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कोरोना टीका नहीं लगवाने वालों का ज़बरदस्ती वैक्सीनेशन ,क्या कहता है क़ानून?

कोरोना टीका नहीं लगवाने वालों का ज़बरदस्ती वैक्सीनेशन ,क्या कहता है क़ानून?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

मैं नहीं लगवाऊँगा टीका

जिस समय हमेरा देश में ये बहस तेज हो गई है कि क्या केंद्र सरकार को कोरोना की वैक्सीन सब लोगों के लिए अनिवार्य कर देनी चाहिए उस दौर में वकील प्रशांत भूषण ने वैक्सीन की क्षमता पर सवाल उठाते हुए वैक्सीन नहीं लेने की बात कही है। प्रशांत भूषण ने कोरोना वैक्सीन की क्षमता पर सवाल उठाए हालांकि उनकी टिप्पणी को आम जनों के अलावा केंद्र सरकार ने भी नकारा। इसके अलावा कोविड-19 प्रमुख एनके अरोड़ा ने भी इसे खारिज कर दिया। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने अख़बार में एक छपी ख़बर की क्लिपिंग को ट्विटर पर पोस्ट कि जिसमें बताया गया है कि दिल्ली के एक निवासी गंगा प्रसाद ने 14 अप्रैल को अपनी पत्नी और 5 बेटियों के साथ कोरोना टीका लगवाया।

बाद में पीड़ित से मिली जानकारी के आधार पर बताया कि कोविड-19 टीका के बाद गंगा प्रसाद की पत्नी सविता बीमार पड़ी और 10 दिन के बाद गुजर गयीं। इससे आहत गंगाप्रसाद और उनके परिवार का कहना है की वैक्सीन लेने के बाद सविता की हालत बिगड़ती चली गई। सविता की मौत के बाद परिवार में कोई व्यक्ति वैक्सीन नहीं ले रहा। यहां तक कि मेरे पड़ोसियों ने भी वैक्सीन लेने से इनकार कर दिया। मैं खुद को पूछता हूं कि मैंने सविता को टीका क्यों लगाया लगवाया? रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट के वकील प्रशांत भूषण ने अपने ट्विटर पेज पर शेयर किया। उन्होंने कहा कि सरकार वैक्सीन से होने वाली रिएक्शन से जुड़ी घटनाओं की प्लानिंग नहीं कर रही है और ना ही उनका डाटा जारी कर रही है।

प्रशांत भूषण लिखते हैं कई लोगों को जिनमें मेरे दोस्त और परिवार के लोग भी शामिल हैं उन्होंने मुझ पर वैक्सीन को लेकर पैदा हुए संदेह को बढ़ावा देने का आरोप लगाया। मुझे अपनी स्थिति स्पष्ट करनी है। मैं वैक्सीन विरोधी नहीं हूं लेकिन मेरा मानना है कि एक्सपेरिमेंटल और टेस्ट ना किए गए यूनिवर्सल वैक्सीनेशन को बढ़ावा देना गैर जिम्मेदाराना है। खासकर युवा और को कोविड से ठीक हुए लोगों के लिए। उन्होंने तो यहाँ तक लिख दिया कि ‘स्वस्थ युवाओं में कोविड के कारण गंभीर प्रभाव या मृत्यु की संभावना बहुत कम होती है।

टीकों के कारण उनके मरने की संभावना अधिक होती है। एक और ट्वीट में उन्होंने लिखा कि मैंने अभी तक कोरोना की वैक्सीन नहीं ली है और ना ही लेने का इरादा है। उनके इस ट्वीट को भी ट्विटर ने भ्रामक बता दिया। बाद में प्रशांत भूषण ने ट्वीट कर कहा कि ट्विटर ने उनके ट्वीट को भ्रामक बताया है और उनके खाते को 12 घंटों के लिए ब्लॉक कर दिया।

क्या कहा कोर्ट ने

मेघालय हाईकोर्ट की तरफ से कहा गया कि किसी की आजीविका को जारी रखने के लिए इस तरह का ऑर्डर सही नहीं है। अदालत की ओर से कहा गया है कि वैक्सीनेशन के बारे में लोगों को जानकारी देना सरकार की जिम्मेदारी है। हालांकि, कोर्ट की ओर से मौजूदा हालात को देखते हुए वैक्सीनेशन बेहतर उपाय बताया गया है. लेकिन इसे किसी तरह से अनिवार्य करना या आजीविका के बीच में बंधन बनाने पर आपत्ति जताई है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में स्वास्थ्य के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में शामिल किया गया है। इसी तरह से स्वास्थ्य देखभाल का अधिकार, जिसमें टीकाकरण शामिल है, एक मौलिक अधिकार है। हालांकि ज़बरदस्ती टीकाकरण के तरीकों को अपनाकर अनिवार्य बनाया जा रहा है, यह इससे जुड़े कल्याण के मूल उद्देश्य को नष्ट कर देता है। यह मौलिक अधिकार (अधिकारों) को प्रभावित करता है, खासकर जब यह आजीविका के साधनों के अधिकार को प्रभावित करता है जिससे व्यक्ति के लिए जीना संभव होता है।”

केंद्र सरकार की क्या है राय

अभी केंद्र सरकार का कहना है कि जो लोग वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते उनपर इसके लिए दवाब नहीं बनाया जाएगा। न ही वैक्सीन जबरदस्ती उनपर थोपी जाएगी। बीते दिनों केंद्रीय स्वाथ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के एक बयान दिया था जिसमें उन्होंने कहा था कि जो लोग वैक्सीन नहीं लगवाना चाहते सरकार इस वक्त उनपर दवाब नहीं बनाएगी। बल्कि लोगों को जागरूक किया जाएगा। सरल शब्दों में कहे तो अभी वैक्सीन लेने और नहीं लेने का फैसला लोगों की सहमति पर निर्भर करता है।

क्या केंद्र सरकार ऐसा कर सकती है?

जवाब है हां, एपिडेमिक डिज़ीज़ एक्ट 1897 के तहत केंद्र सरकार ऐसा कोई भी कदम उठा सकती है जो महामारी को रोकने के लिए जरूरी है। यानि इसके तहत सरकार चाहे तो कोरोना की वैक्सीन सभी लोगों के लिए अनिवार्य कर सकती है। इसके अलावा 2005 से लागू राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन क़ानून के तहत भी सभी लोगों के लिए अनिवार्य कर सकती है।

वैक्सीनेशन की अनिवार्यता

सुप्रीम कोर्ट के वकील सिताब अली चौधरी का मानना है कि अनिवार्य टीकाकरण के लिए किसी को मजबूर नहीं किया जा सकता है और मेघालय हाई कोर्ट ने अपने आदेशों में इसके तहत व्याख्या भी की है। उनका कहना है कि मौलिक व निजता के अधिकार और स्वास्थ्य के अधिकार के बीच सामंजस्य बनाना बेहद ज़रूरी है। अनिवार्य टीकाकरण के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। यूनिवर्सल अनिवार्य वैक्सीनेशन मौलिक अधिकारो के विरुद्ध है, निजता के अधिकार के साथ विशेषकर। अभी तक ये भी पता नहीं कि एक साल में टीके की दो ख़ुराक लेने के बाद क्या हर साल ये टीका लेना पड़ेगा। ऐसे में जब यही नहीं पता तो फिर टीकाकरण को अनिवार्य कैसे किया जा सकता है?

 

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