खंडहर की हर ईंट गवाह है, वीरानी के पहले बहार हुआ करती थी।

खंडहर की हर ईंट गवाह है,
वीरानी के पहले बहार हुआ करती थी।

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ये खंडहर उस जमाने के डी०ए०वी० उच्च विद्यालय, सीवान का ऑडिटोरियम(सभागार) है, जहां इसके मंच पर 1980 ई० के लगभग हिंदी साहित्य के लोकप्रिय कवि सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन “अज्ञेय” का आगमन हुआ था। उन्होंने क्या कहा था ? वो तो याद नहीं है , लेकिन उनका भव्य और आकर्षक व्यक्तित्व आज भी याद है। इसी ऑडिटोरियम के पूर्वी भाग के ऊपरी तल्ले पर इस विद्यालय के तदयुगीन प्राचार्य देवचंद शुक्ल जी का आवास था।

पूर्वी भाग के भूतल पर संस्कृत के शिक्षक अक्षयवर दीक्षित जी का आवास था,जहाँ हमारे साथ के कइयों ने “सः तौ ते” की शिक्षा प्राप्त की। पश्चिमी भाग के ऊपरी तल्ले पर छात्रावास के वार्डन रमाशंकर पांडेय जी का आवास था। छात्रावास के छात्रों की देखभाल बहुत आत्मीयता से करते थे। उस जमाने में यहां का छात्रावास बहुत प्रसिद्ध था। सामान्यतः इसमें ग्रामीण छात्रवृत्ति उत्तीर्ण छात्रों को ही दाखिला मिलता था। समय के बहुत पाबंद थे वे। इसी ऑडिटोरियम में ही हमलोगों के संगीत विषय की कक्षा चलती थी। शायद अपनी जुबान से मैंने पहला और अंतिम गीत उसी कक्षा में गाया था-“पायो जी मैंने रामरतन धन पायो”।

मैं खंडरों की ज़मीं पे कब से भटक रहा हूँ
यहीं कहीं ज़िंदगी के मअ’नी गिरे हैं
और गिर के खो गए हैं-गुलजार

ये है डी०ए०वी०हाई स्कूल ,सिवान। ठीक चालीस वर्ष पहले 1983 ई० में ये विद्यालय छूटा। आज इसी के कमरों और बरामदें को देख उस समय की कई स्मृतियां ताजी हो गई। इसमें मैंने सातवीं से दसवीं तक की पढ़ाई की है।

वहाँ पर ज़रूर होंगे
हमारे पाँवों के निशान

ये डी०ए०वी०हाई स्कूल के पहले मंजिल का पीछे का वह बरामदा है, जहां से हम सब कक्षा शुरू होने के पहले और खत्म होने के बाद खड़े होकर पीछे की सड़क के उस पार स्थित डी०ए०वी०कॉलेज के पूरे प्रांगण को हसरत भरी निगाहों से देखते थे। कॉलेज परिसर में छात्र-छात्राओं का झुंड अपनी अपनी नियत कक्षाओं के लिये एक भवन से दूसरे भवन की ओर जाते रहता था। इसे देख हम सब की इच्छा होती थी कि कब हम बड़े होंगे और इसमें नामांकन होगा? बड़े होने की उस इच्छा से हम अब चालीस वर्ष आगे आ चुके हैं।

धूल-धक्कड़ में
दब गए होंगे
या उग आई होगी घास
उड़ी होगी रेत
तो उड़े होंगे पाँवों के निशान भी
बरसा होगा पानी
तो बह गए होंगे
थोड़ी दूर तक।
– कृष्ण कल्पित

आभार-मनोज कुमार सिंह

 

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