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हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने के गांधी जी के विचार को तिलांजलि दे दी गई,क्यों? - श्रीनारद मीडिया

हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने के गांधी जी के विचार को तिलांजलि दे दी गई,क्यों?

हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने के गांधी जी के विचार को तिलांजलि दे दी गई,क्यों?

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श्रीनारद मीडिया सेंट्रल डेस्क

वर्ष 1937 में तत्कालीन मद्रास प्रांत में हिंदी को लागू करने के विरोध की जो राजनीति शुरू हुई, वह अब तक जारी है। इसी विरोध की आड़ में हिंदी को भारत की राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित करने के गांधी जी के विचार को तिलांजलि दे दी गई। उसके बाद जब भी हिंदी को अंग्रेजी की जगह देश की संपर्क भाषा बताने की बात होती है, तब विशेषकर दक्षिण भारत के तमिलनाडु से राजनीतिक विरोध शुरू हो जाता है।

गत दिनों केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राजभाषा संसदीय समिति की बैठक में हिंदी को अंग्रेजी की जगह संपर्क भाषा के तौर पर अपनाने की बात क्या कही, एक बार फिर पहले की ही तरह हिंदी का विरोध शुरू हो गया है। हिंदी विरोध की इस राजनीति को मोदी विरोध के हथियार के तौर पर भी स्वीकार कर लिया गया है।

अगर ऐसा नहीं होता तो इसमें कर्नाटक के कांग्रेसी नेता सिद्धरमैया भी शामिल नहीं होते। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी इसका विरोध कर रही हैं। अमित शाह ने जो कहा, वह हिंदी के संदर्भ में भारत का सच है। इस सच को देखने के लिए उस श्रीलंका की तरफ देखना होगा, जहां की हर घटना का असर तमिलनाडु की राजनीति और जनजीवन पर पड़ता है। श्रीलंका में हिंदी किस कदर स्थान बना चुकी है, इसे समझने के लिए वहां इन दिनों जारी विरोध-प्रदर्शनों की मीडिया रिपोर्टिग को देखा जाना चाहिए। वहां रिपोर्टिग करने पहुंचे भारतीय हिंदी टीवी चैनलों के संवाददाता स्थानीय लोगों से हिंदी में सवाल पूछ रहे हैं और श्रीलंका के लोग हिंदी में ही जवाब भी दे रहे हैं।

बंगाल के चुनावों में भाजपा से दो-दो हाथ करते हुए ममता बनर्जी ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस की परंपरा को भी अपना हथियार बनाया था, लेकिन हिंदी का विरोध करते वक्त वह उनकी कोशिशों को भूल गईं। सुभाष बाबू कहा करते थे कि जनता के साथ राजनीति हिंदी के जरिये ही हो सकती है। कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद हिंदी में सहज तरीके से काम करने में दिक्कत न हो, इसके लिए उन्होंने हिंदी सीखी थी। ऐसे में ममता के विरोध का कोई तुक समझ में नहीं आता। गांधी जी के बाद हिंदी की मजबूत आवाज लोहिया थे। उन्होंने अंग्रेजी हटाओ अभियान चलाया था।

आज के तमाम समाजवादी नेता उसी आंदोलन की उपज हैं। उत्तर प्रदेश में जब 1989 में मुलायम सिंह मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने राज्यों के बीच संपर्क भाषा के तौर पर हिंदी को अपनाने की कोशिश के तहत तमिलनाडु को हिंदी में चिट्ठी भेजी थी। उस चिट्ठी के साथ तमिल अनुवाद भी था, लेकिन वहां के तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने उस योजना को पलीता लगा दिया था। उसके बाद मुलायम पस्त पड़ गए। इन संदर्भो में देखें तो अमित शाह कहीं ज्यादा गंभीरता से हिंदी की बात कर रहे हैं और हिंदी को उसका वाजिब सम्मान दिलाने के लिए कोशिश कर रहे हैं।

