लोकतंत्र की गरिमा के लिए संसद का दागमुक्त होना जरूरी.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

बीते दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने बिकरू कांड के आरोपित पुलिसवालों की जमानत याचिका पर सुनवाई करते हुए राजनीति के अपराधीकरण के संबंध में कई महत्वपूर्ण बातें कहीं। न्यायालय ने कहा कि देश में राजनीतिक दलों में यह आम चलन है कि वे अपराधियों का स्वागत करते हैं और वे उस पार्टी के लिए संगठित अपराध करने को तैयार रहते हैं। अपराध करने पर राजनीतिक दल उन्हें समर्थन देकर बचाते हैं। न्यायालय ने कहा कि सभी दल मिलकर यह तय करें कि अपराधियों को राजनीतिक संरक्षण और चुनाव में टिकट नहीं देंगे।

वैसे सभी राजनीतिक दल स्वच्छ राजनीति की बात करते नजर आते हैं, लेकिन जब टिकट देने की बात आती है, तो उनकी कथनी-करनी में समानता नहीं दिखती। शुचितारहित राजनीति की यह स्थिति जितनी चिंतित नहीं करती, उससे अधिक चिंता इसके प्रति देश की सरकारों की उदासीनता को देखकर होती है।

भारतीय राजनीति को दागीमुक्त करने के लिए कोई ठोस पहल करने की इच्छाशक्ति किसी सरकार ने अब तक नहीं दिखाई है। अनेक बड़े और ऐतिहासिक फैसले लेने वाली भाजपा सरकार भी दागीमुक्त राजनीति की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठा सकी है।

मौजूदा वक्त में गंभीर मामलों में आरोपित दागी जनप्रतिनिधियों के दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता जाने तथा अगले छह वर्षो तक चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य सिद्ध होने का प्रविधान है। लेकिन दागियों के संबंध में यह दंडात्मक व्यवस्था आसानी से लागू हो गई हो, ऐसा भी नहीं है। वर्ष 2013 में सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले के तहत दागी सांसदों के दोषी सिद्ध होने पर सदस्यता खो देने की व्यवस्था का एलान किया था, जिसको पलटने के लिए तत्कालीन संप्रग सरकार अध्यादेश ले आई।

मगर तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने इस अध्यादेश को पुनíवचार के लिए जब सरकार को वापस कर दिया और जनता के बीच से भी विरोध की आवाजें उठने लगीं तो संप्रग सरकार को अपनी भूल का अहसास हुआ। फिर राहुल गांधी द्वारा सरेआम इस अध्यादेश को ‘बकवास’ बताने का नाटक हुआ और सरकार ने अध्यादेश वापस ले लिया तथा सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय लागू हो गया। मगर इस पूरे प्रकरण ने दागियों को लेकर तत्कालीन कांग्रेसनीत संप्रग सरकार के लगाव को जगजाहिर कर दिया था।

दागियों के प्रति राजनीतिक दलों का लगाव आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि लगभग सभी दलों में कमोबेश दागियों की भरमार है, ऐसे में वे दागी जनप्रतिनिधियों का विरोध कर भी कैसे सकते हैं। प्राय: आपराधिक पृष्ठभूमि वाले नेताओं का अपने क्षेत्र में विशेष दबदबा रहता है और जनता में व्याप्त उनके भय के कारण भी उनकी जीत लगभग सुनिश्चित रहती है, इस कारण अधिकांश दल ऐसे नेताओं पर दांव खेलने में आगे रहते हैं।

दागीमुक्त राजनीति के लिए जरूरी है कि बिना देर किए फास्ट ट्रैक अदालतों का गठन कर दागी नेताओं पर चल रहे मुकदमों का तुरंत निपटारा किया जाए। यह नियम तो ठीक है कि दोषी करार दिए जाने के बाद जनप्रतिनिधि अपनी सदस्यता खो देते हैं और चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य हो जाते हैं, लेकिन इसके साथ ही दोषी नेता को सजा पूरी होने तक राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का नियम भी लागू कर दिया जाए तो बेहतर रहेगा।

वैसे दागियों से मुक्त राजनीति का स्वप्न सिर्फ सरकार के प्रयास से साकार नहीं होगा, यह जनता की भी जिम्मेदारी है। जब तक अपना जनप्रतिनिधि चुनते समय लोग जाति, धर्म, क्षेत्र से ऊपर उठकर प्रत्याशी की छवि को ध्यान में रखकर मतदान नहीं करेंगे, दागीमुक्त राजनीति संभव नहीं है। लोकतंत्र की गरिमा को सुरक्षित रखने के लिए देश की संसद का दागमुक्त होना आवश्यक है।

 

 

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