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भारतीय लोकतंत्र का आधार-निर्वाचन आयोग - श्रीनारद मीडिया

भारतीय लोकतंत्र का आधार-निर्वाचन आयोग

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प्रथम चुनाव की कहानी है बड़ी दिवानी।

वोट डालना हमारा मौलिक अधिकार है।
सारी समस्याएं हारी, सब पर मतदान भारी।

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

हम भारत के नागरिक लोकतंत्र में पुलिस स्थायी विश्वास रखते हुए धर्म, वर्ण, अपर जाति, समुदाय, भाषा या किसी प्रलोभन से बिना प्रभावित हुए भयमुक्त मतदान करने तथा स्वतंत्र, स्वच्छ एवं शांतिपूर्ण चुनाव की गरिमा एवं अपने देश की लोकतांत्रिक परंपरा को कायम रखेंगे। उत्साह के साथ शिरकत कर रहे हैं।

दान के बारे में प्रायः कहा जाता है कि यह सदैव फलता है और साथ ही साथ परोक्ष रूप से सुख-समृद्धि भी प्रदान करता है। मतदान के महत्त्व को समझते हुए कई काव्यकारों ने अपनी कलम चलाई है।
ओ मतदाता, ओ मतदाता,
तुम भारत के भाग्य विधाता

राजसूय-सम आज राष्ट्र-हित,
यह चुनाव है, होने जाता
कागज का यह नन्हा टुकड़ा,
भारत माता का संबल है
वोट नहीं यह तेरे कर में
महायज्ञ-हित तुलसी-दल है।
यानी – राष्ट्र के प्रति जो भाव और निष्ठा – अपेक्षित है, वही संस्कार चुनाव के – संदर्भ में भी जरूरी है। इसी मनोभाव – को बढ़ाने की आवश्यकता हैं ताकि – लोकतंत्र की भूमि में उपजा यह वृक्ष अधिकाधिक विशालकाय व छायादार बन सके। साथ-साथ निष्पक्ष एवं शांतिपूर्ण मतदान हेतु कई उपाय भी किए हैं। जो आज दूरगामी परिणाम दे रहे हैं।
मतदाता और मत प्राप्तकर्त्ता दोनों का बड़ा दायित्व होता है। क्योंकि कहा जाता है कि जैसा बीज वैसा वृक्ष । नीतियां, सिद्धांत, मूल्य, आदर्श आज भी जिंदा हैं, लेकिन राजनीति व्यवहार में वे स्वांग सा हो रहे हैं। यों कहें कि वे मात्र शोभा की वस्तु बन गये हैं। बहुत लोग आदर्शों, मूल्यों की दुहाई जरूर देते हैं पर इन्हीं आदर्शों को चुनाव के दरमियान भूलने में उन्हें ज्यादा वक्त भी नहीं लगता। संविधान संशोधन के उपरांत दल- बदल पर रोक लगाने के लिए व्यवस्था तो निश्चित रूप से की गयी किन्तु दल-बदल भी यदा-कदा हो ही जाता है।
भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, महंगाई, आर्थिक अपराध और सामाजिक विषमता, विकास के अवसरों की असमानता आदि मुद्दे निश्चित रूप से महत्वपूर्ण है। उसी के अंशों पर आधारित है।


भारत का पहला आम चुनाव कई चीजों के अलावा एक विश्वास का विषय था। एक नया-नया आजाद हुआ मुल्क सार्वभौम मताधिकार के तहत सीधे तौर पर अपने हुक्मरानों को चुनने जा रहा था। इसके लिये हमने वह रास्ता अख्तियार नहीं किया जो पश्चिमी देशों का था। वहां कुछ संपत्तिशाली तबकों को ही मतदान का हक मिला था। बहुत बाद तक वहां कामगारों और महिलाओं की मतदान का हक नहीं मिला था। लेकिन हिन्दुस्तान में ऐसा नहीं हुआ। मुल्क 1947 में आजाद हुआ और इसके दो साल बाद यहाँ एक चुनाव आयोग का गठन कर दिया गया। मार्च 1950 में ही जनप्रतिनिधि कानून संसद से पारित कर दिया गया।पारित कर दिया गया। इस कानून को पेश करते हुए संसद में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने कहा की 1951 के बसंत महीने तक चुनाव करवा लिए जाएंगे।

प्रथम चुनाव आयुक्त-सुकुमार सेन

भारत के प्रथम चुनाव आयुक्त सुकुमार सेन का जन्म 1889 में हुआ था और उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज और लंदन यूनीवर्सिटी में पढ़ाई की थी। लंदन यूनीवर्सिटी में उन्हें गोर्ल्ड मेडल भी मिला था। उसके बाद उन्होंने 1921 में इंडियन सिविल सर्विस ज्वाइन कर ली और कई जिलों में बतौर न्यायाधीश उनकी बहाली की गयी। बाद में वे पश्चिम बंगाल के मुख्य सचिव भी बने, जहां से उन्हें प्रतिनियुक्ति, पर मुख्य चुनाव आयुक्त बनाकर भेज दिया गया।

तत्कालीन चुनाव 1951-52 में मतदाताओं की कुल संख्या 17 करोड़ 60 लाख थी, जिनकी उम्र 21 साल या उससे ऊपर थी और जिसमें से 85 फीसदी न तो पढ़ सकते थे और न लिख सकते थे। उनमें से हरेक की पहचान करनी थी। उनका नाम लिखना था और उन्हें पंजीकृत करना। था। मतदाताओं का निबंधन तो महज पहला कदम था। क्योंकि मतदाताओं के लिए पार्टी प्रतीक चिन्ह, मतदान पत्र और मतपेटी किस तरह की बनायी जाये?

