों की भूख बढ़ा दे। उस दौर में लोगों के पास इतना पैसा नहीं था और लोग ना दिखावे में खर्च करते थे ग्रामीण अंचलों में होने वाले भोज में लोग अपने घर से लोटा लेकर जाते थे पानी पीने के लिए मिट्टी का कुल्हड़ भोज में पानी के पात्र के रूप में इस्तेमाल होता था।

यह सभी चीज हर एक गांव में सर्व सुलभ थी और इसकी स्थानीय स्तर पर ही उपलब्धता सुनिश्चित थी।मिट्टी के कुल्हड़ बनाने वाले कुम्हारो को भी रोजगार मिला हुआ था। आज पूरइन के पत्ते की याद यूं ही नहीं आई है प्रदेश और देश में थर्माकोल की प्लेट पर प्रतिबंध लगा दिया गया है कारण कि इससे कैंसर का खतरा बढ़ा है अब सुरक्षित और बेहतर विकल्प के रूप में पुनः उसी दौर में लौटने की आवश्यकता है जहां यह सब चीज है ग्रामीण अंचलों में सर्व सुलभ है वहां इनका इस्तेमाल प्रारंभ किया जाना चाहिए ये आर्थिक भार को तो कम करते ही हैं साथ ही साथ स्थानीय स्तर पर कई लोगों को रोजगार भी देते हैं स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी काफी सुरक्षित है।

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