बंधनमुक्त संवैधानिक पद स्वतंत्रता एवं अखंडता सुनिश्चित करते है,कैसे?

बंधनमुक्त संवैधानिक पद स्वतंत्रता एवं अखंडता सुनिश्चित करते है,कैसे?

०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow
०१
WhatsApp Image 2023-11-05 at 19.07.46
previous arrow
next arrow

श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

भारत के संविधान निर्माताओं ने राष्ट्रीय महत्त्व के क्षेत्रों को विनियमित करने के लिये ऐसे स्वतंत्र संस्थानों की आवश्यकता को चिह्नित किया था जो कार्यपालिका के हस्तक्षेप से मुक्त हों।

  • इसके परिणामस्वरूप, लोक सेवा आयोग, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (CAG), भारत निर्वाचन आयोग (ECI), वित्त आयोग तथा अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और पिछड़े वर्गों के राष्ट्रीय आयोगों जैसे विविध संवैधानिक प्राधिकरणों का गठन हुआ।

संवैधानिक प्राधिकारियों की नियुक्ति कैसे की जाती है?

  • संविधान में उस तरीके का उपबंध किया गया है जिसके अनुसार इन संस्थानों के प्रमुख व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना है।
    • विभिन्न संवैधानिक प्राधिकारियों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
      • प्रधानमंत्री (अनुच्छेद 75),
      • भारत के महान्यायवादी (अनुच्छेद 76),
      • वित्त आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्य (अनुच्छेद 280),
      • लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्य (अनुच्छेद 316), तथा
      • भाषाई अल्पसंख्यकों-वर्गों के लिये एक विशेष अधिकारी (अनुच्छेद 350B)
    • राष्ट्रपति द्वारा ये नियुक्तियाँ ‘‘राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा नियुक्त करेगा’’ शब्दों का उपयोग करते हुए की जाती हैं।
      • सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश (अनुच्छेद 124 और 217)
      • CAG (अनुच्छेद 148)
      • राज्यपाल (अनुच्छेद 155)
      • अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्गों के राष्ट्रीय आयोगों के अध्यक्ष एवं सदस्यों की नियुक्ति के लिये राष्ट्रपति को अधिकृत करने वाले अनुच्छेदों 338, 338A और 338B में समान शब्दों का इस्तेमाल किया गया है।
  • संविधान निर्माताओं ने स्वतंत्रता पर विशेष बल देते हुए इन संस्थानों के लिये नियुक्ति प्रक्रिया निर्धारित की।
  • राष्ट्रपति इन व्यक्तियों को ‘‘अपने हस्ताक्षर और मुद्रा सहित अधिपत्र द्वारा’’ नियुक्त करता है। इन शब्दों के उपयोग से राष्ट्रपति को अप्रतिबंधित और मुक्त चयन का अधिकार दिया गया है, जिससे विधायिका से उसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित होती है।

अप्रतिबंधित और मुक्त विकल्प क्यों दिया गया?

  • सर्वोच्च न्यायालय ने एन. गोपालस्वामी और अन्य बनाम भारत संघ मामले में कहा कि राष्ट्रपति कार्यपालिका में निहित सभी मामलों में मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह पर कार्य करता है जिसका प्रधान प्रधानमंत्री होता है।
  • हालाँकि, ऐसे मामलों में जहाँ किसी विशेष संवैधानिक प्राधिकार की नियुक्ति को कार्यपालिका से स्वतंत्र रखा जाना है, यह प्रश्न उठता है कि क्या ऐसी व्याख्या उस सोच के अनुरूप होगी जो संबंधित संविधान सभा की बहसों के दौरान प्रकट की गई थी।
    • संविधान सभा की बहसों में यह चिह्नित किया गया कि संवैधानिक निकायों के प्रमुख व्यक्तियों को विधायिका या कार्यपालिका से स्वतंत्र होना चाहिये।
    • संविधान सभा ने विचार किया की कि इन व्यक्तियों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिये राष्ट्रपति का चयन अप्रतिबंधित और मुक्त होना चाहिये।
    • संविधान में किये गए संशोधन इसी सोच को दर्शाते हैं।

सर्वोच्च न्यायालय की हाल की टिप्पणियाँ

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय की दो हालिया टिप्पणियाँ भारत में विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों की स्वतंत्रता के संबंध में प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पन्न करती हैं।
    • सेना बनाम सेना :
      • ‘सेना बनाम सेना’ मामले में न्यायालय ने राज्य की राजनीति में राज्यपालों द्वारा निभाई जा रही सक्रिय भूमिका पर ‘गंभीर चिंता’ प्रकट की।
      • न्यायालय ने माना कि राज्यपालों का राजनीतिक प्रक्रियाओं का अंग बनना चिंताजनक है।
    • भारत निर्वाचन आयोग मामला:
      • इससे पूर्व, न्यायालय ने मुख्य चुनाव आयुक्त एवं अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति करने में कार्यपालिका को उसके एकमात्र विवेकाधिकार से वंचित कर दिया था, जब इन संवैधानिक पदों के लिये उपयुक्त नामों की अनुशंसा हेतु समिति का गठन किया था।

स्वतंत्र संस्थानों की आवश्यकता क्यों है?