हिंदी विरोध की परंपरा हमारी राजनीति में शुरू से ही रही है। गांधी जी चाहते थे कि भारत से किसी भी तरह अंग्रेजियत चली जाए। अव्वल तो होना यह चाहिए था कि गांधी जी के इस सोच के मुताबिक हिंदी भारत की संपर्क भाषा होती, लेकिन हिंदी थोपने की कथित कोशिशों के खिलाफ उठने वाली आवाजों के भय से हिंदी को उसका वाजिब हक और सम्मान दिलाना टलता रहा। भारतीय राजनीति इस सवाल को भविष्य के हाथ में टालती रही। यह बात और है कि बाजार लगातार हिंदी को ताकतवर बनाता रहा।

बाजार की ताकतों का दबाव ही है कि अब तमिलनाडु की वह पीढ़ी भी हिंदी न सीख पाने के लिए अफसोस जताती है, जो अंग्रेजी हटाओ आंदोलन की प्रतिक्रिया में हिंदी विरोध की ज्वाला से झुलसती रही। हिंदी की क्षमता को बाजार ने समझा तो अब गैर हिंदी भाषी राज्यों के युवा भी हिंदी सीखने लगे हैं। उस तमिलनाडु के नेता भी यह स्वीकार करने लगे हैं कि अगर उन्हें अखिल भारतीय छवि प्राप्त करनी है तो हिंदी आनी चाहिए। वर्ष 1996 के आम चुनावों में कांग्रेस की हार और लोकसभा के त्रिशंकु नतीजों के बाद तत्कालीन तमिल मनिला कांग्रेस के नेता जीके मूपनार तब प्रधानमंत्री पद के प्रमुख दावेदार बनकर उभरे थे, लेकिन उनकी राह में हिंदी न बोल पाना रोड़ा बनकर उभर आया था। जिसके बाद दूसरे गैर हिंदी भाषी एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने और उन्होंने भी सायासिक ढंग से हिंदी बोलने की कोशिश की।

हिंदी की यह सहज स्वीकार्यता ही है कि पूवरेत्तर भारत की बोडो, जेमी, किरबुक समेत आठ भाषाओं ने देवनागरी लिपि को स्वीकार कर लिया है। गांधी जी के रचनात्मक शिष्य विनोबा भावे ने 1972 में कहा था, ‘देवनागरी लिपि हिंदुस्तान की सब भाषाओं के लिए चले तो हम सब लोग बिल्कुल नजदीक आ जाएंगे। खासतौर से दक्षिण की भाषाओं को देवनागरी लिपि का लाभ होगा।

वहां की चार भाषाएं-तेलुगु, कन्नड़, तमिल, मलयालम अत्यंत नजदीक हैं। इनमें संस्कृत शब्दों के अलावा इनके अपने जो प्रांतीय शब्द हैं, उनमें भी बहुत से शब्द समान हैं। वे शब्द देवनागरी लिपि में अगर आ जाते हैं तो दक्षिण भारत की चारों भाषाओं को लोग 15 दिन में सीख सकते हैं।’ विनोबा जी की कोशिश उनके जीते-जी भले ही सफल नहीं हुई, लेकिन अब वह साकार होती नजर आ रही है। यह हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के बीच एकता की दिशा में महत्वपूर्ण कदम होगा।

अमित शाह के बयान के बाद हिंदी विरोधी लोगों ने एक तर्क दिया है कि संविधान सभा में हिंदी को लेकर तीखी बहस हुई थी, लेकिन यह अर्धसत्य है। यह सच है कि हिंदी का समर्थन हिंदीभाषी सदस्यों की तुलना में गैर हिंदी भाषी सदस्यों ने ज्यादा किया था। हिंदी पर अमित शाह के बयान को इन तथ्यों के संदर्भ में ही देखा जाना चाहिए। बेवजह इसे राजनीति का विषय बनाना हिंदी ही नहीं, उन युवाओं का भी प्रतिकार है, जो आर्थिकी केंद्रित विश्व व्यवस्था से कदमताल करते हुए अपना और देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान देना चाहते हैं।

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