आखिरकार, सन् 1952 के शुरुआती महीनों में चुनाव करवाया जाना तय हुआ। कुल मिलाकर 4500 सीटों पर चुनाव होने थे जिसमें लगभग 500 संसद के लिए थे और शेष प्रांतीय विधानसभाओं के थे। इस चुनाव में 224000 मतदान केन्द्र बनाये गये और वहाँ बीस लाख इस्पात की मतपेटियां भेजी गयी । इन पेटियों के बनाने में 8200 टन इस्पात खर्च हुआ। छह महीने के अनुबंध पर 16500 क्लर्क बहाल किये गयें, ताकि मतदाता सूची को क्षेत्रवार ढंग से टाइप किया जा सके और उसका मिलान किया जा सके।

मतदान पत्रों को छापने में करीब 380000 कागज के रिम (कागज का – जो अखबारों और छापाखानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है) इस्तेमाल किये गये। चुनाव कार्य को संपादित करने के लिए 56000 पीठासीन अधिकारियों का चुनाव किया गया 5 और इनकी सहायता के लिए में 280000 सहायक बाहल किये गये। में इस चुनाव में सुरक्षा के लिए 224000 हे पुलिस के जवानों को बहाल किया न गया, ताकि हिंसा और मतदान केन्द्रों पर गड़बड़ियों को रोका जा सके।


फर्जी मतदान को रोकने के लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने एक स्याही का आविष्कार किया था, जिसे मतदाताओं के उंगली में लगा दिया जाता था और यह एक सप्ताह तक मिटता नहीं था। इस चुनाव में इस स्याही की 389816 छोटी बोतलें इस्तेमाल में लायी गयीं।

सन् 1951 में चुनाव आयोग सालभर लोगों को फिल्म और रेडियो के माध्यम से लोकतंत्र की इस महान कवायद के बारे में जागरूक करता रहा। तीन हजार सिनेमाघरों में मतदान प्रक्रिया और मतदाताओं के कर्त्तव्यों पर डॉक्युमेंट्री दिखायी गयी। लाखों- करोड़ों भारतीयों तक ऑल इंडिया रेडियो के द्वारा कई कार्यक्रमों के माध्यम से संदेश पहुंचाया गया।

उन्हें संविधान वयस्क मताधिकार का उद्देश्य, मतदाता सूची की तैयारी और मतदान प्रक्रिया के बारे में बताया गया। चुनाव अभियान बड़ी-बड़ी जनसभाओं, घर- घर जाकर प्रचार और दृश्य-श्रव्य माध्यमों के द्वारा किया गया। एक ब्रिटिश पर्यवेक्षक ने लिखा कि चुनाव प्रचार जब उफान पर था तो हर जगह परचे और पार्टी के प्रतिक चिन्ह लगा दिए गये।

चुनाव में ओजस्वी वक्ताओं की हुई प्रशंसा।

श्यामा प्रसाद मुखर्जी और जयप्रकाश नारायण जैसे नेता लाजवाब वक्ता थे। उनके भाषण सुनकर लोग मंत्रमुग्ध हो जाते थे और उनके तर्क मानने पर मजबूर हो जाते थे। चुनाव से पहले राजनीति शास्त्री रिचर्ड पार्क ने लिखा कि ‘दुनिया के किसी भी देश में प्रमुख राजनीतिक पार्टियों और नेताओं ने चुनावी रणनीति, चुनावी मुद्दों के नाटकीय प्रदर्शन, राजनैतिक भाषण कला और राजनीतिक मनोविज्ञान पर अपने अधिकार का इतना जबरदस्त प्रदर्शन नहीं किया है जितना भारत में हुआ है।

विदेशी मीडिया भी भारतीय चुनाव तंत्र का हुआ प्रशंसक।

भारत का दौरा करने वाले एक तुर्की पत्रकार ने उस चुनाव का पूरा श्रेय राष्ट्र को ही दिया। उसने कहा कि 17 करोड़ 60 लाख भारतीयों ने मतपेटियों के सामने अपने विवेक का इस्तेमाल करते हुए अपने जनप्रतिनिधियों को चुना। वह तुर्की लेखक भारत में हुए उस चुनाव से इतना प्रभावित हुआ कि वह अपने देशवासियों के एक शिष्टमंडल के साथ सुकुमार सेन से मिलने गया।

 

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