  • नियंत्रण एवं संतुलन के लिये:
    • लोकतंत्र में तत्समय सरकार द्वारा सत्ता के मनमाने उपयोग पर अंकुश के लिये नियंत्रण एवं संतुलन (Checks and Balances) की एक व्यवस्था का होना आवश्यक है।
  • विभिन्न क्षेत्रों को विनियमित करने के लिये:
    • भारत का संविधान कार्यकारी हस्तक्षेप के बिना राष्ट्रीय महत्त्व के क्षेत्रों को विनियमित करने के लिये विभिन्न संवैधानिक प्राधिकरणों का प्रावधान करता है।
  • विधि के शासन की रक्षा:
    • स्वतंत्र संस्थानों की अनुपस्थिति में यह जोखिम है कि सत्तारूढ़ लोग अपने अधिकार का दुरुपयोग कर सकते हैं, जिससे विधि के शासन में गिरावट आ सकती है और लोकतंत्र के सिद्धांत कमज़ोर किये जा सकते हैं।
  • सुशासन को बढ़ावा देना:
    • सुशासन को बढ़ावा देने के लिये स्वतंत्र संस्थाएँ आवश्यक हैं जो सुनिश्चित करती हैं कि सरकार की कार्रवाइयाँ निष्पक्ष, पारदर्शी और जनहित में हैं।
    • यह सरकार के प्रति भरोसे के निर्माण में मदद करता है और यह सुनिश्चित करता है कि नागरिक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने में सक्षम हों।
  • मानवाधिकारों की रक्षा करना:
    • स्वतंत्र संस्थानों को प्रायः मानवाधिकारों की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने का कार्य सौंपा जाता है कि सभी नागरिकों के अधिकारों का सम्मान किया जाए।
    • इसमें अल्पसंख्यकों, महिलाओं और बच्चों जैसे कमज़ोर समूहों की रक्षा करना तथा यह सुनिश्चित करना शामिल है कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में उनकी आवाज़ सुनी जाए।
  • इन संस्थानों को बिना किसी भय या पक्षपात के और राष्ट्र के व्यापक हित में कार्य करने में सक्षम बनाने के लिये पूर्ण स्वतंत्रता की आवश्यकता है।

आगे की राह

  • स्पष्ट और पारदर्शी नियुक्ति:
    • इन पदों पर व्यक्तियों की नियुक्ति के लिये स्पष्ट और पारदर्शी मानदंड स्थापित किया जाना चाहिये जहाँ विशेषज्ञता, अनुभव और सत्यनिष्ठा की शर्तों की पूर्ति हो।
      • स्पष्ट दिशानिर्देश विकसित करना, चयन प्रक्रिया में विशेषज्ञों को शामिल करना, चयन समिति का गठन करना आदि कुछ उपाय हो सकते हैं।
  • संवैधानिक प्राधिकारियों की जवाबदेही:
    • ऐसे पदों को धारण करने वाले व्यक्तियों के लिये जवाबदेही की स्पष्ट रेखाएँ स्थापित की जाएँ जिसमें नियमित रिपोर्टिंग आवश्यकताएँ और कदाचार या अनौचित्य के किसी भी आरोप की जाँच के लिये तंत्र का होना भी शामिल है।
      • कदाचार की जाँच के लिये तंत्र विकसित करना, कठोर आचार संहिता लागू करना आदि जवाबदेही सुनिश्चित करने में सहायक हो सकते हैं।
  • प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण:
    • इन पदों पर नियुक्त व्यक्तियों के लिये प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों के विकास का समर्थन किया जाए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि उनके पास अपने कार्यों को प्रभावी ढंग से कर सकने के लिये आवश्यक कौशल एवं ज्ञान हो।
      • व्याख्यान, केस स्टडी, सिमुलेशन और व्यावहारिक प्रशिक्षण के माध्यम से ऐसा किया जा सकता हो।
  • प्रदर्शन का मूल्यांकन:
    • इन पदों को धारण करने वाले व्यक्तियों के प्रदर्शन की निगरानी और मूल्यांकन नियमित रूप से किया जाना चाहिये ताकि सुनिश्चित हो सके कि वे अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन अच्छी तरह से कर रहे हैं और स्वतंत्रता एवं अखंडता के मानकों को बनाए हुए हैं।
      • इसके साथ ही, प्रदर्शन संकेतक एवं प्रतिक्रिया तंत्र स्थापित करने और प्रदर्शन रिपोर्ट प्रकाशित करने जैसे उपाय किये जा सकते हैं।

 

Leave a Reply

error: Content is protected !!