पर्यावरण संरक्षण जरूरी है, इसे कैसे संतुलित किया जाये?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

पर्यावरण संरक्षण और स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने का प्रयास स्पष्ट तौर पर दिख रहा है. वर्ष 2015 के पेरिस जलवायु समझौते के आधार पर भारत इसके लिए प्रतिबद्ध है. हमने अतिरिक्त प्रयास के रूप में संचित कॉर्बन सिंक के लिए भी लक्ष्य निर्धारित किया हुआ है. यानी 2.523 बिलियन टन कॉर्बन डाइऑक्साइड के आधार पर 2030 तक अतिरिक्त वन्य क्षेत्र में बढ़ोतरी की जायेगी.

इसके मुताबिक 25 से 30 मिलियन हेक्टेयर वनावरण होना चाहिए. पेरिस समझौते के समय ही 2015 में ग्रीन इंडिया मिशन लांच किया गया था, यह एक प्रकार का नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज है. ग्रीन मिशन का उद्देश्य सीधे तौर पर पेरिस जलवायु समझौते से जुड़ा हुआ है. कॉर्बन सिंक और वन आवरण क्षेत्र में बढ़ोतरी के लिए हमने जो प्रतिबद्धता ली है, वह ग्रीन इंडिया मिशन के तहत आ जाता है.

अब सवाल है कि हम निर्धारित लक्ष्य को अगले दस वर्षों में हासिल कर पायेंगे? हालांकि, स्पष्ट तौर पर कुछ कहना बहुत जल्दी होगा. अभी हमारे पास 10 वर्ष का समय है और काफी उम्मीदें हैं. अगर हम अच्छी योजना बनायें और उसे लागू करें, तो यह संभव है. सरकार की प्रतिबद्धता से इसका संकेत मिल रहा है. प्रधानमंत्री मोदी जब वैश्विक मंचों पर प्रतिबद्धता जाहिर करते हैं, तो एक विश्वास होना चाहिए कि इस सरकार में यह प्राथमिकता में है.

हालांकि, सरकार यह भी कहती है कि आर्थिक विकास जरूरी है, इसे कैसे संतुलित किया जाये, यह एक बड़ी चुनौती है. नवीकरणीय ऊर्जा के लक्ष्य को पूरा करने की दिशा में हम आगे बढ़ रहे हैं. प्रधानमंत्री ने भी कहा था कि 2022 तक हम 175 गीगावाट नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे और 2030 तक 450 गीगावाट का लक्ष्य होगा. नवीकरणीय ऊर्जा हमारी राष्ट्रीय प्रतिबद्धता के लक्ष्य को हासिल करने में एक अहम घटक होगी. सौर ऊर्जा का तेजी से विस्तार हो रहा है. लागत में भी कमी आ रही है. ऐसे तमाम संकेतक बता रहे हैं कि हम अपने लक्ष्य की दिशा में बढ़ रहे हैं.

स्वच्छ ऊर्जा हमारे एनडीसी (नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन) का अहम घटक है. लगभग 40 प्रतिशत संचयी विद्युत शक्ति गैर-जीवाश्म ईंधनों से होगी, यानी कोयला या पेट्रोलियम पर निर्भरता कम होगी. यह बड़ा बदलाव होगा. लेकिन, इसमें हमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भी जरूरत है. इसके लिए विकसित देशों से तकनीकी हस्तांतरण और कम लागत में अंतरराष्ट्रीय वित्त उपलब्धता आवश्यक है. वर्ष 2015 में बने ग्रीन क्लाइमेट फंड में विकसित देश अंशदान करते हैं. उससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्त पोषण किया जाता है.

भारत का कहना है कि हमारे पास कोयला एक अहम प्राकृतिक संसाधन है और भविष्य में इसका इस्तेमाल करेंगे. लेकिन, यह प्रदूषणकारी है. इससे विरोधाभास उत्पन्न होता है. हम कोयले का इस्तेमाल करेंगे, लेकिन क्लीन कोल टेक्नोलॉजी के माध्यम से, जो अंतरराष्ट्रीय सहयोग के आधार पर ही आयेगी.

निर्धारित लक्ष्य तक पहुंचने में कई कठिनाईयां और चुनौतियां हैं. कोविड के कारण अनेक समस्याएं उत्पन्न हुई हैं. हमें अर्थव्यवस्था को गति देनी है और इसके लिए ज्यादा से ज्यादा ऊर्जा का इस्तेमाल करेंगे. इसके लिए हमें अपनी योजना पर नये सिरे से काम करना होगा. वन आवरण बढ़ाने में विज्ञान और तकनीकी की महत्वपूर्ण भूमिका है. रिमोट सेंसिंग तकनीक से पता लगा सकते हैं कि पूरे देश में कितनी अनुपयोगी जमीन है. जहां-जहां ऐसी जमीनें हैं, वहां हमें वानिकी करना होगा.

अगर हम इस भूभाग पर वानिकी करें, तो हम अपने उद्देश्य को पूरा कर सकेंगे. दूसरा, हमें पारदर्शी व्यवस्था बनानी होगी. अपनी प्रगति का मूल्यांकन करना होगा. अगर हमें मालूम होगा कि कहीं कोई कमी आ रही है, तो हम प्रयासों को और तेज कर सकेंगे. तीसरा, फंडिंग एक बड़ा मसला है. एनडीसी में जितनी भी कवायद है, उसके लिए बजट की आवश्यकता है. निर्धारित उद्देश्यों को पूरा करने के लिए हमारा बजट पर्याप्त नहीं है.

