गांधारी और भीष्म की भूमिका में चुनाव आयोग,कैसे?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

कोरोना महामारी की सुनामी से पूरे देश की तबाही के बावजूद चुनावी रैलियों और रोड शोज का खेला जारी है। आम जनता की सेहत, रोजगार व व्यापार की कमर टूटने के बाद, उनकी जमा पूंजी जुर्माने और जमानत पर कुर्बान हो रही है। कानून के इस दोहरेपन को 60 साल पहले भांपते हुए डॉ. अंबेडकर ने कहा था कि भारत में सत्ता व समाज की मूल प्रकृति अलोकतांत्रिक है। कोरोना से रोकथाम के लिए मास्क, सैनिटाइजर और सोशल डिस्टेंसिंग जैसे उपायों पर केंद्र सरकार के साथ चुनाव आयोग की भी गाइडलाइन्स हैं।

लेकिन चुनावी राज्यों में सभी पार्टियों की रैलियों और रोड शो में स्टार प्रचारकों, प्रत्याशियों और समर्थकों की भीड़ द्वारा डंके की चोट पर कानून को धता बताया जा रहा है। चुनावी रैली और रोड शो में भाग लेने वाले नेता पूरे देश में कोरोना के सबसे बड़े वाहक बन गए हैं। चुनावी रैलियों में नेताओं की गुनहगारी साबित करने के लिए लाइव टीवी के फुटेज का भंडार होने के बावजूद, उनका बाल बांका नहीं होता।

लेकिन दिल्ली की सड़कों में सिविल वॉलेंटियर्स मोबाइल फोन से फोटो खींचकर आम जनता को दहलाने का काम पूरी तत्परता से कर रहे हैं। बात-बात पर चुनाव आयोग को ललकारने वाले विपक्षी नेता भी इस मामले पर चुनाव आयोग से सवाल नहीं कर रहे। लगता है सभी नेता कोरोना के चुनावी कठघरे में गुनाहगार के तौर पर चुनाव आयोग की तरह कंप्रोमाइज्ड हैं।

कोरोना काल में वीआईपी और आम जनता पर कानून लागू करने के दो पैमानों से जाहिर है कि भारत में ‘एक देश दो विधान’ को अधिकृत मान्यता मिल गई है।आम जनता के शिक्षा, रोजगार, आवागमन आदि संवैधानिक अधिकारों को कोरोना रोकने के नाम पर मनमाने तरीके से खत्म किया जा रहा है, तो फिर नेताओं को वीआईपी ट्रीटमेंट मिलना कितना सही है?

पिछले आम चुनावों के पहले प्रकाशित मेरी पुस्तक ‘इलेक्शन ऑन रोड्स’ में विस्तार से बताया गया है कि रोड शो का नया सिस्टम नियम विरुद्ध और गैरकानूनी है। कोरोना काल में इन रोड शोज में सोशल डिस्टेंसिंग और मास्क का पालन नहीं होने से चुनाव आयोग की नियामक व्यवस्था पूरी तरह से ध्वस्त हो गई है। मास्क नहीं पहनने वाले नेता और लाखों लोगों की भीड़ के आयोजन के लिए जिम्मेदार पार्टियों से आम जनता की तर्ज पर भारी जुर्माना वसूला जाए तो देश की अर्थव्यवस्था वी शेप के रूट से जल्द उबर जाएगी।

उप्र के पूर्व डीजीपी डा. विक्रम सिंह मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के सामने चुनाव आयोग ने अब दलील देते हुए कहा कि कोरोना नियमों को लागू करने के लिए स्थानीय प्रशासन की जिम्मेदारी है। अगर यह दलील आगे बढ़ती तो चुनाव आयोग के असीमित अधिकारों के पंख ही कट जाते। इसलिए अगली सुनवाई के बाद चुनाव आयोग ने सभी पार्टियों को चिट्ठी लिखकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि सड़क पर बगैर मास्क के अगर कोई भी व्यक्ति मिला तो पुलिस के खिलाफ अवमानना की कार्रवाई होगी।

कोलकाता हाईकोर्ट ने भी नेताओं और अफसरों को तगड़ी फटकार लगाई है। पर चुनाव आयोग कुंभकर्णी नींद का स्वांग करते हुए, खामोश है। चुनावी रैलियों और रोड शो में कोरोना कानून के बेरोकटोक उल्लंघन से साफ है कि चुनाव आयोग अब भीष्म पितामह के साथ गांधारी की भी भूमिका निभा रहा है। संविधान में आम जनता के लिए देखे गए कल्याणकारी राज्य के सपनों को साकार करने के लिए, अब चुनाव आयोग को विदुर की तरह ठोस बर्ताव करने की जरूरत है।

वीआईपी लोगों पर अदालतों की छूट और चुप्पी के बीच आम जनता पर पुलिस-शासन की बर्बरता से संवैधानिक व्यवस्था का पाखंड बेनकाब होने के साथ लोगों में भारी बेचैनी है। क्या कोरोना सिर्फ रात में सफ़र करता है, जिसका प्रकोप नाईट कर्फ्यू से रुक जाएगा? वीआईपी नेताओं की तुलना में मजदूर, किसान और छात्रों को कोरोना से ज्यादा खतरा कैसे है?

टीएमसी, बीजेपी और कांग्रेस के रोड शो के खेला के दौर में कार की अकेली सवारी के मास्क लगाने से कोरोना कैसे रुकेगा? कोरोना पॉजिटिव होने वाले 95 फीसदी लोगों को बीमारी का लक्षण नहीं तो फिर इतना पैनिक क्यों है? दो डोज वैक्सीन लगवाने वालों को भी कोरोना हो रहा है तो फिर लॉकडाउन लगाने का क्या फायदा? कुम्भ के शाही स्नान से कोई अड़चन नहीं तो फिर मास्क नहीं पहनने वाली बेबस-लाचार जनता की गिरफ्तारी क्यों?

दफ्तर, स्कूल, कॉलेज और कोर्ट, जब सब कुछ वर्चुअल है तो फिर उसी तर्ज़ पर चुनावी रैलियां क्यों नहीं हो सकती? पिछले साल के लॉकडाउन में धारा 188 आदि के बेजा इस्तेमाल से लाखों मुकदमे दर्ज करने वाली सरकारें, अब उन्हें वापस लेने के नाम पर विज्ञापनों से खुद की पीठ थपथपा रही हैं।

कोरोना के दूसरे दौर में फिर से गलत मुकदमे और जुर्माना लगाने वाली सरकारों और अधिकारियों को दंड कैसे मिलेगा? चुनाव आयोग गांधारी की तरह भले ही आंखों पर पट्टी बांधकर चुप रहे। समाज शास्त्री, वैज्ञानिक, मीडिया, सरकार, संसद और अदालतों को आगे चलकर इन सारे सवालों का जवाब देना ही पड़ेगा।

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