पैरालिंपिक में हौसलों की ऊंची उड़ान से उम्मीदें.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

ओलिंपिक खेलों में विश्वभर के विरला खिलाड़ी शामिल होते हैं. इनमें जो जीत कर लौटता है, वह महानायक बनता है. इसके विपरीत पैरालिंपिक में असली जिंदगी के महानायक खेल के मैदान पर हुनर दिखाते हैं. एथलेटिक्स में बाधा दौड़ की तरह इन महानायकों की जिंदगी में अनेक बाधाएं आती हैं, जिन्हें एक-एक कर पार कर वे फिनिशिंग लाइन तक पहुंचते हैं और फिर पैरालिंपिक खेलों का हिस्सा बनते हैं.

तोक्यो ओलिंपिक-2020 के बाद अब तोक्यो पैरालिंपिक 2020 की बारी है. जब 24 अगस्त को इस आयोजन का उद्घाटन समारोह हुआ, तो मनोरंजन के लिए कलाकार तो थे ही, लेकिन उसका बहुचर्चित थीम सॉन्ग ‘वी हैव दी विंग्स’- हमारे पास पंख हैं और हम उड़ान भरना जानते हैं- विश्व को एक खास संदेश दे रहा था. चूंकि यह संदेश असली जिंदगी के लड़ाके महानायकों के बीच से आया था, तो इसमें ठोस प्रमाणिकता थी. यह संदेश अलग-अलग देशों में रह रहे 15 फीसदी दिव्यांग लोगों से कहीं अधिक बाकी लोगों के लिए था. इस आयोजन में शामिल खिलाड़ियों की असली चुनौतियों की गहराई क्या है, इसे भारतीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्यों के जरिये समझने की कोशिश करते हैं.

भाविनाबेन पटेल- इन्होंने तोक्यो पैरालिंपिक में रजत पदक जीता. निषाद कुमार ने भी रजत और विनोद कुमार ने कांस्य पदक जीता. गुजरात के वडनगर की 34 साल की भाविना जब यहां आयी थीं, तो उनकी विश्व रैंकिंग 12 थी, लेकिन उलटफेर करते हुए इस टेबल टेनिस खिलाड़ी ने अब तक अधिक वरीयता प्राप्त तीन खिलाडियों को शिकस्त दी है. भावना जब 12 महीने की थीं, तो उन्हें पोलियो हो गया और बाद में नियमित इलाज और अभ्यास न होने की वजह से उनकी आंखों की रोशनी कम होती चली गयी.

साल 2004 में माता-पिता ने उनका दाखिला अहमदाबाद में ब्लाइंड पीपल एसोसिएशन में करा दिया. भाविना ने यहां कंप्यूटर का कोर्स किया और टेबल टेनिस खेलना शुरू किया. रियो पैरालिंपिक में वे तकनीकी वजहों से हिस्सा नहीं ले सकीं, लेकिन तोक्यो के लिए क्वालीफाई कर उन्होंने इतिहास रच दिया. पैरालिंपिक खेलों में टेबल टेनिस व्यक्तिगत वर्ग में क्वालीफाई करनेवाली वे पहली भारतीय हैं.

टेकचंद ने शॉट पुट एफ-55 में उन्होंने अपने करियर का बेहतरीन प्रदर्शन करते हुए नौ मीटर से अधिक दूरी तय की, लेकिन यह मेडल के लिए काफी नहीं था. असली जिंदगी का बाजीगर टेकचंद इस हार से सीख लेकर आगे बढ़ने को तैयार है. हरियाणा में रेवाड़ी के निवासी टेकचंद 2005 में दुर्घटना और फिर लकवे का शिकार हुए. दस साल तक अधर में रहने के बाद उनके एक दोस्त ने उन्हें पारा खेलों में संभावनाओं के बारे में बताया.

उन्होंने 2018 पारा एशियाई खेलों में शॉट पुट में कांस्य पदक जीता. उसी साल वर्ल्ड पारा ऐथलेटिक्स ग्रांप्री में टेकचंद ने रजत पदक जीता. इस बार भारतीय तीरंदाजों के निशाने पर भी मेडल हैं. तीस बरस के हरविंदर सिंह जब डेढ़ साल के थे, तो उन्हें डेंगू हुआ. ईलाज के दौरान उनके दोनों पैरों ने ठीक से काम करना बंद कर दिया. हरविंदर तमाम बाधाओं को पार कर पंजाब यूनिवर्सिटी पहुंचे और तीरंदाजी सीखने लगे. साल 2018 एशियाई पैरालिंपिक में गोल्ड मेडल विजेता हरविंदर से तोक्यो में बड़ी उम्मीदें हैं.

इकतीस साल के विवेक चिकारा ने 2017 में हुई एक सड़क हादसे में बायें पैर को गंवा दिया. उन्होंने मेरठ के गुरुकुल प्रभात अकादमी में तीरंदाजी में खुद को ऐसे लगा दिया कि अपनी नौकरी तक छोड़ दी. साल 2019 में एशिया पारा तीरंदाजी का यह गोल्ड मेडल विजेता तोक्यो में भी दौड़ में है.

साल 2009 में राकेश अपनी कार समेत एक खाई में गिर गये थे, जिस कारण कमर के नीचे पूरे हिस्से ने काम करना बंद कर दिया. जम्मू में कटरा के निवासी राकेश के इलाज पर खर्च से पूरा परिवार बेबस हो गया. राकेश ने कई मर्तबा खुदकुशी की कोशिश भी की. आखिरकार सड़क किनारे एक दुकान चलाने लगे, जहां तीरंदाजी के एक कोच की उन पर नजर पड़ी.

तोक्यो पैरालिंपिक में 54 सदस्यीय भारतीय दल में हर सदस्य प्रेरणा और दिलेरी की मिसाल है. इनमें दो पहले भी अपनी छाप छोड़ चुके हैं और जिन पर देश की नजरें इस बार भी टिकी हैं- मरियप्पन थांगवेलु और देवेंद्र झाझरिया. मरियप्पन उन तीन भारतीय खिलाड़ियों में शामिल हैं, जिनके नाम पैरालिंपिक में गोल्ड मेडल जीतने का श्रेय है. पुरुष हाई जंप में इस बार उन्हें अपने ही देश के वरुण सिंह भाटी और शरद कुमार से कड़ी टक्कर मिलने की उम्मीद है. रियो में गोल्ड मेडल विजेता मरियप्पन ने पांच साल की छोटी उम्र में ही मौत को मात दी थी, जब शराब के नशे में धुत एक बस ड्राइवर उनको लगभग रौंदकर चला गया था.

शरद कुमार दो साल की उम्र में पोलियो के शिकार हुए, जब उन्हें गलत दवा दे दी गयी. वरुण सिंह भाटी को छह साल की उम्र में पोलियो हुआ. तोक्यो ओलिंपिक अगर जेवलिन थ्रो में भारत के नीरज चोपड़ा के नाम रहा, तो तोक्यो पैरालिंपिक में देवेंद्र झाझरिया इसी खेल में और लंबी उड़ान भरने के करीब हैं. चालीस साल के देवेंद्र वर्ल्ड चैंपियन हैं और मौजूदा वर्ल्ड रिकॉर्ड उनके नाम है. आठ साल की उम्र में बिजली के झटके कारण उनका बायां हाथ काटना पड़ा था. इनके हौसले हमें संदेश देते हैं कि अगर ये इतनी ऊंची उड़ान उड़ सकते हैं, तो हमें रुकने की बजाय दो कदम चलने से किसने रोका है!

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