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2036 तक मूल्यहीन हो जाएंगी जीवाश्म ईंधन परिसंपत्तियां.

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के तौर-तरीकों पर दुनिया के करीब 200 देश स्काटलैंड के ग्लासगो में 26वीं कांफ्रेंस आफ पार्टीज (सीओपी26) में चर्चा कर रहे हैं। इसमें ग्लोबल वार्मिंग से निपटने के लिए उपाय के तौर पर नेट जीरो की ओर कदम बढ़ाने पर सहमति बनती दिख रही है। भारत ने भी 2070 तक नेट जीरो की बात कही है। नेट जीरो की प्रतिबद्धताओं पर अमल से जीवाश्म ईंधनों के प्रयोग में कमी स्वाभाविक है।

ऐसे में इन ईंधनों के निर्यात या आयात पर निर्भर अर्थव्यवस्थाओं पर किस तरह प्रभाव पड़ेगा, इसे लेकर विज्ञान पत्रिका नेचर एनर्जी में अध्ययन प्रकाशित किया गया है। अध्ययन में बताया गया है कि अगर दुनिया नेट जीरो की दिशा में बढ़ती है तो अगले 15 साल में धरती के भीतर से निकलने वाले यानी जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परिसंपत्तियों का मूल्य प्रभावित होगा। आकलन के मुताबिक उस समय तक करीब आधी संपत्तियां मूल्यहीन हो जाएंगी।

सीओपी26 में भी दिख रही है सुगबुगाहट : नेट जीरो से विभिन्न देशों की अर्थव्यवस्था पर असर की सुगबुगाहट सीओपी26 में भी दिख रही है। रूस और ब्राजील जैसे तेल व गैस के बड़े निर्यातक देश हमेशा की तरह इस प्रयास में हैं कि स्वच्छ ऊर्जा की तरफ कदम धीरे-धीरे बढ़ाए जाएं। पिछली बैठकों में भी इनका ऐसा ही प्रयास रहा है। इसका कारण यही है कि जितनी जल्दी दुनिया स्वच्छ ईंधन की ओर बढ़ेगी, उतनी जल्दी इन देशों में जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परिसंपत्तियों का मोल कम हो जाएगा। दूसरी ओर, यूरोपीय संघ जैसे जीवाश्म ईंधन के आयातक देश इस दिशा में तेज कदम बढ़ाने की पैरवी कर रहे हैं।

बदलेगा अर्थव्यवस्था का स्वरूप : अध्ययन में कहा गया है कि 2050 तक नेट जीरो की ओर बढ़ने की विभिन्न देशों की प्रतिबद्धता से जहां अक्षय ऊर्जा से जुड़े विकल्प सस्ते होंगे और उनकी मांग बढ़ेगी, वहीं जीवाश्म ईंधनों की कीमत में उतार-चढ़ाव दिखेगा। कई पेट्रोलियम एवं कोयला रिजर्व जस के तस पड़े रह जाएंगे और इनसे जुड़ी मशीनों व इन्फ्रास्ट्रक्चर का मोल भी कम हो जाएगा। यूरोपीय संघ, भारत, जापान और कोरिया से जैसे आयातक देश फायदे में रहेंगे। इन देशों के पास आयात बिल से बचा पैसा अक्षय ऊर्जा से जुड़ी तकनीकों पर खर्च करने का विकल्प होगा। इससे इन्फ्रास्ट्रक्चर में सुधार के साथ-साथ रोजगार के नए अवसर भी पैदा होंगे.

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