‘भारत सावित्री’ पुस्तक में दार्शनिक विकास के क्रम में महाभारत की व्याख्या.

‘भारत सावित्री’ पुस्तक में दार्शनिक विकास के क्रम में महाभारत की व्याख्या.

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

प्राचीन भारतीय इतिहास और संस्कृति के महान अध्येता और डा. राधाकुमुद मुखर्जी के शिष्य डा. वासुदेवशरण अग्रवाल का नाम कई क्षेत्रों में अतुलनीय है। इनमें पुराणोतिहास, प्रतीक विज्ञान, मूर्तिकला, वास्तुकला और धर्म-दर्शन के अलावा वैदिक साहित्य विशेष तौर पर शामिल हैं। वासुदेवशरण अग्रवाल का तीन खंडों में प्रकाशित ग्रंथ ‘भारत सावित्री’ महाभारत पर आधारित था। यह महाभारत का एक नया अध्ययन प्रस्तुत करता है, जिसके 28 लेख एक साप्ताहिक पत्र में वर्ष 1953-54 के दौरान प्रकाशित हुए, जबकि किताब का शेष अंश बाद में लिखा गया।

सस्ता साहित्य मंडल प्रकाशन ने इसका नया संस्करण इसी वर्ष प्रकाशित किया है। ‘भारत सावित्री’ के तीन खंडों में पहला खंड आदि पर्व से शुरू होकर विराट पर्व, दूसरा खंड उद्योग पर्व से स्त्री पर्व और अंतिम खंड शांति पर्व से आरंभ करके स्वर्गारोहण पर्व तक जाता है। प्रकाशन के समय लेखक ने इसकी भूमिका में इंगित किया था, ‘धर्म अथवा मोक्ष के विषय में जो कुछ भी मूल्यवान अंश महाभारत में है, उस पर प्रस्तुत अध्ययन में विशेष ध्यान दिया गया है। साथ ही महाभारत में जो सांस्कृतिक सामग्री है, उसकी व्याख्या का पुट भी यहां मिलेगा, यद्यपि इस विषय में सब सामग्री को विस्तार के साथ लेना स्थानाभाव से संभव नहीं था।’

यह देखने वाली बात है कि महाभारत को तार्किक बुद्धि से विश्लेषित करते हुए रचनाकार ने इस महान आख्यान के समन्वयवादी मूल्यों को पृष्ठभूमि में रखा है। जैसे, वे इस पूरी कथा-यात्र में विभिन्न कालखंडों में हुए महाभारत के अनेक संस्करणों को अपने अध्ययन के दायरे में रखते हुए कोई बीच का प्रासंगिक मार्ग निर्धारित करने की चेष्टा करते हैं। उनका तर्क है, ‘महाभारत की पाठ परंपरा में इसके कई संस्करण संभावित ज्ञात होते हैं। उनमें से एक शुंगकाल में और दूसरा गुप्तकाल में संपन्न हुआ जान पड़ता है। जीवन और धर्म के विषय में भागवतों का जो समन्वयात्मक शालीन दृष्टिकोण था, उससे महाभारत के कथा-प्रसंगों में नई शक्ति और सरसता भर गई है।’

इतिहासकार ने महाभारत की विशेषताएं गिनाते हुए भारतीय दर्शनों के इतिहास में उपस्थित पांच बड़े मार्गो का औचित्य, इस महान ग्रंथ के संदर्भ में परखा है। इसमें पहला ऋग्वेदकालीन दर्शन है, जिसके दार्शनिक दृष्टिकोण की चर्चा यहां की गई है। दूसरा, उपनिषद युग के अंत और बुद्ध से कुछ पूर्व अस्तित्व में आए उस युग के दर्शन का उल्लेख है, जिसका विवरण ‘श्वेताश्वतर उपनिषद’ में आता है।

दार्शनिक विकास का तीसरा मोड़ वह महाभारत के संदर्भ में उस ‘षडदर्शन’ के रूप में देखते हैं जिसके अंतर्गत, मीमांसा, सांख्य, वेदांत आदि आते हैं। विकास की चौथी सीढ़ी पंचरात्र, भागवत, पाशुपत तथा शैव दर्शन के रूप में अभिव्यक्त हुई है, जबकि अंतिम और पांचवां मार्ग, अभिनव शांकर वेदांत, भक्ति आदि दर्शनों के पारस्परिक प्रभाव, सम्मिलन और ऊहापोह आदि के विस्तार से संबंधित है।

दार्शनिक विकास की सीढ़ियां चढ़ते हुए वासुदेवशरण अग्रवाल मूल महाभारत की अवधारणा का विवेचन करते हैं। वे इसके तर्क के संदर्भ में ‘शांति पर्व’ की व्याख्या की ओर ध्यान दिलाते हैं, जिसमें इन दर्शनों की झांकी देखी जा सकती है। उदाहरणस्वरूप ‘आरण्यक पर्व’ में द्रौपदी ने बृहस्पति के कहे हुए, जिस नीतिशास्त्र को दोहराया है, वह लोकायत दर्शन है, जो मूल में कर्मवाद की प्रतिष्ठा करता है।

महाभारत की विशेषताएं विश्लेषित करते हुए वे ढेरों ऐसी स्थापनाओं से गुजरते हैं, जो सुभाषित की तरह अलग से जीवन संदर्भो के तहत अपरिमित ज्ञान की तरह संचित की जा सकती हैं। जैसे, बुद्धिपूर्वक रहने और कर्म करने की जिस जीवन-पद्धति का विकास युगों-युगों के भीतर से भारतीय समाज ने किया था, उसे शिष्टाचार की संज्ञा दी गई और वही धर्म में प्रमाण माना गया। सृष्टि कहीं भी हो, एक यज्ञ है, कर्मो में असंगभाव की प्राप्ति के लिए अहंकार का हटना आवश्यक है, ईश्वर अजन्मा और अव्यय है, वह प्रकृति का अधिष्ठाता या स्वामी है और स्वयं अपनी माया से अनेक योनियों में जन्म लेता है।

यह ग्रंथ इतना गंभीर, तर्कपूर्ण, आध्यात्मिक कथाओं से परिपूर्ण और विराट का वैभव रचने वाला है कि पढ़ते हुए कई दफा इसकी टीका को ठहरकर ग्रहण करने की आवश्यकता होती है। महाभारत का आधुनिक और सारगíभत भाष्य करते हुए, जैसे रचनाकार ने फिर से महाभारत को 20वीं शताब्दी की भाषा में रूपायित कर दिया है। इस असाधारण विवेचना को पढ़ना रोचक अनुभव है। यह व्याख्या इतनी प्रामाणिक और सुललित है कि इससे गुजरकर हम अपने पुराने ग्रंथों की कीर्ति पताका को सामयिक अर्थो में बड़े धरातल पर प्रतिष्ठित होता हुआ देख सकते हैं।

इस महान ग्रंथ के देवतुल्य पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी इतिहासकार ने अभिनवता लाने की कोशिश की है। प्रशंसा की बात यह है कि रचनाकार ने इन चरित्रों की उदात्त भावनाओं या दुर्बलताओं को भी तटस्थता से परखते हुए संतुलित ढंग से अपनी व्याख्या में स्थान दिया है। स्वाधीनता के 75वें वर्ष में, हर तरह से पठनीय और स्मरणयोग्य पुस्तक, जो भारतीयता को समझने के एक बड़े सांस्कृतिक आंगन में ले जाती है।

Leave a Reply

error: Content is protected !!