उम्मीद है कि जब अर्थव्यवस्था सुधरेगी, तो ग्रीन इंडिया मिशन का बजट आवंटन बढ़ेगा. विभागीय भ्रष्टाचार भी बड़ी समस्या है. पारदर्शिता के मुद्दे पर गंभीर होना होगा. जब कोई प्रतिबद्धता होती है, खासकर जलवायु परिवर्तन, वन कार्ययोजना, नदी, बाढ़ राहत आदि में, तो प्रभावी प्रशासनिक व्यवस्था का होना जरूरी है. बजट बढ़ाने, भ्रष्टाचार को घटाने और क्षमता बढ़ोतरी पर ध्यान देना होगा. तीसरा, केंद्र और राज्य संबंधों को मजबूत करना होगा.

केंद्र की सोच वैश्विक है, लेकिन कई बार राज्य की चिंताएं केंद्र के साथ संतुलन नहीं बिठा पाती हैं. जलवायु परिवर्तन कार्ययोजना के मामले में तालमेल नहीं बैठता है. केंद्र की सोच के इतर राज्यों की अलग व्यवस्था होती है. इसमें केवल अधिकारी ही नहीं, बल्कि किसानों, ग्रामीणों और सामान्य नागरिकों की सोच में भी बदलाव लाना होगा. उन्हें भी व्यापक स्तर पर इस मुहिम का हिस्सा बनाना होगा.

चौथा, हमें कृषि-वानिकी पर फोकस करना होगा. वानिकी का उद्देश्य केवल पौधारोपण तक ही सीमित नहीं होना चाहिए. इसे कृषि-वानिकी के माध्यम से लाभकारी भी बनाया जा सकता है. इसके माध्यम से आप अनुपयोगी जमीन को इस्तेमाल में ला सकते हैं. कुछ वर्ष पूर्व वानिकी से जुड़ा एक कानून बना था कि अगर व्यावसायिक उद्देश्य के लिए वनों को काटा जाता है, तो उसे संतुलित करने के लिए कंपनियों को वानिकी हेतु अनुदान देना होगा. यह एक महत्वपूर्ण प्रतिपूरक प्रावधान है. समय आ गया है कि इस फंड का प्रभावी तरीके से वानिकी के लिए इस्तेमाल किया जाये.

वर्ष 2015 में हुए पेरिस जलवायु समझौते में निर्धारित संकल्पों के अनुरूप भारत पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन के लिए निरंतर प्रयत्नशील है. केंद्रीय पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद को जानकारी दी है कि जी-20 देशों में भारत अकेला देश है, जो समझौते का अनुपालन कर रहा है.

वन क्षेत्रों को बचाना और बढ़ाना पर्यावरण को बचाने व बेहतर करने के लिए सबसे जरूरी है. बीते छह सालों में हरित क्षेत्र के आकार में 15 हजार वर्ग किलोमीटर की बढ़ोतरी उत्साहवर्द्धक है. केंद्र सरकार ने इस सिलसिले को जारी रखने के लिए राज्यों को 48 हजार करोड़ रुपये का आवंटन किया है, जिसका 80 प्रतिशत हिस्सा वन क्षेत्र के विस्तार पर खर्च करने का निर्देश है.

जीवाश्म आधारित ईंधनों पर निर्भरता कम करने के लिए स्वच्छ ऊर्जा के उत्पादन और उपभोग को प्रोत्साहित किया जा रहा है. न केवल देश में, बल्कि दुनियाभर में सौर ऊर्जा का विस्तार करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन का गठन किया गया है, जिससे कई देश जुड़ चुके हैं. हमारे देश में अभी 90 गीगावाट स्वच्छ ऊर्जा का उत्पादन हो रहा है, जो अगले साल 175 गीगावाट होने की उम्मीद है.

यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि हमारे देश में इलेक्ट्रिक वाहनों की मांग बढ़ती जा रही है. साल 2017-18 में 69 हजार से कुछ अधिक ऐसे वाहनों की बिक्री हुई थी, जो बीते साल 1.67 से अधिक हो गयी. सरकार और उद्योग जगत को प्रदूषणरहित वाहनों के इस्तेमाल को बढ़ाने पर ज्यादा जोर देना चाहिए. जलवायु परिवर्तन और धरती का तापमान बढ़ने की सबसे बड़ी वजह कार्बन उत्सर्जन है. हमारे देश में 2005 की तुलना में कार्बन उत्सर्जन में 21 प्रतिशत की गिरावट आयी है.

स्वच्छ ऊर्जा को बढ़ावा देने और उत्सर्जन में व्यापक कटौती की आवश्यकता इसलिए भी है कि 2040 तक देश में ऊर्जा की मांग तीन गुनी हो जायेगी. हालांकि जलवायु परिवर्तन एक वैश्विक समस्या है और उसका समुचित समाधान अंतरराष्ट्रीय सहयोग से ही हो सकता है, लेकिन यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि इसके कुप्रभावों का अधिक सामना भारत जैसे देशों को ही करना है. ग्लेशियरों का पिघलने, समुद्री जल-स्तर के बढ़ने, बाढ़, सूखे, चक्रवात आदि से हमें बहुत नुकसान उठाना पड़ रहा है.

जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढ़ने लगी हैं. बेमौसम की बरसात खेती पर कहर ढाने लगी है. पेयजल की कमी और भूजल का स्तर नीचे जाना चिंताजनक है. विकास की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए ऊर्जा स्रोतों के साथ पानी की मांग भी बढ़ रही है. ऐसे में जलवायु को संतुलित रखते हुए पर्यावरण को बचाने की चुनौती बढ़ गयी है. निश्चित रूप से भारत की कोशिशें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन इनसे संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता है. वायु और जल प्रदूषण बढ़ता जा रहा है. भूक्षरण की चिंता भी गहन हो रही है. ऐसे में पर्यावरण के लिए आवंटन और निवेश बढ़ाया जाना चाहिए.

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